ससुराल
निधि कमरे में बैठी मैगजीन के पन्ने पलट रही थी पर मैगजीन पढ़ने में उसका जरा भी मन नहीं लग रहा था, उसका ध्यान तो बाहर हाल में से आ रही आवाजों पर था....जहाँ उसके ससुर जी, सासू माँ और बड़ी ननद सरला के बीच बातचीत हो रही थी। बातचीत भी कहाँ सीधे-सीधे फैसला सुनाया जा रहा था। आज दोपहर ही उसकी ननद दोनों बच्चों के साथ ससुराल से आई हैं। शाम को पापा(ससुर) स्कूल से आए और अपनी बेटी को देखते ही बोले- "तुम क्यों आईं और बच्चों को भी ले आईं!"
दरवाजे के पीछे खड़ी निधि ऐसे चौंक गई मानो गर्म तवे पर पैर पड़ गए हों, वह हतप्रभ थी कि ससुराल से आई हुई बेटी को देखकर कोई पिता ऐसा व्यवहार कैसे कर सकता है! वह अभी दो महीने पहले ब्याह कर आई थी तो इस घर की प्रथा के अनुसार अभी वह ससुर और घर के अन्य पुरुषों के सामने बिना घूँघट किए बाहर नहीं आती थी, अतः वह वहीं कुर्सी खिसका कर बैठ गई उनकी बातें सुनने के लिए..तब उसे पता चला कि सरला की सास ने उसके गहने अपनी बेटी के लिए माँगे तो सरला ने कह दिया कि बाकी सारे तो आप ले चुके हैं बस ये दो कंगन बचे हैं इन्हें वह नहीं देगी। इसी बात के लिए उसकी सास ने और न जाने क्या-क्या बातें जोड़कर उसकी शिकायत अपने बेटे से की और माँ-बेटे ने मिलकर उसे मार-पीट कर घर से बाहर निकाल दिया।
"बड़ों के सामने जबान चलाओगी तो ऐसा तो करेंगे ही।"
उधर ससुर जी की आवाज आई और इधर निधि काँप सी गई। पढ़े-लिखे होकर ऐसे विचार रखते हैं...
"पर पापा मेरी क्या गलती थी मेरे सारे गहने तो ले चुके, जो यहाँ से मिले थे, वो भी।" सरला बोली।
"जो भी हो शादी के बाद बेटी पर माँ-बाप का कोई हक नहीं रह जाता, और ये रोज-रोज छोटी-छोटी बातों पर यहाँ मत चली आया करो, नहीं तो तुम्हें देखकर हमारी बहू भी ऐसा ही करना शुरू कर देगी, इसीलिए जैसे आई हो कल वैसे ही चली जाना।" कहकर पापा जी वहाँ से उठकर बाहर जाने लगे।
निधि को आश्चर्य हो रहा था कि माँ बीच में एक शब्द भी नहीं बोलीं उन्होंने एकबार भी अपनी बेटी का पक्ष नहीं लिया, क्या सिर्फ इसलिए ताकि भविष्य में वो अपनी पुत्रवधू पर इस प्रकार का शासन कर सकें। सरला रोती हुई निधि के कमरे में आ गई और निधि के गले लगकर फफक कर रो पड़ी। निधि ने सरला को स्वयं से अलग किया और सिर पर घूँघट ठीक करती हुई बाहर आ गई और बोली-
"पापा जी, दीदी कहीं नहीं जाएँगीं, ये उनका भी घर है।"
सुनते ही उनके पैर अपनी जगह मानो चिपक गए हों।
"क्या कर रही है बहू, तू चुपचाप कमरे में जा।" उसकी सास हड़बड़ाकर बोलीं।
"निधि ठीक कह रही है माँ, दीदी अब अपनी ससुराल ऐसे नहीं जाएगी।" नीलेश ने हॉल में प्रवेश करते हुए कहा।
मालती मिश्रा, दिल्ली
निधि कमरे में बैठी मैगजीन के पन्ने पलट रही थी पर मैगजीन पढ़ने में उसका जरा भी मन नहीं लग रहा था, उसका ध्यान तो बाहर हाल में से आ रही आवाजों पर था....जहाँ उसके ससुर जी, सासू माँ और बड़ी ननद सरला के बीच बातचीत हो रही थी। बातचीत भी कहाँ सीधे-सीधे फैसला सुनाया जा रहा था। आज दोपहर ही उसकी ननद दोनों बच्चों के साथ ससुराल से आई हैं। शाम को पापा(ससुर) स्कूल से आए और अपनी बेटी को देखते ही बोले- "तुम क्यों आईं और बच्चों को भी ले आईं!"
