मोती
कुछ बड़ों को चाहे न हो पर बच्चों को पालतू जानवरों से बड़ा प्यार होता है, वो इंसान के बच्चे खिलाना उतना पसंद नहीं करते जितना कि कुत्ते-बिल्ली के बच्चों को खिलाना पसंद करते हैं। शायद यही वजह है कि आजकल बाजार में जानवरों के रूप-रंग के असली जैसे दिखाई देने वाले खिलौनों की भरमार है और न सिर्फ बच्चों के खेलने के लिए बल्कि कारों में सजाने के लिए भी इन खिलौनों का खूब प्रयोग किया जाता है। फिर भी खिलौना तो खिलौना होता है, सजीव की बराबरी तो नहीं कर सकता इसीलिए कुत्ते, बिल्ली, खरगोश, तोता और तो और चूहा भी, जिसको जो पसंद होता है, अपनी सुविधानुसार पालते हैं। मुझे आज भी याद है जब मैं और मेरे तीनों छोटे भाई किसी के घर कुत्ते का एक छोटा सा प्यारा सा बच्चा देखकर आए थे और फिर हमारा भी बालमन मचल उठा था कुत्ता पालने के लिए, लेकिन विकट समस्या थी कि हम समझते थे कि हमारे बाबूजी को जानवर पालना पसंद नहीं है और हम में से किसी की हिम्मत नहीं थी कि उनसे इस विषय में कुछ कह पाते। मुझे याद है एक बार मेरे पाँच-छ: वर्षीय बड़े भाई (जो मुझसे छोटा और भाइयों में बड़ा था) के जिद करने पर दादी जी ने मुर्गी के बच्चे खरीद दिए थे, तब शाम को जब बाबूजी घर आए तो कितना गुस्सा किया था और उन चूजों को उसी समय किसी को दिलवा दिया। उनका वो गुस्से वाला रूप याद करके किसकी हिम्मत होती उनसे कुत्ता पालने के लिए कहने की! फिरभी बच्चे तो बच्चे ठहरे मन की बात कब तक जुबाँ पर न आती, हमने भी खेल-खेल में बाबूजी से कह दिया कि 'हम लोग भी एक कुत्ता पाल लेते तो कितना अच्छा होता।' सोचा था कि बाबूजी डाँटेंगे तो कह देंगे कि हम तो बस कह रहे थे, सचमुच थोड़ी न पालेंगे। पर ऐसा कुछ नही हुआ, बाबूजी ने न तो डाँटा और न ही कुछ बोले, हम बच्चों को कहाँ पता था कि बड़े हो जाने के बाद व्यक्ति भावुकता से नहीं बल्कि व्यावहारिकता से सोचता है, इसीलिए वह बच्चों की तरह खुलकर अपनी भावनाओं को व्यक्त न करके सोच-समझ कर प्रतिक्रिया देता है और यह कहना भी अतिशयोक्ति न होगी कि शायद कई बार इसी गंभीर और व्यावहारिक सोच के कारण बड़े खुद भी नहीं समझ पाते कि उनके अन्तर्मन को क्या पसंद है।
इस बात को एक-दो दिन ही बीते होंगे कि एक दिन शाम को बाबूजी काम से आते समय अपने साथ एक पिल्ला ले आए। उसे देखते ही हमारी तो खुशियों का ठिकाना ही न रहा। मिठाई, नए कपड़े पाकर भी हम उतने खुश न होते जितना खुश उस छोटे से पिल्ले को पाकर हुए थे। काला चमकदार रंग और माथे पर बीचो-बीच सफेद रंग का तिलक ऐसा लग रहा रहा था जैसे पूजा के उपरांत किसी ने बिल्कुल सही आकार में तिलक लगा दिया हो। डरा सहमा सा वह कभी मेरी ओर देखता तो कभी मेरे भाइयों की ओर, कभी अम्मा को देखता तो कभी बाबूजी को। अब तक उसकी पहचान बाबूजी से ही हो पाई थी तो वह हमारे पास आने को तैयार नहीं था, बस उन्हीं के पैरों के पास दुबका हुआ अपनी मोती सी चमकदार आँखों