मंगलवार

सोचती हूँ


मैं नहीं जानती अपने अकेलेपन का कारण
अगर मैं ऐसा कहूँ तो शायद खुद को धोखा देना ही होगा।
पर..आजतक धोखा देती ही तो चली आई हूँ खुद को
पर खुश हूँ कि किसी और को धोखा नहीं दिया
पर क्या ये सच है!!
क्या सचमुच किसी को धोखा नहीं दिया?
नहीं जानती...
पर अगर मैं खुश हूँ, तो अकेली क्यों हूँ?
क्यों मेरे जीवन के सफर में कोई नहीं मेरा हमसफर
न कोई दोस्त.... न कोई अपना
ये जानते हुए भी अपना फर्ज़ निभाती जा रही हूँ,
हर रोज उम्मीद की दीवार पर विश्वास की नई ईंट रखती हूँ।
दो-चार ईंटें जुड़ते ही अविश्वास की एक ठोकर से
दीवार धराशायी हो जाती है,
रह जाती हूँ विशाल काले आसमाँ के नीचे
फिर तन्हा....अकेली
न कोई सखी न सहेली
सोचती हूँ.....क्या मैं इतनी बुरी हूँ 
कि किसी की पसंद न बन पाई
यदि नहीं! तो क्यों हूँ तन्हा
यदि हाँ ! तो कब मैने किसी का बुरा चाहा
सवालोम के इन अँधेरी गलियों में भटकते-भटकते
सदियाँ गुजर गईं....
न गलियाँ खत्म हुईं, न अँधेरा छटा
सोचती हूँ... 
क्यों नहीं फर्क पड़ता किसी को मेरे हँसने रोने से?
क्यों नहीं फर्क पड़ता किसी को मेरे मरने जीने से?
कब तक जिऊँगी इस तरह बेचैन?
अकेली !!!   तन्हा !!!   जीने को मजबूर !!!  बेबस !!!
लाचार !!!   महत्वहीन !!!   घर के स्टोर-रूम में पड़े 
पुराने बेकार सामान की तरह ! 
कब तक?  कबतक ?
मालती मिश्रा

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