दरवाजे के पीछे खड़ी निधि ऐसे चौंक गई मानो गर्म तवे पर पैर पड़ गए हों, वह हतप्रभ थी कि ससुराल से आई हुई बेटी को देखकर कोई पिता ऐसा व्यवहार कैसे कर सकता है! वह अभी दो महीने पहले ब्याह कर आई थी तो इस घर की प्रथा के अनुसार अभी वह ससुर और घर के अन्य पुरुषों के सामने बिना घूँघट किए बाहर नहीं आती थी, अतः वह वहीं कुर्सी खिसका कर बैठ गई उनकी बातें सुनने के लिए..तब उसे पता चला कि सरला की सास ने उसके गहने अपनी बेटी के लिए माँगे तो सरला ने कह दिया कि बाकी सारे तो आप ले चुके हैं बस ये दो कंगन बचे हैं इन्हें वह नहीं देगी। इसी बात के लिए उसकी सास ने और न जाने क्या-क्या बातें जोड़कर उसकी शिकायत अपने बेटे से की और माँ-बेटे ने मिलकर उसे मार-पीट कर घर से बाहर निकाल दिया।
"बड़ों के सामने जबान चलाओगी तो ऐसा तो करेंगे ही।"
उधर ससुर जी की आवाज आई और इधर निधि काँप सी गई। पढ़े-लिखे होकर ऐसे विचार रखते हैं...
"पर पापा मेरी क्या गलती थी मेरे सारे गहने तो ले चुके, जो यहाँ से मिले थे, वो भी।" सरला बोली।
"जो भी हो शादी के बाद बेटी पर माँ-बाप का कोई हक नहीं रह जाता, और ये रोज-रोज छोटी-छोटी बातों पर यहाँ मत चली आया करो, नहीं तो तुम्हें देखकर हमारी बहू भी ऐसा ही करना शुरू कर देगी, इसीलिए जैसे आई हो कल वैसे ही चली जाना।" कहकर पापा जी वहाँ से उठकर बाहर जाने लगे।
निधि को आश्चर्य हो रहा था कि माँ बीच में एक शब्द भी नहीं बोलीं उन्होंने एकबार भी अपनी बेटी का पक्ष नहीं लिया, क्या सिर्फ इसलिए ताकि भविष्य में वो अपनी पुत्रवधू पर इस प्रकार का शासन कर सकें। सरला रोती हुई निधि के कमरे में आ गई और निधि के गले लगकर फफक कर रो पड़ी। निधि ने सरला को स्वयं से अलग किया और सिर पर घूँघट ठीक करती हुई बाहर आ गई और बोली-
"पापा जी, दीदी कहीं नहीं जाएँगीं, ये उनका भी घर है।"
सुनते ही उनके पैर अपनी जगह मानो चिपक गए हों।
"क्या कर रही है बहू, तू चुपचाप कमरे में जा।" उसकी सास हड़बड़ाकर बोलीं।
"निधि ठीक कह रही है माँ, दीदी अब अपनी ससुराल ऐसे नहीं जाएगी।" नीलेश ने हॉल में प्रवेश करते हुए कहा।
मालती मिश्रा, दिल्ली
बहुत सुंदरता से छोटे कथानक मे सार सार सहेज दिया मीता बहुत अच्छी लगी कहानी
जवाब देंहटाएंआपको कहानी अच्छी लगी अर्थात् मैं अपनी बात समझाने में कुछ हद तक कामयाब रही। ऐसे ही हौसला बढ़ाती रहें मीता आभार🙏
हटाएंप्रिय मालती जी -- बहुत ही सार्थक कथा | जब तक नारी नारी के सम्मान के लिए आगे नही आती तक उसका उद्धार होना मुश्किल है | नारी विमर्श पर आपकी लघु कथाएं प्रेरक हैं सादर , सस्नेह --
जवाब देंहटाएंआ० रेनू जी आपके प्यार और उत्साहित करने के भाव को नमन, आपको कहानी यदि पसंद आई तो मैं अपनी बात को कुछ हद तक कह पाने में समथ हुई। सस्नेहाभिनन्दन🙏
हटाएंवाह 👌👌👌
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