जब भी नारी-विमर्श की बात आती है तो हमारे पास एक ही काम रह जाता है कि जानी-मानी साहित्यकारों की कृतियाँ जैसे उपन्यास आदि के द्वारा उनके विचारों को पढ़ें और ऐसे ही कुछ जाने-माने साहित्यकारों के कुछ वक्तव्यों को उठाएँ और उन पर अपनी राय रखते हुए एक बड़ा और आकर्षक लेख तैयार कर दें। हो गया नारी विमर्श।
आज कितने लेखक/लेखिका ऐसे हैं जो विभिन्न क्षेत्रों की स्त्रियों के पास जाकर उनसे उनके कार्यक्षेत्र के बारे में, उनकी समस्याओं के बारे में, उनकी पहले और आज की स्थिति में अंतर, उनके विचार आदि जानने के बाद इस विषय पर कोई लेख तैयार करते हैं?
शायद ही कोई या बहुत कम। क्योंकि हमें तो पका-पकाया खाने की आदत पड़ गई है, आज महिला की दशा और दिशा के विषय में कुछ लिखने को कहा जाए तो उठाकर महादेवी वर्मा, मृदुला गर्ग, कृष्णा सोबती, सुभद्राकुमारी, मन्नू भंडारी, मृणाल पांडेय, अनामिका, मैत्रेयी पुष्पा जैसे अन्य लेखिकाओं के विचारों को उदाहरण के रूप में अपने विचारों के साथ परोस दिया जाता है।
खुद की खोज कहाँ है? कहाँ से खोज की? पुस्तकों से? वाह शब्दों की जादूगरी आ जानी चाहिए फिर तो ए०सी० रूम में बैठकर सारा शोध पूरा हो जाता है। एक दस बाई दस के कमरे में बैठै-बैठे पूरे देश के सभी क्षेत्रों की रीतियों-रूढ़ियों तथा उनकी शिकार महिलाओं के विषय में जाना जा सकता है और फिर शब्दों की जादूगरी दिखाकर शोध तैयार कर लेने में समय ही कितना लगता है। ऐसा नहीं है कि इसमें समय नहीं लगता, पुस्तकें तो पढ़नी ही पड़ती हैं और वो भी कई-कई और फिर उसमें से चुनिंदा भागों का प्रयोग करते हुए अपने शब्दों में खूबसूरती से परोसना। सचमुच क्या यही है नारी विमर्श? क्या सिर्फ पुस्तकों से ही, वो भी आज से दशकों पहले लिखी गई हैं, हमें वर्तमान में नारी की दशा और दिशा का बोध हो जाता है? या फिर यह भी एक शोध का विषय है।
#मालतीमिश्रा
आज कितने लेखक/लेखिका ऐसे हैं जो विभिन्न क्षेत्रों की स्त्रियों के पास जाकर उनसे उनके कार्यक्षेत्र के बारे में, उनकी समस्याओं के बारे में, उनकी पहले और आज की स्थिति में अंतर, उनके विचार आदि जानने के बाद इस विषय पर कोई लेख तैयार करते हैं?
शायद ही कोई या बहुत कम। क्योंकि हमें तो पका-पकाया खाने की आदत पड़ गई है, आज महिला की दशा और दिशा के विषय में कुछ लिखने को कहा जाए तो उठाकर महादेवी वर्मा, मृदुला गर्ग, कृष्णा सोबती, सुभद्राकुमारी, मन्नू भंडारी, मृणाल पांडेय, अनामिका, मैत्रेयी पुष्पा जैसे अन्य लेखिकाओं के विचारों को उदाहरण के रूप में अपने विचारों के साथ परोस दिया जाता है।
खुद की खोज कहाँ है? कहाँ से खोज की? पुस्तकों से? वाह शब्दों की जादूगरी आ जानी चाहिए फिर तो ए०सी० रूम में बैठकर सारा शोध पूरा हो जाता है। एक दस बाई दस के कमरे में बैठै-बैठे पूरे देश के सभी क्षेत्रों की रीतियों-रूढ़ियों तथा उनकी शिकार महिलाओं के विषय में जाना जा सकता है और फिर शब्दों की जादूगरी दिखाकर शोध तैयार कर लेने में समय ही कितना लगता है। ऐसा नहीं है कि इसमें समय नहीं लगता, पुस्तकें तो पढ़नी ही पड़ती हैं और वो भी कई-कई और फिर उसमें से चुनिंदा भागों का प्रयोग करते हुए अपने शब्दों में खूबसूरती से परोसना। सचमुच क्या यही है नारी विमर्श? क्या सिर्फ पुस्तकों से ही, वो भी आज से दशकों पहले लिखी गई हैं, हमें वर्तमान में नारी की दशा और दिशा का बोध हो जाता है? या फिर यह भी एक शोध का विषय है।
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