से हमें टुकुर-टुकुर निहार रहा था। हमनें बड़े सोच-विचार और आपसी परामर्श के बाद उसका नाम रखा "मोती" अब मोती को लुभाने के लिए और उसे अपनी माँ की याद न आए इसके लिए हम बच्चे कभी बिस्किट कभी दूध रूपी रिश्वत से उसे बहलाने का प्रयास कर रहे थे और वह बहुत जल्द ही हमारे परिवार का नामधारी सदस्य 'मोती' बन गया। मैं आज भी नहीं जानती कि कि इस बात में कितनी सच्चाई है कि जिस कुत्ते के बीस नाखून होते हैं वह विषैला होता है, पर हमारे गाँव में ऐसा मानते थे, इसीलिए अम्मा ने सावधानी बरतते हुए उसके नाखून गिनने की सलाह दी। फिर क्या था हम तो शुरू हो गए और पाया गया कि उसके पूरे बीस नाखून थे, हम डर गए कि अम्मा इसे वापस भेज देंगीं, उन्होंने कहा भी "ये बच्चों काट लेगा तो लेने के देने पड़ जाएँगे जहाँ से लाए हो वहीं छोड़ आओ।" हमने सोचा अगर ये चला गया तो पता नहीं दूसरा अट्ठारह नाखूनों वाला मिलेगा या नहीं! और मिला भी तो वो क्या पता इतना प्यारा होगा भी या नहीं! मेरे भाई ने मुझे कोहनी मारी कि मैं कुछ बोलूँ। मैं बड़ी थी इसलिए उन्होंने मुझे ही आगे कर दिया, मैंने भी सोच-समझकर अपना हथियार चलाया और बोली- "तो क्या बाबूजी कोई दूसरा पिल्ला लाने के लिए पहले उसके नाखून गिनेंगे फिर उसे उठाएँगे? और ऐसा करते हुए उस पिल्ले की माँ चुपचाप देखेगी, कुछ नहीं होता अम्मा ये नहीं काटेगा आप टेंशन मत लो।" अब तक तो बाबूजी को भी मोती से लगाव हो चुका था तो उन्होंने भी हमारा समर्थन किया और मोती हमारे घर का सातवाँ सदस्य बन गया।
जिस प्रकार घर में छोटे बच्चे के आने से पूरे परिवार का केन्द्रबिंदु वह बच्चा बन जाता है, उसी प्रकार मोती हमारे परिवार का केन्द्रबिन्दु बन चुका था। जैसे बच्चे पूरे दिन अपने खिलौनों को नहीं छोड़ते वैसे हम सुबह से शाम तक मोती के साथ ही खेलते। सुबह स्कूल जाने से पहले उसे दैनिक क्रिया से निवृत्त होने के लिए बाहर लेकर जाना, उसको दूध देना आदि काम हम बच्चे ही कर लिया करते फिर स्कूल जाते। बहुत जल्द ही उसकी आदत बन गई कि हम गेट खोलते और वह अपने आप बाहर काफी बड़ा मैदान था उसके पार नाला, वहाँ दैनिक क्रिया निवृत्ति के लिए चला जाता और खुद ही वापस आ जाता।
समयकाल के परिवर्तन के साथ-साथ आजकल जानवर की भी नस्लें देखकर पालना हमारी हैसियत, समाज में हमारा रुतबा दर्शाता है, पर उस समय तो हम उस देशी नस्ल से ही न सिर्फ संतुष्ट अपितु असीम प्रसन्न थे। आजकल की भाँति उसके लिए अलग से कोई खाद्य नहीं, हम जो भी खाते वह भी वही खाता। शाम को जब बाबूजी आते तो वह कूद-कूद कर जब तक उनके सीने तक नहीं छू लेता चैन से नहीं बैठता, उसके बाद चुपचाप उनके पैरों के पास बैठकर प्यार जतलाता रहता । हमें देख-देखकर आश्चर्य होता कि वह हर वो चीज खाता था जो हम खाते, चाहे वह अंगूर हो, सेब हो या कोई भी फल और अपने दोनों पैरों से पकड़कर गन्ने तो ऐसे चूसता जैसे कि सालों उसके लिए प्रशिक्षण प्राप्त किया हो।
