शुक्रवार

बाबूजी ने सुनाई कहानी-'एक तो देखी घर की नार'


   सभा समाप्त हुई, राजा साहब लुटेरों को ढूँढ़ने का आदेश देकर दरबार से प्रस्थान कर चुके थे, सभी मंत्रियों, दरबारियों में बुदबुदाहट शुरू हो गई थी..
कोई कह रहा था कि जरूर कोई भीतर का ही होगा अन्यथा इतनी बड़ी चोरी को अन्जाम देना असंभव है तो दूसरा कहता नही इतना साहस किसी में नहीं कि वो इस कदर विश्वासघात करे, जरूर कोई शातिर अनुभवी लुटेरा होगा......
माधव ये सब बड़े ध्यान से सुन रहा था वो दरबार में सभा शुरू होने से पहले ही आ गया था, वो समय पर पहुँचकर यहाँ के राजा को एक महत्वपूर्ण सूचना देना चाहता था...सभा शुरू हुई..महामंत्री ने राजा को नगर में हुई बहुत बड़ी चोरी की सूचना दी, सभी इस समस्या पर विचार-विमर्श करते रहे...एक कोने में खड़ा माधव इस इंतजार में था कि कोई उससे पूछे तो वो सब सच्चाई बताकर चोर को पकड़वाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे...परंतु उससे कुछ पूछना तो दूर किसी ने उसकी ओर देखा तक नहीं| जब सभा समाप्ति की घोषणा करके राजा चले गए तो मायूस हेकर माधव बड़बड़ाते हुए जाने लगा......
इक तो देखी घर की नारी,
थूक-फज़ीहत लातन से मारी,
दूजा देखा फुक्कन वीर
गठरी ले गयो नदी के तीर,
तीजा देखा जटाधारी,
लूट शहर आसन-धारी,
चौथा देखा राज-दरबार,
कोई न पूछे बात हमार |
स्वयं से ही बुदबुदाते हुए माधव राज दरबार से बाहर की ओर जाने लगा....किंतु उसकी बातें किसी मंत्री के कानों को सचेत कर चुकी थीं, उस मंत्री की कठोर आवाज आई....रुको, माधव के पैर ज्यों के त्यों रुक गए....कौन हो तुम? पहले कभी तो नही देखा, कहाँ से आए हो?
मंत्री ने एक साथ कई प्रश्न पूछ डाले, उसके स्वयं के चेहरे पर भी कई सवालिया निशान साफ दृष्टिगोचर हो रहे थे|
साहब जी मैं माधव हूँ, यहाँ से बहुत दूर एक छोटे से गाँव टीकमपुरा से आया हूँ |
तुम अभी क्या बोल रहे थे? मंत्री ने पूछा
साहब मैं कह रहा था- इक तो देखी........
माधव ने वही लाइनें ज्यों की त्यों दुहरा दीं
म्मैं समझा नहीं तुम्हारी इस पहेली का मतलब, सीधे-सीधे समझाओ नहीं तो कैद कर लिए जाओगे....मंत्री ने धमकाते हुए कहा
माधव बोला- मंत्री जी मेरी इस पहेली को समझने के लिए आपको मेरी पूरी आपबीती सुननी पड़ेगी |
क्या ये आवश्यक है? मंत्री बोला
मेरे लिए न सही परंतु आपके लिए आवश्यक है...माधव ने जवाब दिया
वो कैसे? मंत्री ने पूछा
वो तो पूरी बात सुनकर ही जान पाएँगे...माधव ने कहा
ठीक है सुनाओ...कहकर मंत्री कुछ अन्य मंत्रियों के साथ वहीं दरबार में बैठ गया, माधव ने बताना शुरू किया......

