शुक्रवार

मेरे बचपन का वो सावन

संस्मरण

सावन का पावन माह शुरू हो गया है, कई धार्मिक, पौराणिक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं इस माह से। इस  पावस ऋतु की रिमझिम फुहार से पेड़-पौधे नहा-धोकर ऐसे खिले-खिले से प्रतीत होते हैं मानो बहुत लंबे समय के इंतजार से मुरझा कर बेजान हो चुकी प्रकृति में नव प्राण का संचार हो गया हो। चारों ओर नई-नई प्रस्फुटित होती कोपलें मानों प्रफुल्लित होकर किलोल कर रही हों। इस पावस ऋतु में ही धरा संपूर्ण श्रृंगार कर निखर उठती है और सोने पर सुहागा तब होता है जब दूर क्षितिज में अंबर अपनी ग्रीवा में इंद्रधनुषी हँँसली पहने हुए दिखता है। प्रकृति का यह मनभावन रूप जन-मन में ऐसे समा जाता है कि फिर यह छवि मानस पटल से मिटाए नहीं मिटती और इसीलिए चाहे हर पावस मनुष्य के चक्षु भले इस अनुपम सौंदर्य का रसास्वादन करने से विमुख रह जाएँ पर सावन का नाम ज्यों ही हमारे श्रवण द्वार से गुंजित होता हुआ हमारे हृदय पर दस्तक देता है त्यों ही मस्तिष्क के पटल पर वही भीगी-भीगी तरो-ताजी हरियाली की चूनर ओढ़े सजी-धजी सी धरती की छवि मुखरित हो उठती है।
मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही है, दिल्ली जैसे महानगर में रहते हुए सावन में वर्षा से लबालब भरी सड़कें तो देखी जा सकती हैं, नालियों की गंदगी बारिश के पानी के साथ तैरती देखी जा सकती है पर पानी से भरे खेतों में लहलहाते झूमते धान की जरई नहीं दिखाई दे सकते। यहाँ सड़कों के किनारे वर्षा से धुले बड़े-बड़े पेड़ तो देखे जा सकते हैं, उन्हें देखकर मन को अच्छा भी लगता है पर नजरें उनके आसपास पल्लवित होते नाजुक कोपलों और हरी-भरी तरह-तरह की पुष्पित घासों को ढूँढ़ती हैं। सावन में मंदिरों के बाहर फूल-मालाएँ, बेलपत्र, धतूरा आदि बेचने वालों की बहुतायत रहती है, जगह-जगह काँवड़ियों के शिविर और मनभावन झाँकियाँ सजी हुई सावन को पावन बनाती हैं लेकिन मेरे जैसा व्यक्ति जिसने गाँव में सावन के झूले देखे हों, सावन की नाग पंचमी और हरियाली तीज देखी हो उसके मानस पटल पर शहरों के सावन की छवि अंकित होने की जगह ही नहीं बचती। फिर भी सावन तो सावन है....अपने-अपने स्तर पर सावन हर जगह मनभावन होता है, शहर हो या गाँव हर जगह के परिवेश के अनुसार यह अन्य दिनों से हटकर अपनी अनूठी छवि बिखेरता है।