उसकी बाल सुलभ आदतें हमारे मनोरंजन का साधन बन चुके थे, कभी-कभी हम गरम-गरम भाप उठता हुआ खाना उसके समक्ष रख देते और सब बैठ जाते उसका खेल देखने, वो कटोरे के चारों ओर उछल-कूद मचाता कटोरे तक मुँह ले जाता और हल्का सा छू जाते ही कूद-कूदकर भौंकता जैसे उसे डराने की कोशिश कर रहा हो, हम लोग यह देखकर हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते। एक और खेल हमारा प्रिय बन चुका था, हम उसके सामने आइना रख देते, उसे लगता कोई और कुत्ता है फिर उसका तांडव देखने लायक होता..शीशे में खुद को देखकर उसे पंजे मार-मारकर लड़ता फिर थककर हमारे पास बैठ जाता और थोड़ी ही देर में फिर भौंकता।
बच्चों की तरह जिद करना भी सीख गया था और लाड़ लड़ाना तो उसके स्वभाव में शामिल था, जब सुनने का मन नहीं होता तो अनदेखा भी करता, ऐसे ही एकदिन बाहर घूर रहा था मेरा भाई गुड्डू कहीं से आया तो उसने मोती को आवाज लगाई पर उसने गर्दन घुमा कर देखा और फिर जमीन में कुछ खोजने में व्यस्त हो गया। कई बार अनदेखा करने के बाद जब उसने देखा कि अब गुड्डू को गुस्सा आ गया है, तो आ गया लेकिन तब तक तो इसका पारा चढ़ चुका था, उसके आते ही इसने लात मारा और बेचारा आँगन में जा गिरा। हम सब सहम गए कि उसे चोट लग गई होगी और वो बेचारा उठकर अपनी मोती जैसी आँखों में विस्मय लिए उसे टुकुर-टुकुर देखने लगा। उस घटना के बाद मोती ने कभी अनदेखा करना तो दूर गुड्डू को दूर से ही देख लेता तो पहले ही घर के अंदर भाग आता।
जानवर प्रेम और नफ़रत की भावना को बहुत अच्छे से समझते हैं वह भी समझता था। हमारे पड़ोस में एक मुस्लिम परिवार रहता था, वे लोग कुत्ते को छूना तो दूर अपने आस-पास भी पसंद नहीं करते थे। एक दिन मोती उनके बरामदे के बाहर चला गया तो उनके पाँच-छः वर्षीय बेटे ने उसे मार कर भगा दिया। साथ ही उसकी मम्मी ने हमें शिकायत की कि हम उसे उधर न जाने दें। फिर क्या था अगले ही दिन वह बच्चा नंगा बाहर खेल रहा था, मोती भी हमारे साथ बाहर ही था। हमारी नजरें बचाकर उसने उस बच्चे के सूसू को मुँह में दबा लिया, बह बच्चा चिल्लाया तब हमारा ध्यान गया, मेरे भाई और साथ में खेल रहे दो-तीन और बच्चे तो हँस-हँसकर लोटपोट हो गए पर अपनी हँसी रोककर मैंने मोती को डाँटा तो उसने छोड़ दिया, पर पकड़ा ऐसे था कि एक भी दाँत का निशान तक नहीं आया, हम समझ गए कि वह बदला ले रहा था लेकिन नुकसान नहीं पहुँचाया। पर उसका बदला यहीं खत्म नहीं हुआ, अगली भी सुबह रोज की तरह हमने उसे बाहर भेजा कि वह दैनिक क्रिया से निवृत्त हो आए, वह थोड़ी ही देर में वापस आ गया और दो मिनट के बाद ही उस बच्चे की माँ शिकायत लेकर आई कि तुम्हारे कुत्ते ने हमारे दरवाजे पर टॉयलेट कर दिया। हमने कहा ठीक है कल से हम ध्यान रखेंगे पर वह सबकी नजर बचाकर जाकर उसी के दरवाजे पर कभी पोट्टी कभी सू सू करके आता। अब शिकायतों का सिलसिला शुरू हो गया पर हमने एक भी शिकायत अम्मा तक नहीं पहुँचने दी। अपने दरवाजे की रखवाली खुद करो, किसने कहा था इसे मारने के लिए, ये और किसी के दरवाजे पर तो नहीं करता तुम्हारे ही क्यों? आदि आदि बोलकर हम बच्चे भी अपने मोती की ओर से लड़ने को तैयार हो गए थे, अब उनकी शिकायत भी हम सुनने को तैयार नहीं थे। यही क्रम लगभग एक हफ्ते तक चला फिर उसने स्वतः ही बंद कर दिया।