शाम का समय था दिन भर के अनवरत सफर से थककर सूर्य देव भी विश्राम हेतु अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान कर चुके थे, रात अपना स्याह आँचल धीरे-धीरे फैलाने लगी थी,तेजी से उड़ते पंछियों के झुंड अपने-अपने नीड़ की ओर पहुँचने की जल्दी में प्रतीत हो रहे थे किंतु सुबह का निकला माधव अबतक घर वापस नही आया, कमली हल्की सी आहट पाकर दरवाजे की ओर देखती किंतु माधव को न पाकर निराश हो जाती, कमली पानी पिला दो,बहुत प्यास लगी है...अचानक माधव की आवाज सुनकर कमली पीछे मुड़ी....माधव बाहर पड़ी खाट पर बैठते हुए बोला|
बड़े थके हुए लग रहे हो लगता है कई दिनों की मजदूरी एक ही दिन में कर आए हो...पानी का लोटा माधव की ओर बढ़ाते हुए कमली ने कहा,
कहाँ पगली, सुबह से सिर्फ ये दो जून की रोटी का इंतजाम हुआ है....कहते हुए माधव ने अनाज की छोटी सी पोटली अपनी पत्नी की ओर बढ़ा दी,
खुशी से दमकते कमली के चेहरे पर एकाएक उदासी के बादल घिर आए जिसे माधव ने भी महसूस किया...
कमली, मैं सोच रहा हूँ मैं कुछ दिनों के लिए शहर चला जाऊँ, कुछ पैसे कमा लूँगा फिर यहाँ आकर छोटा-मोटा धंधा शुरू कर दूँगा...माधव ने कहा
पर जाओगे कैसे, हमारे पास तो थोड़ा-बहुत भी कुछ नहीं है राह में क्या खाओगे? कमली ने कहा,
तुम चिंता न करो मैं इंतजाम कर लूँगा...माधव बोला
सुबह होते ही माधव शहर जाने के लिए तैयार होने लगा, पड़ोस में रह रहे भाई से कुछ रूपए उधार ले आया, उनमें से कुछ कमली को दे दए और बचे हुए रूपए स्वयं के लिए रख लिए... कमली ने उसके कपड़े एक पोटली मे बाँध दिए और रास्ते में खाने के लिए रोटी-अचार,कुछ चबैना पोटली में रख दिया और उदास होकर माधव से बोली-तुम्हारे जाने के बाद मैं कैसे रहूँगी? 
मैं जल्द ही वापस आ जाऊँगा, बस एक-दो महीने की बात है तब तक भइया और उनका परिवार है न वो तुम्हें कोई परेशानी न होने देंगे...कह कर माधव ने विदा ली|

चलते-चलते एक प्रहर बीत गया माधव भी थक गया था, वह एक पेड़ के नीचे बैठ कर आराम करने लगा, उसकी सोच ने करवट बदली मेरी पत्नी क्या कर रही होगी, बेचारी कितनी उदास होगी कोई आश्चर्य नहीं कि वो रो रही हो...हे भगवान ये मैंने क्या कर दिया, इतना प्रेम करने वाली अपनी पत्नी को अकेली छोड़कर आ गया....वो तो मेरे बगैर खाना भी नही खाएगी, यदि ऐसा हुआ तो बीमार पड़ जाएगी, नहीं-नहीं मैं ऐसा नहीं होने दूँगा मैं उसे भी साथ ले जाऊँगा....सोचते हुए माधव जल्दी से उठा और वापस गाँव की ओर चल दिया | कमली मुझे देखकर कितनी खुश होगी और जब मैं उसे साथ ले जाने की बात बताऊँगा तब तो खुशी से पागल ही हो जाएगी...सोचते हुए माधव के पैर दोगुना तेजी से घर की ओर बढ़ रहे थे....घर पहुँचते-पहुँचते दो प्रहर बीत चुके थे,घर के भीतर जाने से पूर्व माधव के मन में जिज्ञासा हुई ये जानने की कि कमली क्या कर रही है? उसने खिड़की के पट को हल्के से सरकाया और दरार में से झाँका तो वो स्तब्ध रह गया.... कमली उसकी फोटो के टुकड़े-टुकड़े कर रही थी फिर उन टुकड़ों पर उसने थूक दिया और लात से मारते हुए बोली-तुझे याद करे मेरी जूती, जब से इस घर में आई हूँ तूने सिवाय कंगाली के दिया ही क्या है? अब मैं अपने माँ-बाप के घर आराम से रहूँगी....तेरे रहते तो वहाँ भी नहीं रह सकती थी | 
माधव का हृदय छलनी-छलनी हो गया....वो दबे कदमों से वापस मुड़ा और फिर चल दिया शहर की ओर....किंतु इस बार मन में उत्साह नहीं था कुछ कर गुजरने का जुनून नहीं था.....निराशा और हताशा उसकी चाल में साफ दिखाई दे रही थी |