सावन का महीना हो और सावन के झूले की बात न हो तो अधूरा ही लगता है और जब-जब सावन के झूले का जिक्र होता है तब-तब मुझे अपनी किशोरावस्था का वह सावन याद आता है जब मैं गाँव में अपनी माँ के साथ थी। यह समय विद्यालयों में नए सत्र का होता है तो  हमारा पूरा परिवार अर्थात् मेरे भाई और मैं बाबूजी के साथ कानपुर में ही होते थे किन्तु धान की फसल का भी सीजन होता था इसलिए माँ बेचारी हम लोगों से अलग अकेली गाँव में होती थीं ताकि मज़दूरों की सहायता से खेतों से खर-पतवार समय पर साफ करवाती रहें। वैसे गाँव से आने से पहले बाबूजी अधिकतर खेतों में धान की रोपाई करवा कर ही आते थे लेकिन बाकी की सारी जिम्मेदारी माँ अकेली उठाती थीं, फिर फसल की कटाई दँवाई के लिए बाबूजी गाँव जाते थे। इस बीच खेतों की निराई खत्म होने के बाद से फसल पकने के पहले का जो समय होता था वो एक-दो महीने माँ हमारे साथ रहती थीं, उस खुशी के अहसास का तो मैं वर्णन ही नहीं कर सकती।
वैसे जब मैं छोटी थी तब मैंने गाँव में सावन के रिमझिम फुहारों के बीच झूला झूलने का लुत्फ़ उठाया पर वो यादें बेहद धुंधली हैं। पर एक मौका ऐसा भी रहा कि किसी कारणवश मैं इस पावन माह में माँ के साथ गाँव में ही थी। वह सावन आज भी मेरी स्मृतियों में सजीव है। माँ के साथ हरे-भरे खेतों की सैर, जी हाँ वह मेरे लिए सैर ही था। जब खेतों में स्त्रियाँ कतार बनाकर निराई करती हुई सावन के गीत गातीं तो बिना किसी वाद्य यंत्र के भी संगीत का ऐसा समां बंध जाता कि पूरा वातावरण संगीतमय हो उठता और समय कब बीत जाता पता ही नहीं चलता। ऐसे में इंद्रदेव की मेहरबानी से रिमझिम- रिमझिम की हल्की फुहार पावस ऋतु को और मनभावन बना देती। मुझे धान के नाज़ुक पौधों के बीच कुछ खास किस्म के धान जेसे ही नजर आने वाले पौधों की पहचान नहीं थी पर बड़ा मन करता कि मैं भी उनके साथ घास निकालूँ, लेकिन कोशिश करती तो धान काट देती और फिर सभी महिलाएँ मुझे चिढ़ातीं कि "रहे देव बिटिया तोहरे हाथ में बस कितबिय नीक लागत है, ई सब तोहरे बस के नाही बा" और मैं चुपचाप खेत की मेड़ पर आ जाती या कभी कभी उन महिलाओं में से ही किसी के पास जा बैठती और कहती कि मुझे भी बताओ घास की पहचान कैसे होती है। वो मुझे बड़ी तन्मयता से एक अध्यापक की ही भाँति घास की पहचान बतातीं कि इसकी जड़ लालिमा लिए होती है जबकि धान पूरा हरा, उनके पत्तियों में क्या अंतर होता है तथा किस घास का क्या नाम होता है..सबकुछ बतातीं और मैं उतनी ही तन्मयता से सुनती फिर एक दो दिनों में कुछ एक घास याद रहतीं कुछ फिर भूल जाती।
जब सोमवार आता तो बहुत सी लड़कियाँ, बहुएँ और अधेड़ उम्र महिलाएँ व्रत रखतीं। उस समय हमारे गाँव में कोई मंदिर न होने के कारण         
डेढ़-दो किलोमीटर दूर दूसरे गाँव के मंदिर में जाना पड़ता था। जब तैयार होकर एक साथ कई लड़कियाँ और बहुएँ और बुजुर्ग महिलाएँ निकलती थीं तो वह दृश्य किसी त्योहार के जैसा ही प्रतीत होता था जिसमें पवित्रता का अहसास घुला होता था। हम बच्चों को तो  पोखर से लोटे में जल भर-भरकर शिवलिंग पर चढ़ाने में बहुत आनंद आता था और इसीलिए हम होड़ लगाते फिर दादी हमें बतातीं कि पाँच या सात लोटे जल चढ़ा लो पर सीढ़ियों पर संभलकर चढ़ना क्योंकि पानी के कारण फिसलन हमेशा