बुधवार

पढ़ेगा तभी तो बढ़ेगा इंडिया

 पढ़ेगा तभी तो बढ़ेगा इंडिया


भगवान के नाम पर कुछ दे दो भाई, हम बहुत मजबूर हैं, जवान बिटिया है उसकी शादी के लिए कुछ नहीं है, कुछ मदद कर दो बाबा, ओ बहन कुछ दे दो पुण्य मिलेगा, तुम्हें भगवान बहुत देगा, ओ माता दस-बीस रुपया, कपड़ा या अनाज दे दो थोड़ी मदद हो जाएगी.... गली में दूर से ही किसी भिखारी की यही कर्कश सी आवाज लगातार आ रही थी। धीरे-धीरे आवाज पास आती जा रही थी और पाँच दस मिनट के बाद बिल्डिंग के नीचे यही आवाज सुनकर सुनंदा से रहा नहीं गया उसे गुस्सा आ रहा था कि कैसे-कैसे लोग हैं बेटी की शादी के नाम पर भीख माँग रहे हैं, हद हो गई! मन ही मन बड़बड़ाती हुई वह कमरे का दरवाजा खोलकर बालकनी में आ गई यह सोचकर कि देखूँ तो कैसा मजबूर है जिसने बेटी को भी भीख माँगने का जरिया बना लिया। यही सोचकर उसने बालकनी से नीचे झाँककर देखा, वह कर्कश आवाज किसी पुरुष की नहीं बल्कि महिला की थी जिसको बाजू से पकड़े धीरे-धीरे कोई लड़की जो शायद उसकी वही बेटी होगी जिसकी शादी के लिए वह भीख माँग रही थी, आगे को बढ़ती जा रही थी। सुनंदा चौथे माले पर खड़ी थी और वो दोनों बिल्डिंग को पार करके आगे जा चुकी थीं, इसलिए वह उनका चेहरा नहीं देख सकी लेकिन उसे ऐसा लगा कि शायद वह महिला देख नहीं सकती। उसका मन हुआ कि वह उसे बुलाकर कुछ दे दे पर अब तक वे आगे जा चुकी थीं। सुनंदा को अपनी सोच पर क्रोध आ रहा था, अभी थोड़ी देर पहले वो क्या-क्या सोच रही थी कि इन भिखारियों को बिना मेहनत ही खाने की आदत हो चुकी है ये मेहनत नहीं करना चाहते इसलिए भीख माँगते हैं परंतु अब उस अंधी भिखारिन को देखकर उसे अपनी सोच निम्न स्तर की लग रही थी अगर वो उसे अपनी ढेरों साड़ियों में से एक-दो उसकी बेटी के लिए दे देती तो उसे कौन सी कमी हो जाती। थोड़ा बहुत परोपकार का काम तो हर व्यक्ति को करना चाहिए। उसकी अन्तरात्मा उसे धिक्कार रही थी। 


वैसे भी लॉकडाउन में तो पढ़े-लिखे भी बेरोजगार हो गए हैं तो ये बेचारे अनपढ़ गरीब कैसे अपना गुजारा करते होंगे! सोच-सोचकर सुनंदा की खीझ बढ़ती जा रही थी तभी डोरबेल बजी और वह दरवाजे की ओर बढ़ गई। दरवाजे पर काम वाली बाई राधिका थी जो आज लॉकडाउन के बाद पहली बार काम करने आई थी। सुनंदा उसे कभी-कभी बुलाकर कुछ पैसे और जरूरत के कुछ सामान दे दिया करती थी लेकिन कोरोना के कारण अभी उसे काम पर आने के लिए मना कर रखा था। 

उसे देखते ही सुनंदा खुश हो गई, इतने महीने से अकेले घर का काम करते-करते वह तो आराम करना भूल ही चुकी थी, दिन भर मशीन की तरह लगी रहती। अब राधिका के आने से उसने राहत की सांस ली। उसके आते ही सुनंदा रसोई में अपने लिए चाय बनाने चली गई, दोनों बच्चे और पति अभी सो रहे थे। उसने अपने और राधिका के लिए चाय बनाई, दोनों चाय की चुस्कियों के साथ अब तक की अपनी-अपनी आपबीती बताने लगीं तभी सुनंदा को फिर उस भिखारिन की याद आ गई और उसने राधिका को भी बताते हुए कहा- "अच्छा राधिका तेरी बस्ती में भी ऐसे लोग रहते हैं क्या? मेरा मतलब भिखारी वगैरा?"

