चाहे-अनचाहे गर बिगड़ जाए दास्ताँ जो मेरी
जीवन सारा अफ़वाहों का बाज़ार बना जाता है
खुदा ने भेजा औरों की तरह जहाँ में मुझको
क़ायदा-ए-ज़हाँ ने असीर बना डाला है
खुदा की अल हूँ या क़ज़ा है मेरा ये क़फ़स
गर्दिशे-सवाल में क़रार खोया जाता है।
कुछ काम किए खास जो जमाने की निगाहों में
सारा जीवन अब्तरे-अफ़साना नज़र आता है।
ख़लिश सी उठती सीने में जब देखती हूँ आइना
उम्र गुजारा तलाश में जिसकी वो बेगाना नजर आता है।
मालती मिश्रा
अल - कला
क़ज़ा- ईश्वरीय दंड
क़फ़स- शरीर/पिंजर
गर्दिशे-सवाल- सवालों का भँवर
करार- चैन
अब्तरे-अफ़साना-बिखरी हुई कहानी
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत आभार सुधा जी।
हटाएंबहुत-बहुत आभार सुधा जी।
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