बनी रहती। मंदिर के बाहर बँधी पीतल की असंख्य छोटी-बड़ी घंटियाँ मुझे अपनी ओर आकर्षित करतीं घंटियों और बड़े-बड़े घंटों का झुंड इतना विशाल और घना कि उन्हें गिनना या उनकी डोर कहाँ बंधी है, इसको ढूँढ़ना असंभव था। मैंने दादी से पूछ ही लिया कि ये इतनी सारी क्यों हैं? जबकि बजाने वाला मुख्य घंटा तो अंदर है, वैसे उन्हें भी लोग बजाते थे। तब दादी ने बताया कि लोग मन्नत माँगते हैं और पूरी होने पर यहाँ उतनी ही बड़ी घंटी या घंटा बाँधते हैं जितने की मन्नत माँगी होती है। जल चढ़ाकर मंदिर के बाहरी बरामदे और पेड़ों के नीचे हम तब तक खेलते जब तक साथ आई सभी स्त्रियाँ जल चढ़ाकर वापस ना आ जातीं, फिर हम उसी उत्साह से घर आ जाते और अगले सोमवार की प्रतीक्षा करते। हरियाली तीज और पंचमी का त्योहार मैंने उस वर्ष जितनी धूमधाम से मनाते देखा उतना फिर दुबारा देखने का सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ। मुझे आज भी याद है पंचमी से एक दिन पहले ही सभी नव युवतियाँ अगले दिन पहनने के लिए नए वस्त्र, उनकी साज-सज्जा का सामान आदि एकत्र करने लगीं, रात को काले चने भिगो दिए। किशोर और युवक सरकंडे के बड़े-बड़े डंडे काटकर लाए और उन्हें छीलकर धोकर कपड़े से साफ करके सुखाया। दूसरे दिन सुबह से ही युवतियाँ नए कपडों के कतरन से रंग-बिरंगी गुड़ियाँ बनाने लगीं। मुझे उस समय धुंधला-धुंधला सा याद आ रहा था कि जब मैं बहुत छोटी थी और बुआ ससुराल नहीं गई थीं, तब वह भी ऐसे ही तैयारी करती थीं। लड़के सरकंडे के डंडों को चूने और काजल से सजा रहे थे और दिन के तीसरे प्रहर यह धूमधाम इतनी बढ़ गई कि घर-घर में चहल-पहल सी दिखाई देने लगी। युवतियाँ एक-दूसरे के घर जाकर उनकी सहायता करतीं तथा कब निकलना है पूछतीं और गाँव की अन्य सखियों तक संदेश भिजवातीं। माँ ने मुझे भी तैयार होने को कहा पर यह सब मेरे लिए नया था और मेरे घर में मेरे अलावा कोई और लड़की भी न थी, गाँव में न रहने के कारण जान पहचान तो थी पर सखी सहेलियाँ नहीं थीं, इसीलिए मेरा उत्साह सिर्फ देखने तक ही सीमित था। फिर शाम हुई सभी युवतियाँ रंग-बिरंगे परिधानों में सजी-धजी सी, नई-नई टोकरी में भीगे हुए चने रखकर एक ओर कपड़ों की रंग-बिरंगी गुड़िया सजाकर कुरोशिया की बुनाई वाली या सुंदरता से बनाए गए रंगीन कसीदाकारी से सजे थालपोश नुमा कपड़े से ढककर अपने-अपने घरों से निकलकर गाँव के बाहर एकत्र हुईं और फिर सावन की सुर-लहरी वातावरण में गूंजने लगी। गाँव के दूसरे सिरे से लड़के अपने-अपने सजे हुए सरकंडे के डंडों को कांधे पर धरे नदी के तट की ओर बढ़े। सावन के इस त्योहार का यह दृश्य हृदय में सहेज लेने वाला था।  युवतियों के साथ-साथ और औरतें भी सावन गाती हुई नदी तट की ओर बढ़ रही थीं मैं मी माँ के साथ-साथ थी। ऐसे दृश्य को देखने का अवसर इंद्रदेव कैसे छोड़ते? वह भी अपने घन बन के साथ रिमझिम की हल्की-फुल्की सी फुहार लेकर मौसम को और सुहावना बनाने आ गए। तट पर पहुँचकर युवतियों के अलावा अन्य महिलाएँ पीछे पेड़ों के नीचे खड़ी हो गईं तथा युवतियों ने अपनी-अपनी गुड़ियाँ एक-एक कर जमीन पर फेंकना प्रारंभ किया और वहाँ मौजूद युवकों और किशोरों ने अपनी सजी हुई छड़ी से उन गुड़ियों को पीटना शुरू कर दिया। इसप्रकार जब आखिरी गुड़िया