एकबार मेरा मँझला भाई उसके साथ खेल रहा था, मोती कभी उसकी कमीज को दाँतों से पकड़कर झंझोड़ता कभी उसके हाथ को मुँह में भर लेता, देखकर ऐसा लग रहा था कि वह सचमुच लड़ रहे थे। अम्मा को तो डर था ही कि वह विषैला है, उन्हें लड़ते देख वह डर गईं कि कहीं दाँत लग गए तो? उन्होंने छुड़ाने की कोशिश की पर दोनों नहीं रुके तो अम्मा ने पास में रखी चप्पल उठाई और उसे एक मारकर बाहर निकाल दिया, हम भी अम्मा का गुस्सा देख डर गए थे, उस दिन उन्हें कोई नहीं समझा सका। वह बेचारा ठंड में पूरी रात आँगन में रहा। गुस्से में अम्मा उस समय कुछ न देख सकीं कि वह नन्हीं सी जान इतनी ठंड में कैसे बाहर रहेगा उल्टा वह तो उसे कहीं दूर छोड़कर आने के लिए कहने लगीं। हम सबने उस समय चुप रहना ठीक समझा, हमें लगा कि कुछ कहेंगे तो कहीं ऐसा न हो कि वो उसे इसी समय घर से बाहर ही निकाल दें। सुबह जब दरवाजा खोला तो उसे वहीं चौखट के पास ठिठुरते हुए अपने पैरों में मुँह दिए बैठा पाया। अम्मा को बहुत दया आई, उसे अंदर लाईं दूध गरम करके पिलाने की कोशिश की पर उसने नहीं पिया। अब तो हम सभी चिंतित हो गए, बाबूजी का क्रोध सातवें आसमान पर था। अम्मा के डर का तो हम अंदाजा ही नहीं लगा सकते, एक तो अपराध बोध फिर उससे लगाव भी कम न था और बाबूजी के गुस्से का सामना कैसे करेंगी यह भी डर। वह अपने आपको कोसे जा रही थीं। मैं और भाई तो रोने ही लगे थे। बाबूजी ने हमें समझा-बुझा कर स्कूल भेजा। अम्मा ने न जाने क्या सोचा उन्होंने अंडे मंगवा कर उबाले और उसे खिलाया। जब हम दोपहर को घर आए तब-तक वह कई बार घर गंदा कर चुका था लेकिन लगभग स्वस्थ हो चुका था। शाम तक वह फिर हमसे लड़ने के लिए तैयार था। अब उसे लड़ते देख अम्मा डरती नहीं थीं और वह भी डाँटते ही रुक जाता था।
धीरे-धीरे हमारे साथ वह भी बड़ा हो गया और हमारी तरह समझदार भी। एक समय ऐसा भी आया जब हमारा और मोती का साथ नहीं रहा, हम गर्मियों की छुट्टी बिताने कानपुर से गाँव गए हर साल की तरह उस साल भी मोती को पड़ोस में चाचा जी के पास छोड़ गए। हमें नहीं पता था कि वापस आकर हम मोती को देख नहीं पाएँगे। अब जब कभी कुत्ता पालने का जिक्र होता है तो मोती याद आता है और दुबारा किसी मोती की जुदाई से डर लगता है।
मालती मिश्रा 'मयंती'✍️
