रविवार

आब-ए-आफ़ताब


आब-ए-आफ़ताब

अनुपम स्पंदन शबनम सा तेरी आँखों मे जो ठहर गया,
दिल में छिपे कुछ भावों को चुपके से कह के गुजर गया।

बनकर मोती ठहरा है जो तेरी झुकी पलकों के कोरों पर,
उसकी आब-ए-आफ़ताब पर ये दिल मुझसे मुकर गया।

जिन राहों पर चले थे कभी थाम हाथों में हाथ तेरा,
देख तन्हा उन्हीं राहों में मील का पत्थर भी पिघल गया।

माना कि रंजो-गम है बहुत इस बेमुरौव्वत सी दुनिया में,
हमराह मेरा तू जब भी बना खुशियों का मेला ठहर गया।

आए थे क्या लेकर हम और क्या लेकर अब जाएँगे,
पर पाने को इक पल साथ तेरा ये दिल हर हद से गुजर गया।

राहे उल्फ़त दुश्वार बहुत ये समझाया लाख जमाने ने
पाने को मंजिले इश्क ये दिल आग के दरिया में उतर गया।

सोचा था कि उल्फ़ते इकरार लबों पे न आने देंगे कभी
पर बताने को हालेदिल बेकरार ये अश्क रुख्सारों पे ठहर गया

मालती मिश्रा

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