आज के परिप्रेक्ष्य में मानवाधिकार
वर्तमान परिदृश्य में मानवाधिकार का बहुत बोलबाला है, जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि हमारा समाज बहुत सभ्य, सुसंस्कृत और दयालु होता जा रहा है परंतु जब सत्य के धरातल पर उतर कर देखते हैं तो यह *मानवाधिकार* शब्द बहुत भ्रमित करता है। मुझे याद है आज से कोई दो से तीन दशक पहले तक हममें से बहुत से लोग इस शब्द को सिर्फ अपने पाठ्य-पुस्तक के किसी पाठ का एक भाग मात्र मानते थे। *मानवाधिकार* को हम बखूबी परिभाषित कर लेते थे परंतु समाज में मात्र कुछ अपवादों को छोड़कर कहीं इसकी कमी नहीं दिखाई देती थी या कहूँ कि इस शब्द की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती थी। तब लोगों में बिना इसके प्रयोग के भी खूब मानवता होती थी। आजकल एक विकृत मनुष्य खुले आम किसी के साथ अमानवीयता की सारी सीमाएँ लाँघ रहा होता है तो बहुत से मानव उसे चारों ओर से घेरकर वीडियो बना रहे होते हैं, सड़क पर कोई दुर्घटना ग्रस्त होकर अपनी जिंदगी के लिए संघर्ष कर रहा होता है, मदद की याचना कर रहा होता है और उस समय मानवता वीडियो बनाने में या अनदेखा कर बगल से निकल जाने में अपना अधिकार समझती है।
वर्तमान समय में किन मानवों के अधिकारों की बात होती है यह अस्पष्ट होते हुए भी स्पष्ट है। *मानवाधिकार* शब्द आजकल सिर्फ एक राजनीतिक शब्द मात्र बनकर रह गया है और यह सिर्फ उन्हीं के अधिकारों की रक्षा करता है जो पूर्ण रूप से मानवता को लहूलुहान करते हैं। उदाहरण के रूप में हमारे देश के सैनिकों की स्थिति पर भी दृष्टिपात करें तो पता चलता है कि उनका अपमान किया जाए, उन्हें कुछ लोगों द्वारा घेरकर मारा-पीटा जाए, उनपर पत्थर बरसाए जाएँ पर क्या कभी मानवाधिकार के रखवालों को कोई आपत्ति हुई? नहीं, परंतु यदि वही सैनिक यदि उन्हीं पत्थर बाजों से आत्मरक्षा के लिए उनको दंडित कर दे तो मानवाधिकार के रखवाले जाग जाते हैं। आतंकवादी लोगों को बम से उड़ाकर न जाने कितने घरों के कितने ही मानवों की दुनिया उजाड़ देते हैं तो कोई बात नहीं उनके मानवाधिकार की पैरवी करने वाला कोई नहीं होता, या शायद उनका कोई अधिकार ही नहीं होता या फिर वो मानव की श्रेणी में ही न आते हों किन्तु यदि उन्हीं आतंकवादियों को मार दिया जाए या सजा दी जाए तो मानवाधिकार रात को तीन बजे भी न खुद सोता न देश को सोने देता।
ऐसे ही बहुत से उदाहरण मिलेंगे, यदि आम जनता के अधिकारों का हनन हो रहा हो तो यही आमजन चुपचाप बैठकर अपने ही बीच के किसी अन्य व्यक्ति के साथ हो रहे अन्याय को देखता रहता है किन्तु यदि एक ऊँचे रुतबे वाले किसी अपराधी के खिलाफ कानूनी कार्यवाही होने लगती है तो उसके जैसे उसी के साथियों के बहकावे में आकर यही साधारण नागरिक उस अमानव के मानवाधिकार की लड़ाई लड़ने लगते हैं और कानूनी कार्यवाही को बाधित कर उन्हें और अधिक अमानवीयता दिखाने को प्रोत्साहित करते हैं। जबकि कितनी ही बार निरपराध होते हुए भी एक साधारण व्यक्ति सजा काटता है और उसके अधिकारों का किसी को अता-पता ही नहीं होता।
हम खुद साधारण जनता के अधिकारों के लिए न लड़कर ऐसे लोगों के हाथों की कठपुतली बनकर उनके अधिकारों की पैरवी करते हैं जो यथार्थ में मानव कहलाने के भी काबिल नहीं होते। कुल मिलाकर आज के परिप्रेक्ष्य में मानवाधिकार अमानवीय व्यवहार करने वालों का अधिकार है। इससे मानव का कोई लेना-देना नहीं है।
मालती मिश्रा 'मयंती'✍️
