रविवार

अस्तित्व

अस्तित्व
शय्या पर पड़ी शिथिल हुई काया जो सबको है भूल चुकी, अपनों के बीच अनजान बनी अपनी पहचान भी भूल चुकी। तैर रही कोई चाह थी फिरभी बेबस वीरान सी आँखों में, लगता जीवन डोर जुड़ी हो खामोश पुकार थी टूटती सांसों में। ढूँढ रहीं थीं कोई अपना लगे कोई जाना-पहचाना, हर एक चेहरे को किताब मान पढ़ने...

गुरुवार

एकाधिकार

एकाधिकार
आज एक बेटी कर्तव्यों से मुख मोड़ आई है दर्द में तड़पती माँ को बेबस छोड़ आई है। बेटी है बेटी की माँ भी है माँ का दर्द जानती है माँ के प्रति अपने कर्तव्यों को भी खूब मानती है बेटों के अधिकारों के समक्ष खुद को लाचार पाई है दर्द में तड़पती माँ को बेबस छोड़ आई है। अपनी हर...
एक लंबे अंतहीन सम इंतजार के बाद  आखिर संध्या का हुआ पदार्पण सकल दिवा के सफर से थककर दूर क्षितिज के अंक समाने मार्तण्ड शयन को उद्धत होता अवनी की गोद में मस्तक रख कर अपने सफर के प्रकाश को समेटे तरंगिनी में घोल दिया प्रात के अरुण की लाली से जैसे संध्या...