"पता नहीं भाभी जी पर बस्ती के पीछे की तरफ बहुत से ऐसे लोग झुग्गियों में रहते हैं जो बहुत ही फटेहाल हालत में रहते हैं।"

"उनके बच्चे तो स्कूल भी नहीं जाते होंगे?" सुनंदा ने पूछा।

"कहाँ भाभी जी, जिनके खाने के लाले पड़े हों वो स्कूल कैसे जाएँगे?"

सुनंदा चुप हो गई, उसके दिमाग में कुछ और ही चल रहा था, क्या वह उन गरीबों की कुछ मदद कर सकती है? उसको चुप देखकर राधिका भी अपने काम में लग गई। 

सुनंदा नहा-धोकर प्रात:कालीन पूजा पाठ की तैयारी में लग गई लेकिन उस भिखारिन की याचना भरी कर्कश आवाज अब भी उसके कानों में गूँज रही थी। वह उसकी मदद तो नहीं कर सकी लेकिन उसके जैसे अन्य लोगों की मदद करना चाहती थी पर कैसे यह उसकी समझ में नहीं आ रहा था। घर की साफ-सफाई बर्तन आदि करके राधिका जा चुकी थी। पूजा करके सुनंदा भी नाश्ते की तैयारी करने लगी संजीव और बच्चे आरती की घंटी सुनकर उठ चुके थे और नित्यक्रिया स्नान आदि की होड़ में पूरे जोर-शोर से रम चुके थे। दो-दो बाथरूम होने के बाद भी सबको एक में ही जाने की जिद थी। कोई कहता मैं पहले नहाऊँगा तो कोई पहले शौच और स्नान की अपनी पात्रता समझाने का प्रयास करता। संजीव भी बच्चों की होड़ में शामिल था। सुनंदा उनकी तू-तू-मैं-मैं पर ध्यान दिए बगैर नाश्ता तैयार करने की अपनी ड्यूटी को पूरा करने में पूर्ण मनोयोग से व्यस्त थी। 


नाश्ते की टेबल पर सुनंदा को चुपचाप नाश्ता करते देखकर संजीव से रहा नहीं गया और उसने पूछ ही लिया, "क्या बात है, आज जब से देख रहा हूँ तुम चुपचाप हो कुछ बोलीं ही नहीं! तबियत तो ठीक है न?" 

"हाँ, मैं ठीक हूँ। सुबह से तुम लोगों ने इतना शोर मचा रखा है उसमें मैं भी बोलती तो चिड़ियाघर वाले भी शरमा जाते, इसलिए मैं चुप थी।" सुनंदा ने मुस्कराते हुए कहा।

"हूँ तो मैडम अपने आपको चिड़ियाघर की सदस्या समझती हैं।" संजीव ने हँसते हुए कहा तो दोनों बच्चे भी हँस पड़े।

"हि हि हि हि नॉट सो फनी।" कहकर वह फिर चुपचाप नाश्ता करने लगी। 

"आखिर बात क्या है, कुछ बताओ तो सही।" संजीव गंभीर होते हुए बोला।

तब सुनंदा ने सुबह की घटना बताते हुए कहा कि "राधिका की बस्ती में ऐसे बहुत से परिवार झुग्गियों में रहते हैं, जिनके बच्चे पढ़ तक नहीं पाते। मैं सोच रही थी अगर उनके लिए कुछ कर पाती तो कम से कम इन बच्चों को भीख माँगने की नौबत नहीं आती।"

"हम्म वो तो ठीक है पर तुम अकेली कर भी क्या सकती हो? ज्यादा से ज्यादा दो-चार बच्चों को बुलाकर पढ़ा दोगी पर इससे न तो उन्हें स्कूल जाने का अवसर मिलेगा और न ही तुम्हारा लक्ष्य पूरा होगा। साथ ही उन बच्चों के माँ-बाप उन्हें पढ़ने के लिए भेजने को तैयार होंगे इसमें भी संदेह है।" संजीव ने कहा।