वर्तमान परिदृश्य में मानवाधिकार का बहुत बोलबाला है, जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि हमारा समाज बहुत सभ्य, सुसंस्कृत और दयालु होता जा रहा है परंतु जब सत्य के धरातल पर उतर कर देखते हैं तो यह *मानवाधिकार* शब्द बहुत भ्रमित करता है। मुझे याद है आज से कोई दो से तीन दशक पहले तक हममें से बहुत से लोग इस शब्द को सिर्फ अपने पाठ्य-पुस्तक के किसी पाठ का एक भाग मात्र मानते थे। *मानवाधिकार* को हम बखूबी परिभाषित कर लेते थे परंतु समाज में मात्र कुछ अपवादों को छोड़कर कहीं इसकी कमी नहीं दिखाई देती थी या कहूँ कि इस शब्द की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती थी। तब लोगों में बिना इसके प्रयोग के भी खूब मानवता होती थी। आजकल एक विकृत मनुष्य खुले आम किसी के साथ अमानवीयता की सारी सीमाएँ लाँघ रहा होता है तो बहुत से मानव उसे चारों ओर से घेरकर वीडियो बना रहे होते हैं, सड़क पर कोई दुर्घटना ग्रस्त होकर अपनी जिंदगी के लिए संघर्ष कर रहा होता है, मदद की याचना कर रहा होता है और उस समय मानवता वीडियो बनाने में या अनदेखा कर बगल से निकल जाने में अपना अधिकार समझती है।
वर्तमान समय में किन मानवों के अधिकारों की बात होती है यह अस्पष्ट होते हुए भी स्पष्ट है। *मानवाधिकार* शब्द आजकल सिर्फ एक राजनीतिक शब्द मात्र बनकर रह गया है और यह सिर्फ उन्हीं के अधिकारों की रक्षा करता है जो पूर्ण रूप से मानवता को लहूलुहान करते हैं। उदाहरण के रूप में हमारे देश के सैनिकों की स्थिति पर भी दृष्टिपात करें तो पता चलता है कि उनका अपमान किया जाए, उन्हें कुछ लोगों द्वारा घेरकर मारा-पीटा जाए, उनपर पत्थर बरसाए जाएँ पर क्या कभी मानवाधिकार के रखवालों को कोई आपत्ति हुई? नहीं, परंतु यदि वही सैनिक यदि उन्हीं पत्थर बाजों से आत्मरक्षा के लिए उनको दंडित कर दे तो मानवाधिकार के रखवाले जाग जाते हैं। आतंकवादी लोगों को बम से उड़ाकर न जाने कितने घरों के कितने ही मानवों की दुनिया उजाड़ देते हैं तो कोई बात नहीं उनके मानवाधिकार की पैरवी करने वाला कोई नहीं होता, या शायद उनका कोई अधिकार ही नहीं होता या फिर वो मानव की श्रेणी में ही न आते हों किन्तु यदि उन्हीं आतंकवादियों को मार दिया जाए या सजा दी जाए तो मानवाधिकार रात को तीन बजे भी न खुद सोता न देश को सोने देता।
ऐसे ही बहुत से उदाहरण मिलेंगे, यदि आम जनता के अधिकारों का हनन हो रहा हो तो यही आमजन चुपचाप बैठकर अपने ही बीच के किसी अन्य व्यक्ति के साथ हो रहे अन्याय को देखता रहता है किन्तु यदि एक ऊँचे रुतबे वाले किसी अपराधी के खिलाफ कानूनी कार्यवाही होने लगती है तो उसके जैसे उसी के साथियों के बहकावे में आकर यही साधारण नागरिक उस अमानव के मानवाधिकार की लड़ाई लड़ने लगते हैं और कानूनी कार्यवाही को बाधित कर उन्हें और अधिक अमानवीयता दिखाने को प्रोत्साहित करते हैं। जबकि कितनी ही बार निरपराध होते हुए भी एक साधारण व्यक्ति सजा काटता है और उसके अधिकारों का किसी को अता-पता ही नहीं होता।
हम खुद साधारण जनता के अधिकारों के लिए न लड़कर ऐसे लोगों के हाथों की कठपुतली बनकर उनके अधिकारों की पैरवी करते हैं जो यथार्थ में मानव कहलाने के भी काबिल नहीं होते। कुल मिलाकर आज के परिप्रेक्ष्य में मानवाधिकार अमानवीय व्यवहार करने वालों का अधिकार है। इससे मानव का कोई लेना-देना नहीं है।
मालती मिश्रा 'मयंती'✍️
सुन्दर संदेश 👌👌👌
जवाब देंहटाएंधन्यवाद नीतू जी😊
हटाएंसटीक व आलोचनात्मक लेख
जवाब देंहटाएंआत्मसात
उत्साहवर्धन के लिए आभार रोहितास जी
हटाएंआत्म ची तन करने का समय है आज ... पुनः परिभाषित करने का समय ...
जवाब देंहटाएंगहरा चिंतन करता आलेख ...
आपकी टिप्पणी से लेखनी को ऊर्जा मिली है आ० दिगम्बर जी। आभार🙏
हटाएंधन्यवाद आदरणीय
जवाब देंहटाएंविचारणीय आलेख
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आदरणीय
हटाएंसार्थक सन्देश
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आ०
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