रविवार

मैं औरत हूँ


एक दिन एक पुरुष को अपनी पत्नी पर चिल्लाते उसे धमकाते देखा, जो कह रहा था *"औरत है, औरत बनकर रह, मर्द बनने की कोशिश मत कर।"* उस घटना से मेरे मन में उपजे भावों को पंक्तिबद्ध करने का प्रयास किया है..

मैं औरत हूँ
औरत ही रहूँगी
मर्द नहीं बनना मुझको
हे पुरुष!
नाहक ही तू डरता है
असुरक्षित महसूस करता है
मेरे मर्द बन जाने से।
सोच भला...
एक सुकोमल
फूल सी नारी
क्या कंटक बनना चाहेगी
अपने मन की सुंदरता को
क्यों कर खोना चाहेगी?
ममता भरी हो जिस हृदय में
क्या द्वेष पालना चाहेगी
दुश्मन पर भी दया दिखाने वाली
कैसे निष्ठुर बन जाएगी
बाबुल का आँगन छोड़ के भी
दूजों को अपनाया जिसने
ऐसे वृहद् हृदय को क्यों
संकुचन में वो बाँधेगी
पुरुष मैं बनना चाहूँ
ये भ्रम है तेरे मन का
या फिर यह मान ले तू
डर है तेरे अंदर का
क्योंकि
मैं देहरी के भीतर ही
तुझको सदा सुहाती हूँ
देहरी से बाहर आते ही
रिपु दल में तुझको पाती हूँ
मैंने तो कदम मिला करके
बस साथ तेरा देना चाहा
कठिन डगर पर हाथ थाम के
मार्ग सरल करना चाहा
पर तेरे अंतस का भय
मेरा भाव समझ न सका
मेरे बढ़ते कदमों को
अपने साथ नहीं समक्ष समझा
सहयोग की भावना को
प्रतिद्वंद्व का नाम दिया
अहंकार में डूबा पौरुष
लेकर कलुषित भाव मन में
अपने मन की कालिमा
मेरे दामन पर पोत दिया
कभी वस्त्रों की लंबाई
कभी ताड़ता अंगों को
अपने व्यभिचारी भावों पर
नहीं नियंत्रण खुद का है
दोष लगाता नारी पर
खुद को देख न पाता है
जो कालिमा मुझ पर पोत रहा
वो उपज तेरे हृदय की है
मैं नारी थी
नारी हूँ
नारी ही रहना मुझको
बाधाओं को तोड़ लहर सी
खुद अपना मार्ग बनाना मुझको
क्योंकि मैं औरत हूँ।

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

6 टिप्‍पणियां:

  1. औरत को धमकाता है फिर पुरुष पुरूष कहाँ रह जाता है?

    सुन्दर रचना।

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  2. बेहतरीन अभिव्यक्ति

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    उत्तर
    1. आपको ब्लॉग पर देखकर कितनी प्रसन्नता हुई इसका वर्णन धहीं कर सकती। बहुत-बहुत आभार अनन्या जी यहाँ आकर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए।

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  3. आँसू देने वाले तेरे होंठों की मुस्कान हूँ...
    नारी हूँ पुरुष से कहीं महान हूँ....

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सादर आभार आ० रेनू बादल जी, आपकी पंक्तियों ने मन गद्गद कर दिया।

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