कुछ बड़ों को चाहे न हो पर बच्चों को पालतू जानवरों से बड़ा प्यार होता है, वो इंसान के बच्चे खिलाना उतना पसंद नहीं करते जितना कि कुत्ते-बिल्ली के बच्चों को खिलाना पसंद करते हैं। शायद यही वजह है कि आजकल बाजार में जानवरों के रूप-रंग के असली जैसे दिखाई देने वाले खिलौनों की भरमार है और न सिर्फ बच्चों के खेलने के लिए बल्कि कारों में सजाने के लिए भी इन खिलौनों का खूब प्रयोग किया जाता है। फिर भी खिलौना तो खिलौना होता है, सजीव की बराबरी तो नहीं कर सकता इसीलिए कुत्ते, बिल्ली, खरगोश, तोता और तो और चूहा भी, जिसको जो पसंद होता है, अपनी सुविधानुसार पालते हैं। मुझे आज भी याद है जब मैं और मेरे तीनों छोटे भाई किसी के घर कुत्ते का एक छोटा सा प्यारा सा बच्चा देखकर आए थे और फिर हमारा भी बालमन मचल उठा था कुत्ता पालने के लिए, लेकिन विकट समस्या थी कि हम समझते थे कि हमारे बाबूजी को जानवर पालना पसंद नहीं है और हम में से किसी की हिम्मत नहीं थी कि उनसे इस विषय में कुछ कह पाते। मुझे याद है एक बार मेरे पाँच-छ: वर्षीय बड़े भाई (जो मुझसे छोटा और भाइयों में बड़ा था) के जिद करने पर दादी जी ने मुर्गी के बच्चे खरीद दिए थे, तब शाम को जब बाबूजी घर आए तो कितना गुस्सा किया था और उन चूजों को उसी समय किसी को दिलवा दिया। उनका वो गुस्से वाला रूप याद करके किसकी हिम्मत होती उनसे कुत्ता पालने के लिए कहने की! फिरभी बच्चे तो बच्चे ठहरे मन की बात कब तक जुबाँ पर न आती, हमने भी खेल-खेल में बाबूजी से कह दिया कि 'हम लोग भी एक कुत्ता पाल लेते तो कितना अच्छा होता।' सोचा था कि बाबूजी डाँटेंगे तो कह देंगे कि हम तो बस कह रहे थे, सचमुच थोड़ी न पालेंगे। पर ऐसा कुछ नही हुआ, बाबूजी ने न तो डाँटा और न ही कुछ बोले, हम बच्चों को कहाँ पता था कि बड़े हो जाने के बाद व्यक्ति भावुकता से नहीं बल्कि व्यावहारिकता से सोचता है, इसीलिए वह बच्चों की तरह खुलकर अपनी भावनाओं को व्यक्त न करके सोच-समझ कर प्रतिक्रिया देता है और यह कहना भी अतिशयोक्ति न होगी कि शायद कई बार इसी गंभीर और व्यावहारिक सोच के कारण बड़े खुद भी नहीं समझ पाते कि उनके अन्तर्मन को क्या पसंद है।
इस बात को एक-दो दिन ही बीते होंगे कि एक दिन शाम को बाबूजी काम से आते समय अपने साथ एक पिल्ला ले आए। उसे देखते ही हमारी तो खुशियों का ठिकाना ही न रहा। मिठाई, नए कपड़े पाकर भी हम उतने खुश न होते जितना खुश उस छोटे से पिल्ले को पाकर हुए थे। काला चमकदार रंग और माथे पर बीचो-बीच सफेद रंग का तिलक ऐसा लग रहा रहा था जैसे पूजा के उपरांत किसी ने बिल्कुल सही आकार में तिलक लगा दिया हो। डरा सहमा सा वह कभी मेरी ओर देखता तो कभी मेरे भाइयों की ओर, कभी अम्मा को देखता तो कभी बाबूजी को। अब तक उसकी पहचान बाबूजी से ही हो पाई थी तो वह हमारे पास आने को तैयार नहीं था, बस उन्हीं के पैरों के पास दुबका हुआ अपनी मोती सी चमकदार आँखों से हमें टुकुर-टुकुर निहार रहा था। हमनें बड़े सोच-विचार और आपसी परामर्श के बाद उसका नाम रखा "मोती" अब मोती को लुभाने के लिए और उसे अपनी माँ की याद न आए इसके लिए हम बच्चे कभी बिस्किट कभी दूध रूपी रिश्वत से