शनिवार

नोटबंदी के मारे नेता बेचारे



चुनाव के वक्त सभी राजनीतिक पार्टियाँ अपने-अपने अलग-अलग घोषणा-पत्र तैयार करती हैं और सभी के चुनावी घोषणा पत्रों में कुछ बातें कॉमन होती हैं, जो घोषणा सौ प्रतिशत सभी पार्टियाँ शामिल करती हैं वो है भ्रष्टाचार का उन्मूलन, कालाधन पर रोक, कालेधन की वापसी आदि। परंतु सत्ता में आने के बाद इन वादों को कचरे के डब्बे में फेंक दिया जाता है। क्यों न हो सभी जानते हैं कि 'हमाम में तो सभी नंगे हैं।' कौन पूछेगा? जनता खुद तो आएगी नहीं पूछने...जनता को मूर्ख बनाना तो राजनेता अपना मौलिक अधिकार मानते हैं, इसीलिए बेखौफ इसी मार्ग पर अग्रसर रहते हैं। 
पहली बार ऐसा हुआ है कि किसी प्रधानमंत्री ने ऐसा अदम्य साहस दिखाया है, जो वादा किया था अपने उस वादे पर कदम दर कदम आगे बढ़ता नजर आया है। तो क्यों न जनता को गर्व हो अपने उस प्रधानमंत्री पर जिसने आज देश के करोड़पतियों और गरीबों को एक समान एक लाइन में खड़ा कर दिया। 
सबसे बड़ा जो कार्य हुआ है वो है दोहरे मुखौटे वालों का असली चेहरा सामने लाने का....जी हाँ जो कालाधन वापस लाओ....कालाधन वापस लाओ...के नारे लगाते थे आज वही गुटबंदी कर नोटबंदी के खिलाफ खड़े हैं। जो अपनी आवाज को जनता की आवाज बताते थे आज वही जनता की आवाज दबाकर अपनी आवाज उठा रहे हैं और इसे जनता का नाम दे रहे हैं।
जनता परेशानियों का सामना कर रही है इसमें कोई संदेह नहीं पर वह इस परेशानी को सकारात्मक रूप में देख रही है, जनता को सरकारों ने ७० सालों से लाइन में खड़ा कर रखा है...कभी बिजली के बिल की लाइन, कभी पानी के बिल की लाइन, कभी राशन दफ्तर के बाहर लाइन तो कभी गैस सिलेंडर की लाइन, कभी रेल टिकट की लाइन तो कभी फिल्मों के टिकट की लाइन, कभी नये मोबाइल की लाइन और तो और भगवान के दर्शन के लिए भी मंदिर में घंटों की लम्बी लाइन। बैंकों में लम्बी लाइन में खड़े होना कोई नई बात नहीं है पर पहले कभी इन फिक्रमंदों ने फिक्र नहीं की और न ही मीडिया इतनी सतर्क नजर आई परंतु अब जब अपनी जेब पर वार हुआ तो जनता की पीड़ा को ढाल बनाने के लिए नेता मीडिया सब जनता  के दर्द में अपने दर्द को छिपाते हुए इतने संवेदनशील बन गए हैं कि तिजोरी कैसे भरें, चंदा कहाँ से लें इन सभी चिंताओं को छोड़ जनता की चिंता करने लगे हैं।.   इसे कहते हैं अच्छे दिन।
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कही जाने वाली मीडिया भी देश को सच्चाई से अवगत न कराके सिर्फ नकारात्मक और सुनियोजित खबरें ही दिखाता है। माना कि मीडिया पर अधिकांश जनता विश्वास करती है क्योंकि वही स्रोत होता है पूरे देश के विषय में जानने का  लेकिन जब जनता अपने आस-पास कुछ और देख रही हो और मीडिया लगातार कुछ और दिखा रहा हो तो निःसंदेह मीडिया का असली चेहरा सामने आ ही जाता है। मेरे आस-पास भी बाजारें हैं, मैंने नोटबंदी के कारण बाजारों में सिर्फ दो तीन दिन असर देखा था फिर से उतनी ही भीड़, उतनी ही खरीद-फरोख्त होने लगी, हाँ इतना बदलाव जरूर आया है कि दुकानदारों ने उधार देना शुरू कर दिया बहुतों ने ऑन लाइन पेमेंट लेना शुरू कर दिया परंतु बिकाऊ मीडिया सकारात्मकता नहीं दिखाती ऐसे में कब तक हम इन चैनलों की सच्चाई से अनभिज्ञ रहेंगे।
