शुक्रवार

मेरा पसंदीदा व्यक्तित्व


विषय- मेरा मनपसंद व्यक्तित्व
विधा- गद्य

अकसर जब किसी के व्यक्तित्व की बात आती है तो व्यक्ति का पहनावा, बाहरी रूप-रंग तथा शारीरिक डील-डौल का खाका मस्तिष्क में खिंच जाता है। किन्तु यह बाहरी खाका व्यक्तित्व को पूर्ण नहीं करता बल्कि इसके साथ उसके आंतरिक गुण भी परिलक्षित होते हैं तभी सही मायने में व्यक्तित्व उभर कर आता है।
आजकल अधिकतर लोग अभिनेता/अभिनेत्रियों के व्यक्तित्व से प्रभावित होते हैं तो कुछ लोग राजनेताओं से प्रभावित होते हैं, इसके पीछे सभी के अपने-अपने कारण होते हैं। मैं इनसे प्रभावित नहीं हुई ऐसा नहीं कहूँगी, बचपन में जब फिल्में देखती थी तो कभी अमिताभ बच्चन तो कभी जितेन्द्र, कभी धर्मेन्द्र तो कभी मिथुन चक्रवर्ती... अर्थात् जब जिसकी फिल्म देखती वही हीरो मेरे लिए आदर्श बन जाता परंतु यह प्रभाव कभी स्थायी न रह सका। जिस व्यक्तित्व ने मुझ पर अपना प्रभाव स्थायी रूप से डाला, जो आज भी मेरा पसंदीदा व्यक्तित्व है और मेरा आदर्श है वह हैं मेरे "बाबू जी" (पापा)।
महज पसंद करना और पसंद के साथ आदर्श बना लेना मेरे लिए दोनों अलग बातें हैं, यूँ तो सभी के पिता उनकी पहली पसंद होते हैं पर मैंने देखा है कि जिस समय लोग अपनी बेटियों को बाहर अन्य लोगों के समक्ष चारपाई पर नहीं बैठने देते थे मेरे बाबू जी ने मुझे पूरी आजादी दी थी मैने अपने घर में कभी मेरे भाइयों और  मेरे बीच व्यवहार आदि में अंतर नहीं महसूस किया। हमारे गाँव में जहाँ लोग अपनी बेटियों को सिर झुकाकर चलना, सदा दूसरों के सामने चुप रहना सिखाते थे मेरे बाबूजी ने गलत को गलत और सही को सही बोलना सिखाया। अम्मा कभी-कभी चुप रहने का इशारा भी कर देतीं, कहतीं कि लड़कियों को अधिक नहीं बोलना चाहिए, तब बाबूजी कहते "क्यों? क्या लड़की होने के कारण गलत बात को बिना प्रतिकार चुपचाप सहन करना उचित होगा?" और अम्मा झुंझलाकर कहतीं- "सिर पर बिठा लो लड़की को।" 
बाबू जी सिर्फ उतना ही पढ़े-लिखे हैं कि हमें प्राइमरी कक्षाओं की हिन्दी की पुस्तकें पढ़ा लेते थे, इमला (श्रुतलेख) बोलकर लिखवा लेते थे और कभी अँगूठा लगाने की नौबत नहीं आई पर उनके विचार सदा उच्च शिक्षित व्यक्तियों जैसे ही रहे। बचपन से ही संघर्षशील थे, तेरह-चौदह वर्ष की आयु से ही अपने से छोटे दो भाइयों और एक बहन की परवरिश, उनके विवाह आदि की जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए शहरों की खाक छानी और फिर किस्मत से सरकारी नौकरी मिल गई। उन्होंने कभी गलत का साथ नहीं दिया फिर गलती करने वाला चाहे कोई अपना ही क्यों न हो। हमेशा सत्य बोलने और सत्य के लिए किसी के भी खिलाफ जाने को तत्पर रहे और यही अपने बच्चों को भी सिखाया। अक्सर स्त्रियों को समझौता करना पड़ता है, आँखों के समक्ष गलत होते देख चुप रह जाना पड़ता है...मैं ऐसा नहीं कर पाती क्योंकि मुझ पर मेरी माँ से ज्यादा मेरे बाबूजी का प्रभाव है। वही मेरे पसंदीदा व्यक्तित्व और मेरे आदर्श हैं।

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

5 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद भावपूर्ण अभिव्यक्ति मालती जी।
    पिता के उसूल संतान के लिए एक आदर्श स्थापित करते है जो उनके भविष्य की नींव होती हैं।
    बहुत अच्छा लगा बाबूजी के बारे में पढ़कर😊

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपके स्नेहिल टिप्पणी के लिए सस्नेह आभार शवेता जी। आपके ऐसे स्नेह से ही तो लेखनी को ऊर्जा मिलती है। 🙏🙏

      हटाएं
  2. निमंत्रण विशेष :

    हमारे कल के ( साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक 'सोमवार' १० सितंबर २०१८ ) अतिथि रचनाकारआदरणीय "विश्वमोहन'' जी जिनकी इस विशेष रचना 'साहित्यिक-डाकजनी' के आह्वाहन पर इस वैचारिक मंथन भरे अंक का सृजन संभव हो सका।



    यह वैचारिक मंथन हम सभी ब्लॉगजगत के रचनाकारों हेतु अतिआवश्यक है। मेरा आपसब से आग्रह है कि उक्त तिथि पर मंच पर आएं और अपने अनमोल विचार हिंदी साहित्य जगत के उत्थान हेतु रखें !

    'लोकतंत्र' संवाद मंच साहित्य जगत के ऐसे तमाम सजग व्यक्तित्व को कोटि-कोटि नमन करता है। अतः 'लोकतंत्र' संवाद मंच आप सभी का स्वागत करता है। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/

    जवाब देंहटाएं

Thanks For Visit Here.