कितने ही घरों में अँधेरा हो गया
सूख गया फिर दीयों का तेल
उजड़ गई दुनिया उनकी
जो हँसते मुसकाते रहे थे खेल
देख कर आँसुओं का समंदर
क्या आसमाँ भी न रोया होगा
दूध से जो आँचल होता था गीला
खून से कैसे उसे भिगोया होगा
आँखों में लिए सुनहरे सपने जिसने
चौथ का चाँद निहारा होगा
मेंहदी भी न उतरी थी जिन हाथों की
उनसे मंगलसूत्र उतारा होगा
सूनी आँखों से तकती थीं जो राहें
उन माओं ने मृत देह निहारा होगा
बेटे के काँधे पर जाने की चाह लिए पिता ने
बेटे की अर्थी को काँधे से उतारा होगा
हर रक्षाबंधन सूना हो गया
बहनों का वीर सदा के लिए सो गया
अनचाहे निष्ठुर हो गये वो लाल
माँ की आँखों का नूर खो गया
खुशियों का भार उठाती है जो मही
निर्जीव पूतों को कैसे उठाया होगा
लहराता है जो तिरंगा अासमां में शान से
बन कफन वीरों का वो भी थर्राया होगा।
मालती मिश्रा
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