९० प्रतिशत जनता परेशानियों के बावजूद खुश है क्योंकि वह जानती है कि ये परेशानियाँ कुछ दिनों की है परंतु आगे आने वाली पीढ़ियों का भविष्य अच्छा होगा। परंतु आज सभी विरोधी पार्टियाँ हाय-तौबा मचा रही हैं कि जनता परेशान है, इससे पहले कानून की बदहाली, सरकारों के घोटाले, रुतबे के गलत प्रयोग, आरक्षण की मार आदि से जनता त्राहि-त्राहि करती रही है तब इन पार्टियों के कानों तक जनता की आवाज नही पहुँची। जनता इस समय बखूबी समझ रही है इनके दर्द का कारण, आखिर मायावती के नोटों की मालाओं का क्या होगा, मात्र तीन साल में राहुल गाँधी के जीजा वाड्रा के 50 लाख से 300 करोड़ बने खजाने का क्या होगा, ममता बनर्जी के चिटफंड के खजाने का क्या होगा? रातों-रात करोड़पति बने केजरीवाल के हवाला से मिले करोड़ों तो रद्दी ही बन गए, अब यदि ये लोग नहीं चिल्लाएँगे तो कौन चिल्लाएगा। 
देश के प्रधानमंत्री जिनका आज पूरा विश्व सम्मान करता है, जिनके कारण आज विश्व में भारत को सम्मान की नजर से देखा जाता है, जिसके कारण आज हम भारतीय होने पर गर्व कर रहे हैं...ये विरोधी पार्टियाँ उनपर खुलेआम इल्जाम लगा रही हैं कि नोटबैन की आड़ में वो घोटाला कर रहे हैं....और अपने इस कुकृत्य के लिए किसी ने माफी माँगने की आवश्यकता नही समझी। ये विरोध में इतने अंधे हो गए हैं कि पदों की गरिमा भूल गए हैं। जवाब में प्रधानमंत्री ने कहा कि "यदि इन्हें  तैयारी के लिए ७२ घंटे दिए जाते तो आज यही पार्टियाँ समर्थन में खड़ी होतीं" (जो कि अक्षरशः सत्य है यह इस देश का बच्चा-बच्चा जानता है।) तो ये कहते हैं कि प्रधानमंत्री इस कथन के लिए माफी माँगें....क्यों?.. विचारों की अभिव्यक्ति की आजादी क्या सिर्फ भ्रष्टाचारियों, देशद्रोहियों को ही है? प्रधानमंत्री को यह अधिकार भी नहीं कि वह सत्य बोल सकें? 
आज देश का प्रत्येक नागरिक यह समझ चुका है कि नोटबंदी के इस फैसले से से अधिक परेशानी किसको हो रही बै सर्वाधिक नुकसान किसका हो रहा है? इसलिए यह तो तय है कि २८ नवंबर के बंद में जो भी दुकानें, मॉल, बाजार बंद होंगे वो सभी जमाखोरों की जमात का हिस्सा होंगे। अन्यथा सोचने की बात है कि क्या बंद से जनता परेशान नहीं होगी? फिर जनता के कंधे पर रखकर बंदूक चलाने वालों को अब जनता की परेशानी नहीं दिखाई पड़ रही......
मालती मिश्रा

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