चलते-चलते शाम हो गई, सूर्यास्त हो रहा था, अँधेरा अपना दामन पसारने लगा था...माधव को शौच जाने की आवश्यकता महसूस हुई. वो इधर-उधर देखने लगा...पास ही नदी बह रही थी, दूर-दूर तक खेत नजर आ रहे थे...शाम के धुंधलके में एक साया माधव को अपनी ओर आता हुआ प्रतीत हो रहा था, धीरे-धीरे वो साया करीब आ गया....वो माधव की ही तरह एक राही था | दोनों ने एक-दूसरे का परिचय प्राप्त किया..उसने माधव को अपना नाम फुक्कन वीर बताया| शीघ्र ही दोनों मे दोस्ती हो गई...माधव शौच के लिए खेतों में चला गया और अपनी पोटली वहीं नदी के किनारे फुक्कन वीर की देख-रेख में छोड़ गया|
कुछ देर के बाद माधव उसी स्थान पर वापस आया तो फुक्कन वीर को वहाँ न पाकर पुकारने लगा- फुक्कन वीर कहाँ हो मित्र?
किंतु कई बार पुकारने के बाद भी जब कोई उत्तर नही मिला तो घबरा कर इधर-उधर ढूँढ़ने लगा.. परंतु उसे फुक्कन वीर कहीं न मिला वह समझ गया कि वह उसकी पोटली लेकर भाग गया | माधव बहुत दुखी हुआ, उसकी पोटली में ही उसके कपड़े, खाने का कुछ सामान और भाई से लिए गए पैसे रखे थे, अब उसके पास कुछ भी नही था वो पापस घर भी नहीं जा सकता था.... दुखी होकर वह वहीं बैठ गया, क्या करे क्या न करे उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था, दिन छिप चुका था, वह उठा और दिशा हीन सा एक ओर चल दिया कुछ देर चलने के उपरांत वह एक बगीचे में पहुँचा...रात बहुत हो चुकी थी भूख के मारे उसके पेट में चूहे दौड़ रहे थे, खाने को तो कुछ था नही, रात बिताने के लिए उसे यह स्थान उचित लगा... रात के अँधेरे में उसे कुछ दूरी पर एक कुटिया दिखाई दी, वह आश्रय की उम्मीद में उधर चल दिया, कुटिया के सामने कुछ दूरी पर ऊँची-ऊँची झाड़ियाँ थीं जिनमें यदि व्यक्ति छिपना चाहे तो बैठकर आसानी से छिप सकता था....माधव झाड़ियों के पास पहुँचा तभी कुटिया में कुछ हलचल सुनाई दी, माधव के पैर ठिठक गए...उसने काले वस्त्रों मे कुछ लेगों को बाहर आते देखा तो झट से झाड़ियों के पीछे छिप गया....ये लोग उसे ठीक नहीं लग रहे थे..उनमें से एक बोला-सरदार आज किसको शिकार बनाने का इरादा है? 
शहर के साहूकार को..उनका सरदार बोला, और इसप्रकार बातें करते हुए वो लोग वहाँ से चले गए | 
माधव किंकर्तव्यविमूढ़ सा उन लोगों को देखता रहा, वो लोग आठ थे...माधव समझ चुका था कि वो चोर-लुटेरों की कुटिया में आ गया है वो वहाँ से भागना चाहता था किंतु अर्धरात्रि के अँधेरे में वो कहाँ जाए, अभी इन्हीं झाड़ियों में पड़ा रहता हूँ सवेरे सूर्योदय से पहले ही चला जाऊँगा ऐसा सोचकर माधव वहीं झाड़ी के पीछे लेट गया और उसकी आँख लग गई....
अचानक किसी की आहट से माधव की निद्रा भंग हुई..शायद कोई उसके बिल्कुल पास से गुजरा था, वह सावधानी पूर्वक उठा और देखा तो वही काले वस्त्रधारी लुटेरे वापस आ चुके थे, उनके हाथों में गठरियाँ थीं...सरदार आज तो बहुत माल हाथ लगा है, उनमें से एक बोला
हाँ अब तुम लोग शीघ्रता से नीचे जाओ रात का अंतिम प्रहर समाप्त होने वाला है, कुछ ही देर बाद लोगों का आवागमन आरंभ हो जाएगा' कहते हुए सरदार ने एक पोटली से निकालकर जल्दी-जल्दी गेरुए वस्त्र पहने और जटाओं का नकली विग लगाया, वहीं पर बिछे आसन को हटाया और उस तख्त को हटाया जिस पर आसन बिछा था, सभी लुटेरे एक-एक करके वहाँ से नीचे उतरने लगे शायद वहाँ सीढ़ीनुमा कोई मार्ग होगा जो माधव को दिखाई नहीं दे रहा था, सभी लुटेरों के नीचे जाते ही उस साधु बने लुटेरे ने तख्त यथास्थान रखा और उस पर आसन बिछाकर ध्यान लगाने की मुद्रा में उस पर बैठ गया....यह सब देख माधव स्तब्ध हो गया, रात्रि का अँधेरा अभी भी गहराया हुआ था किंतु उसने अनुमान लगाया कि अब शीघ्र ही सवेरा होने वाला है, वह झाड़ियों के पीछे झुके हुए धीरे-धीरे वहाँ से खिसकने लगा और कुछ ही क्षणों में कुटिया से इतनी दूरी पर था कि सुरक्षित वहाँ से जा सके| उसने साधु बने लुटेरे को पकड़वाने का निश्चय किया और मार्गों पर लगे दिशानिर्देश का अवलोकन करते हुए राजमहल की ओर बढ़ने लगा....वहाँ पहुँचते-पहुँचते सूर्योदय हो चुका था, माधव द्वार पर खड़े द्वारपाल से विनती करके भीतर गया.... 