"मैं भी तो इसीलिए परेशान हूँ क्योंकि कोई राह ही नहीं सूझ रहा है।" सुनंदा बोली।

"अगर तुमने ये कार्य करने की ठान ही ली है तो सोचो, कोई न कोई राह निकल ही आएगी पर इस तरह से चिंतित होकर नहीं।"

संजीव के इस प्रकार के उत्साहजनित बातों से सुनंदा का हौसला दुगना हो गया अब वह दुगने उत्साह से उपाय तलाशने के लिए लैपटॉप लेकर बैठ गई। 


दो-तीन घंटे लैपटॉप में कुछ ढूँढ़ती और नोटपैड में कुछ लिखती रही। शाम को सुनंदा ने कुछ  फोन भी किए। अब वह संतुष्ट नजर आ रही थी। डिनर करते समय संजीव ने ही पूछ लिया "क्या कोई रास्ता सूझा, वैसे तुम्हें देखकर लग रहा है कि तुम्हें मंजिल तक पहुँचने की राह मिल गई।"

"हाँ, तुम सही कह रहे हो, मुझे रास्ता मिल गया। मेरी आज दो एनजीओ से बात हुई है, मैं कल ही दोनों ज्वाइन कर रही हूँ।"

"पर दो क्यों, एक क्यों नहीं? और माना कि एनजीओ इसप्रकार के काम करती हैं पर वे तुम्हारे इसी विशेष काम में किस प्रकार सहयोग करेंगी?" संजीव ने पूछा।

"इनमें से एक गरीब बच्चों को शिक्षा की व्यवस्था करवाती है पर इस अनलॉक के समय में मेरे विशेष अनुरोध पर अपनी पब्लिसिटी का फायदा देखते हुए उन्होंने बस्ती में जाकर न सिर्फ बच्चों बल्कि महिलाओं को भी पढ़ाना स्वीकार कर लिया है। बस मुझे भी उनके साथ जाना होगा, कई महिलाएँ साथ होंगीं तो समझाना आसान होगा।"

"तो जब एक से ही काम हो रहा है तो दूसरा क्यों?" संजीव ने कहा।

"शिक्षा के साथ-साथ अगर उन गरीब और बेरोजगार परिवारों को कमाई का कोई जरिया मिल जाए तो उनका जीवन आसान हो जाएगा और शिक्षा के प्रति रुचि बढ़ेगी, इसीलिए दूसरा एनजीओ भी ज्वाइन करूँगी इसकी सहायता से उस गरीब बस्ती के महिला और पुरुषों को छोटे-छोटे कामों की ट्रेनिंग देकर सरकार के द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं से उन्हें जोड़कर रोजगार मुहैया करवाया जाएगा। अब इस अनलॉक के समय भी मास्क, पी.पी.ई. किट और अन्य तमाम तरह की वस्तुएँ बनाना सिखाकर उन्हें मार्केट प्रोवाइड करवाने का काम ये दूसरी एनजीओ करेगी।"

"वाह तुमने तो एक ही दिन में न सिर्फ रास्ता ढूँढ़ लिया बल्कि इतने मजबूत प्लान से आधी जंग जीत ली। पर एक बात का ध्यान रखना हमारे बच्चों की पढ़ाई पर नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए, मेरा मतलब है कि दो-दो एनजीओ ज्वाइन करके कहीं इतनी व्यस्त मत हो जाना कि घर के लिए समय ही न निकाल सको।"

"ऐसा नहीं है मैं सब मैनेज कर लूँगी, फिर तुम भी तो हो न साथ देने के लिए। आखिर देश के प्रति हमारा भी तो कुछ कर्तव्य बनता है और अशिक्षा के अंधकार में देश का विकास संभव नहीं। आत्मनिर्भर भारत बनाने के इस महान यज्ञ में हमारी तरफ से भी तो आहुति पड़नी चाहिए न! आखिर 'पढ़ेगा तभी तो बढ़ेगा इंडिया'।"

"वाह तुमने तो अभी से भाषण देना भी सीख लिया।" कहते हुए संजीव ने ताली बजाना शुरू कर दिया बच्चे भी तालियाँ बजाते हुए सुनंदा से लिपट गए और एक स्वर में बोले- "पढ़ेगा तभी तो बढ़ेगा इंडिया।"

©मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

१९/८/२०


0 Comments:

Thanks For Visit Here.