उसे बहलाने का प्रयास कर रहे थे और वह बहुत जल्द ही हमारे परिवार का नामधारी सदस्य 'मोती' बन गया। मैं आज भी नहीं जानती कि कि इस बात में कितनी सच्चाई है कि जिस कुत्ते के बीस नाखून होते हैं वह विषैला होता है, पर हमारे गाँव में ऐसा मानते थे, इसीलिए अम्मा ने सावधानी बरतते हुए उसके नाखून गिनने की सलाह दी। फिर क्या था हम तो शुरू हो गए और पाया गया कि उसके पूरे बीस नाखून थे, हम डर गए कि अम्मा इसे वापस भेज देंगीं, उन्होंने कहा भी "ये बच्चों काट लेगा तो लेने के देने पड़ जाएँगे जहाँ से लाए हो वहीं छोड़ आओ।" हमने सोचा अगर ये चला गया तो पता नहीं दूसरा अट्ठारह नाखूनों वाला मिलेगा या नहीं! और मिला भी तो वो क्या पता इतना प्यारा होगा भी या नहीं! मेरे भाई ने मुझे कोहनी मारी कि मैं कुछ बोलूँ। मैं बड़ी थी इसलिए उन्होंने मुझे ही आगे कर दिया, मैंने भी सोच-समझकर अपना हथियार चलाया और बोली- "तो क्या बाबूजी कोई दूसरा पिल्ला लाने के लिए पहले उसके नाखून गिनेंगे फिर उसे उठाएँगे? और ऐसा करते हुए उस पिल्ले की माँ चुपचाप देखेगी, कुछ नहीं होता अम्मा ये नहीं काटेगा आप टेंशन मत लो।" अब तक तो बाबूजी को भी मोती से लगाव हो चुका था तो उन्होंने भी हमारा समर्थन किया और मोती हमारे घर का सातवाँ सदस्य बन गया।
जिस प्रकार घर में छोटे बच्चे के आने से पूरे परिवार का केन्द्रबिंदु वह बच्चा बन जाता है, उसी प्रकार मोती हमारे परिवार का केन्द्रबिन्दु बन चुका था। जैसे बच्चे पूरे दिन अपने खिलौनों को नहीं छोड़ते वैसे हम सुबह से शाम तक मोती के साथ ही खेलते। सुबह स्कूल जाने से पहले उसे दैनिक क्रिया से निवृत्त होने के लिए बाहर लेकर जाना, उसको दूध देना आदि काम हम बच्चे ही कर लिया करते फिर स्कूल जाते। बहुत जल्द ही उसकी आदत बन गई कि हम गेट खोलते और वह अपने आप बाहर काफी बड़ा मैदान था उसके पार नाला, वहाँ दैनिक क्रिया निवृत्ति के लिए चला जाता और खुद ही वापस आ जाता।
समयकाल के परिवर्तन के साथ-साथ आजकल जानवर की भी नस्लें देखकर पालना हमारी हैसियत, समाज में हमारा रुतबा दर्शाता है, पर उस समय तो हम उस देशी नस्ल से ही न सिर्फ संतुष्ट अपितु असीम प्रसन्न थे। आजकल की भाँति उसके लिए अलग से कोई खाद्य नहीं, हम जो भी खाते वह भी वही खाता। शाम को जब बाबूजी आते तो वह कूद-कूद कर जब तक उनके सीने तक नहीं छू लेता चैन से नहीं बैठता, उसके बाद चुपचाप उनके पैरों के पास बैठकर प्यार जतलाता रहता । हमें देख-देखकर आश्चर्य होता कि वह हर वो चीज खाता था जो हम खाते, चाहे वह अंगूर हो, सेब हो या कोई भी फल और अपने दोनों पैरों से पकड़कर गन्ने तो ऐसे चूसता जैसे कि सालों उसके लिए प्रशिक्षण प्राप्त किया हो।