रात्रि की लूट की खबर सिपाहियों को हो चुकी थी जिसके कारण चारों ओर कुछ अधिक ही हलचल थी, शायद आज दरबार की कार्यवाही रोज की तुलना में अधिक शीघ्र शुरू हो रही थी....महाराज के आने की उद्घोषणा के साथ ही सभी सतर्क हो गए...माधव चुपचाप एक कोने में खड़ा हो गया, उसे लगा कि राजा जी सभी से लूट के विषय में पूछेंगे तो वह उन्हें बता देगा परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ.... माधव ने अपनी पूरी आपबीती मंत्री को सुना दिया
हमें ये तो समझ आ गया कि तुम लुटेरों को जानते हो, हम तुम्हारे साथ चलकर उन्हें पकड़ लेंगे परंतु तुम्हारी पहेली का अर्थ समझ नही आया...एक मंत्री ने कहा,
मंत्री जी मैंने कहा था-"एक तो देखी घर की नारी"
"थूक फजीहत लातन से मारी" मतलब मैंने पहले अपनी पत्नी को देखा जो मेरे फोटो पर थूक कर फजीहत करके लात मार रही थी, और फिर मैने कहा-"दूजा देखा फुक्कन वीर गठरी ले गयो नदी के तीर"
मतलब मैंने दूसरा फुक्कन वीर ठग को देखा जो चोरी से मेरी गठरी नदी के किनारे से ले गया, उसके बाद मैंने कहा-"तीजा देखा जटाधारी लूट शहर आसन धारी" अर्थात् मैने तीसरा एक जटाधारी साधु देखा जिसने शहर को लूटकर इस प्रकार आसन ग्रहण कर लिया कि कोई सपने में भी नहीं सोच सकता कि वो कोई लुटेरा है, फिर मैंने कहा-"चौथा देखा राज-दरबार कोई न पूछे बात हमार" अर्थात् मैंने चौथा ये राज-दरबार देखा जहाँ किसी ने भी मेरी बात नहीं पूछी |

सभी मंत्री प्रशंसा भरी नजरों से माधव को देख रहे थे, माधव मन-ही-मन गर्व का अनुभव कर रहा था....मंत्री सिपाहियों को लेकर माधव के साथ उसी कुटिया पर पहुँचे जहाँ साधु बैठकर माला जप रहा था....सिपाहियों के साथ मंत्री जी को देखकर वह बोला-आओ पुत्र इस सन्यासी की कुटिया में तुम्हारा स्वागत है, कहो कैसे आना हुआ?
साधु महाराज रात में शहर में बहुत बड़ी चोरी हुई है, हम उन्हीं चोरों को ढूँढ़ रहे हैं...मंत्री जी ने कहा,
ये तो सन्यासी की कुटिया है पुत्र, हम तो मोह माया से कोसों दूर हैं, तुम्हें कहीं और जाकर ढूँढ़ना चाहिए...साधु ने कहा
नहीं महाराज हमारा मन कहता है कि हमें चोर और चोरी का सामान दोनों यहीं मिल जाएँगे, कहते हुए मंत्री ने साधु की दाढ़ी पकड़कर खींचा किंतु ये क्या दाढ़ी तो मंत्री जी के हाथ में ही रह गई.....साधु बना बहरूपिया भागने को तत्पर हुआ तभी दूसरे सिपाही ने उसे पकड़ लिया और अन्य सिपाहियों ने तहखाने में जाकर बाकी के चोरों समेत लूट का माल बरामद कर लिया |
राजा ने माधव को पुरस्कार-स्वरूप बहुत-सा धन दिया, माधव प्रसन्न होकर अपने गाँव वापस चल दिया.....

साभार.....मालती मिश्रा 

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