पीट ली तब सभी ने अपनी-अपनी छड़ियाँ वहीं गुड़ियों पर फेंक नदी में छलांग लगा दी। कुछ ही देर में सभी नहाकर निकल तब उन सभी युवतियों ने अपनी-अपनी टोकरी से चने उन्हें प्रसाद के रूप में दिए और उन चनों को खाकर सभी युवक वहाँ से जिस मार्ग से आए थे उसी मार्ग से वापस चले गए। सभी स्त्रियाँ फिर सावन के गीत गाती हुई वापस लौटीं पर बीच में ही बगीचे में पहले से डाले गए बड़े से झूले पर झूलना तय हुआ और एक बार में आठ-दस लड़कियाँ बैठ गईं, दोनों सिरों पर दो लड़कियाँ खड़ी होकर पेंग मारने लगीं और साथ में सावन के गीत जोर-शोर से पूरे वातावरण को संगीतमय बनाने लगे। सभी बारी-बारी से झूल रहे थे। यह सिलसिला शायद रात तक भी न थमता अगर वर्षा की धार तीव्र न हो गई होती। सभी हँसते खिलखिलाते अपने-अपने घरों को चले गए। मैं भी आ गई पर मेरे अंदर यह जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हो चुकी थी कि जिन गुड़ियों को इतने प्यार से बनाते हैं उन्हें यूँ पीट-पीटकर मिट्टी में क्यों मिला देते हैं? घर आकर मैंने माँ से पूछा तब उन्होंने मुझे जो कहानी सुनाई वह मुझे पूरी तरह याद नहीं पर उसका भाव यह था कि यह त्योहार भी भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक है.. जब भाई कहीं दूर किसी अन्य देश/राज्य में था तब शत्रुओं ने उसके बहन के राज्य पर हमला किया बहन द्वारा पुकारे जाने पर भाई ने आकर शत्रुओं का संहार किया और बहन को सुरक्षित किया। ये गुड़ियाँ शत्रुओं की प्रतीक और सरकंडे तलवार के प्रतीक होते हैं। शत्रुओं के मरणोपरांत स्नान करके आए भाई के समक्ष चने को आवभगत में परोसे गए स्वास्थ्यवर्धक चबैना का प्रतीक माना गया है।
मेरी जिज्ञासा शांत हो गई तथा हर शाम झूला झूलते हुए गाए जाने वाले सावन के गीत सावन को मनभावन बनाते। मेरा वह सावन मेरे जीवन का यादगार सावन बन गया। वह त्योहार अब भी वैसे ही मनाया जाता है या नहीं... नहीं जानती क्योंकि आधुनिकता गाँवों से भी बहुत कुछ छीनती जा रही है। अच्छा है कि यादों पर अभी हमारा खुद का नियंत्रण है तो उन यादगार पलों को महसूस करके कुछ पलों को यूँ ही मन को आह्लादित कर लेती हूँ।

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

4 टिप्‍पणियां:

  1. आप के संस्मरण ने तो हमारी यादें ताजा कर दी
    4-5 साल की थी जब गुडिया का त्योहार देखा था ....जादा कुछ तो याद नही पर माँ ने एक सुन्दर गुडिया बना के दी थी और मैने एक डंडे को फूलों से सजाया था और उसे अपने मामा के बेटे शेखर को दिया था क्यों की ना मेरे पास सगा भाई था और ना उसके पास बहन इस नाते एकदूसरे से जादा लगाव था ...पर मै गुडिया नदी में फेकना नही चाह रही थी और अपनी गुडिया लेकर भाग गई ...माँ ने बहुत समझाया तब कहीं जाकर शेखर के लिये गुडिया का त्याग किया ...लेकिन कई दिन तक उस से बात न की 😀😀😀 बहुत बहुत आभार आप ने बचपन याद दिला दिया

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    1. नीतू जी सचमुच बचपन की यादों की कोई तुलना नहीं, मन में कसक भी उठती है, दुबारा पा लेने की तड़प भी उठती है और मन मार कर रह जाना होता है।
      सस्नेह आभार, बहुत अच्छा लगा आपकी प्रतिक्रिया जानकर।

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