उसकी बाल सुलभ आदतें हमारे मनोरंजन का साधन बन चुके थे, कभी-कभी हम गरम-गरम भाप उठता हुआ खाना उसके समक्ष रख देते और सब बैठ जाते उसका खेल देखने, वो कटोरे के चारों ओर उछल-कूद मचाता कटोरे तक मुँह ले जाता और हल्का सा छू जाते ही कूद-कूदकर भौंकता जैसे उसे डराने की कोशिश कर रहा हो, हम लोग यह देखकर हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते। एक और खेल हमारा प्रिय बन चुका था, हम उसके सामने आइना रख देते, उसे लगता कोई और कुत्ता है फिर उसका तांडव देखने लायक होता..शीशे में खुद को देखकर उसे पंजे मार-मारकर लड़ता फिर थककर हमारे पास बैठ जाता और थोड़ी ही देर में फिर भौंकता।
बच्चों की तरह जिद करना भी सीख गया था और लाड़ लड़ाना तो उसके स्वभाव में शामिल था, जब सुनने का मन नहीं होता तो अनदेखा भी करता, ऐसे ही एकदिन बाहर घूर रहा था मेरा भाई गुड्डू कहीं से आया तो उसने मोती को आवाज लगाई पर उसने गर्दन घुमा कर देखा और फिर जमीन में कुछ खोजने में व्यस्त हो गया। कई बार अनदेखा करने के बाद जब उसने देखा कि अब गुड्डू को गुस्सा आ गया है, तो आ गया लेकिन तब तक तो इसका पारा चढ़ चुका था, उसके आते ही इसने लात मारा और बेचारा आँगन में जा गिरा। हम सब सहम गए कि उसे चोट लग गई होगी और वो बेचारा उठकर अपनी मोती जैसी आँखों में विस्मय लिए उसे टुकुर-टुकुर देखने लगा। उस घटना के बाद मोती ने कभी अनदेखा करना तो दूर गुड्डू को दूर से ही देख लेता तो पहले ही घर के अंदर भाग आता।
जानवर प्रेम और नफ़रत की भावना को बहुत अच्छे से समझते हैं वह भी समझता था। हमारे पड़ोस में एक मुस्लिम परिवार रहता था, वे लोग कुत्ते को छूना तो दूर अपने आस-पास भी पसंद नहीं करते थे। एक दिन मोती उनके बरामदे के बाहर चला गया तो उनके पाँच-छः वर्षीय बेटे ने उसे मार कर भगा दिया। साथ ही उसकी मम्मी ने हमें शिकायत की कि हम उसे उधर न जाने दें। फिर क्या था अगले ही दिन वह बच्चा नंगा बाहर खेल रहा था, मोती भी हमारे साथ बाहर ही था। हमारी नजरें बचाकर उसने उस बच्चे के सूसू को मुँह में दबा लिया, बह बच्चा चिल्लाया तब हमारा ध्यान गया, मेरे भाई और साथ में खेल रहे दो-तीन और बच्चे तो हँस-हँसकर लोटपोट हो गए पर अपनी हँसी रोककर मैंने मोती को डाँटा तो उसने छोड़ दिया, पर पकड़ा ऐसे था कि एक भी दाँत का निशान तक नहीं आया, हम समझ गए कि वह बदला ले रहा था लेकिन नुकसान नहीं पहुँचाया। पर उसका बदला यहीं खत्म नहीं हुआ, अगली भी सुबह रोज की तरह हमने उसे बाहर भेजा कि वह दैनिक क्रिया से निवृत्त हो आए, वह थोड़ी ही देर में वापस आ गया और दो मिनट के बाद ही उस बच्चे की माँ शिकायत लेकर आई कि तुम्हारे कुत्ते ने हमारे दरवाजे पर टॉयलेट कर दिया। हमने कहा ठीक है कल से हम ध्यान रखेंगे पर वह सबकी नजर बचाकर जाकर उसी के दरवाजे पर कभी पोट्टी कभी सू सू करके आता। अब शिकायतों का सिलसिला शुरू हो गया पर हमने एक भी शिकायत अम्मा तक नहीं पहुँचने दी। अपने दरवाजे की रखवाली खुद करो, किसने कहा था इसे मारने के लिए, ये और किसी के दरवाजे पर तो नहीं करता तुम्हारे ही क्यों? आदि आदि बोलकर हम बच्चे भी अपने मोती की ओर से लड़ने को तैयार हो गए थे, अब उनकी शिकायत भी हम सुनने को तैयार नहीं थे। यही क्रम लगभग एक हफ्ते तक चला फिर उसने स्वतः ही बंद कर दिया।
एकबार मेरा मँझला भाई उसके साथ खेल रहा था, मोती कभी उसकी कमीज को दाँतों से पकड़कर झंझोड़ता कभी उसके हाथ को मुँह में भर लेता, देखकर ऐसा लग रहा था कि वह सचमुच लड़ रहे थे। अम्मा को तो डर था ही कि वह विषैला है, उन्हें लड़ते देख वह डर गईं कि कहीं दाँत लग गए तो? उन्होंने छुड़ाने की कोशिश की पर दोनों नहीं रुके तो अम्मा ने पास में रखी चप्पल उठाई और उसे एक मारकर बाहर निकाल दिया, हम भी अम्मा का गुस्सा देख डर गए थे, उस दिन उन्हें कोई नहीं समझा सका। वह बेचारा ठंड में पूरी रात आँगन में रहा। गुस्से में अम्मा उस समय कुछ न देख सकीं कि वह नन्हीं सी जान इतनी ठंड में कैसे बाहर रहेगा उल्टा वह तो उसे कहीं दूर छोड़कर आने के लिए कहने लगीं। हम सबने उस समय चुप रहना ठीक समझा, हमें लगा कि कुछ कहेंगे तो कहीं ऐसा न हो कि वो उसे इसी समय घर से बाहर ही निकाल दें। सुबह जब दरवाजा खोला तो उसे वहीं चौखट के पास ठिठुरते हुए अपने पैरों में मुँह दिए बैठा पाया। अम्मा को बहुत दया आई, उसे अंदर लाईं दूध गरम करके पिलाने की कोशिश की पर उसने नहीं पिया। अब तो हम सभी चिंतित हो गए, बाबूजी का क्रोध सातवें आसमान पर था। अम्मा के डर का तो हम अंदाजा ही नहीं लगा सकते, एक तो अपराध बोध फिर उससे लगाव भी कम न था और बाबूजी के गुस्से का सामना कैसे करेंगी यह भी डर। वह अपने आपको कोसे जा रही थीं। मैं और भाई तो रोने ही लगे थे। बाबूजी ने हमें समझा-बुझा कर स्कूल भेजा। अम्मा ने न जाने क्या सोचा उन्होंने अंडे मंगवा कर उबाले और उसे खिलाया। जब हम दोपहर को घर आए तब-तक वह कई बार घर गंदा कर चुका था लेकिन लगभग स्वस्थ हो चुका था। शाम तक वह फिर हमसे लड़ने के लिए तैयार था। अब उसे लड़ते देख अम्मा डरती नहीं थीं और वह भी डाँटते ही रुक जाता था।
धीरे-धीरे हमारे साथ वह भी बड़ा हो गया और हमारी तरह समझदार भी। एक समय ऐसा भी आया जब हमारा और मोती का साथ नहीं रहा, हम गर्मियों की छुट्टी बिताने कानपुर से गाँव गए हर साल की तरह उस साल भी मोती को पड़ोस में चाचा जी के पास छोड़ गए। हमें नहीं पता था कि वापस आकर हम मोती को देख नहीं पाएँगे। अब जब कभी कुत्ता पालने का जिक्र होता है तो मोती याद आता है और दुबारा किसी मोती की जुदाई से डर लगता है।
मालती मिश्रा 'मयंती'✍️
प्रभावी चित्रण
जवाब देंहटाएंआपका आशीर्वाद प्राप्त हुआ, सादर आभार आदरणीय।
हटाएंजीवन से जुड़ाव और असमय विदाई का दर्द जीवन्त मन ही महसूस करता है। सुन्दर लगी यह पोस्ट । ऐसी ही एक घटना के बाद मैने जानवर पालना ही बंद कर दिया था।
जवाब देंहटाएंआपकी टिप्पणी अनमोल है मेरे लिए, पाठक ही लेखक की ऊर्जा और मार्गदर्शक होते हैं। सादर आभार आपका पुरुषोत्तम कुमार जी।
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