जिम्मेदार कौन!
पाँचवें पीरियड की समाप्ति की घंटी बजी, घंटी की आवाज सुनते ही विद्यार्धी अध्यापिकाओं की उपस्थिति भूलकर आपस में जोर-जोर से बातें करने लगे और पुस्तक बंद कर दिया। सभी अध्यापिकाएँ भी अपनी-अपनी फाइल, पुस्तक आदि उठाकर दूसरी कक्षाओं में जाने के लिए निकल गईं। छठा पीरियड शुरू हो चुका था, यह आखिरी पीरियड था। सुबह से पढ़ते-पढ़ते बच्चे अब तक मानसिक रूप से थक चुके थे ऐसे में यह अंतिम पीरियड भी पढ़ना उन्हें बहुत नागवार गुजरता है परंतु पढ़ना तो पड़ेगा। शिक्षक वर्ग के लिए भी यह कहाँ आसान होता है सुबह से एक कक्षा से दूसरी कक्षा दूसरी से तीसरी भाग रहे हैं और हर कक्षा में जाकर चालीस से पचास विद्यार्धी को पहले तो चुप कराना और फिर उनको पढ़ाना। सुबह आठ बजे से दोपहर डेढ़-दो बजे तक लगातार पूरे दबाव के साथ इतना तेज बोलते रहना कि कक्षा के आखिरी छोर तक के विद्यार्धी को साफ-साफ सुनाई दे, यह भी कहाँ आसान था, परंतु शिक्षक की नौकरी और नौकरी की जिम्मेदारी है तो किसी अन्य से तो क्या स्वयं से भी शिकायत नहीं कर सकते।
संगीत और नृत्य के अध्यापक अमरेंद्र सेन ने घंटी की आवाज सुनते ही नृत्य का अभ्यास कर रहे बच्चों को उनकी कक्षाओं में जाने का आदेश दिया। उनका यह पीरियड कक्षा सातवीं -ई में था, उन्हें पता था कि कक्षा में बच्चों ने आसमान सिर पर उठा रखा होगा। बच्चे तो बच्चे हैं पसंदीद विषय न होने पर अध्यापक की अनुमति बिना ही किताबें बंद हो जाती हैं किंतु नृत्य या संगीत जैसा विषय हो तो अध्यापक के कहने के बाद भी नहीं छोड़ना चाहते।
अमरेंद्र सेन बच्चों को वहाँ से भेजकर संगीतकक्ष को बंद करके लंबे-लंबे डग भरते हुए कक्षा में आए तो कक्षा की हालत देखकर दंग रह गए। कुछ बच्चे श्यामपट के पास खड़े थे तो कुछ बच्चे स्मार्ट बोर्ड के पास एक दूसरे को धकेल रहे थे। कक्षा के लगभच सभी बच्चे खड़े थे। दो-चार बच्चे बेंचों के ऊपर से भाग रहे थे। कक्षा के प्रवेश द्वार के पास रखे हुए डायस के पास ही तीन-चार बच्चे खड़े थे। मास्टर अमरेंद्र कक्षा में पहुँचते ही वहाँ का दृश्य देख आपे से बाहर हो गए और आव देखा न ताव वहाँ खड़े एक बच्चे को एक थप्पड़ रसीद कर दिया। यह देखते ही सभी बच्चे भाग कर अपनी-अपनी सीट पर बैठ गए। वैसे संगीत और नृत्य के अकेले अध्यापक होने के नाते और उनके विनम्र व मजाकिया स्वभाव के कारण सभी बच्चे उनका सम्मान करते और उनकी बात मानते थे लेकिन इस समय उनसे एक चूक हो गई बच्चों की भीड़ और उस बच्चे के ब्वॉय कट बालों की वजह से वह जान नहीं पाए कि उन्होंने जिस बच्चे को थप्पड़ मारा वह लड़की है। वैसे तो 'बेटा-बेटी एक समान' का नारा बहुत अच्छा लगता है किन्तु जहाँ समानता में कठिनाई या नुकसान और असमानता में सहजता या लाभ नजर आए वहाँ असमान रहना ही उचित माना जाता है, चाहे वह बसों और रेलगाड़ियों में सीटों के आरक्षण की बात हो या शारीरिक परिश्रम से राहत की बात हो या फिर पढ़ाई या नौकरी में महिलाओं के लिए आरक्षण आदि की बात हो, वहाँ महिलाओं को बराबरी नहीं चाहिए। ऐसा ही एक क्षेत्र है कक्षा, कक्षा में सभी विद्यार्थी समान है परंतु लड़कियों को उस तरह से नहीं डाँट सकते जैसे लड़कों को। खैर! उन्होंने एक लड़की को थप्पड़ मारा है, इस बात से बेखबर मास्टर जी ने डाँट-डपट कर बच्चों को बैठाया और फिर उन्हें अनुशासन में रहने की सीख देने लगे। आखिरी पीरियड होने के बाद भी बच्चे शांति से उनकी बातें सुन रहे थे क्योंकि वे उन्हें नाराज करके संगीत व नृत्य में अपने चुने जाने के अवसर को नहीं खोना चाहते थे। छुट्टी की घंटी बज गई, मास्टर साहब को सीढ़ियों के पास ड्यूटी देने जाना था इसलिए उन्होंने पहले इसी कक्षा के बच्चों की लाइन बनवाई और उन्हें भेजकर स्वयं ड्यूटी देने चले गए।
दोपहर के दो बजकर बीस मिनट हो रहे थे, सभी अध्यापिकाएँ जल्दी-जल्दी अपना कार्य खतम करने में व्यस्त थीं ताकि ढाई बजे घर के लिए निकल सकें। मास्टर अमरेंद्र सेन को ऑफिस में बुलाया गया। वह प्रधानाचार्या के ऑफिस में पहुँचे, प्रवेशद्वार पर पहुँचते ही उन्होंने उनकी ओर पीठ करके बैठे दो पुलिस वालों को देखा पर वह कारण से अनभिज्ञ थे। अनुमति लेकर वह ऑफिस के भीतर आए।
प्रधानाचार्या ने जलते हुए नेत्रों से उनकी ओर इस प्रकार देखा मानों आँखों ही आँखों से उन्हें वहीं खड़े-खड़े भस्म कर देंगीं, पर बोलीं कुछ नहीं।
वहाँ उपस्थित मैनेजर मि० सोमानी ने बताया कि आज छठे पीरियड में मास्टर जी ने जिस लड़की को थप्पड़ मारा था उसके पिता ने उनके खिलाफ एफ.आई.आर. करवाया है कि उन्होंने उनकी बेटी को इतनी जोर से मारा कि उसका गाल सूज गया है, इसीलिए पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने के लिए आई है। और इतना ही नहीं उसके पिता ने लड़की के सूजे हुए गाल की फोटो खींचकर स्कूल की वेबसाइट पर तथा सोशल मीडिया पर भी डाल दिया है ताकि अन्य अभिभावकों का और जनता का समर्थन पा सके।
मास्टर जी के तो पैरों तले धरती ही खिसक गई, उन्होंने प्रधानाचार्या तथा लड़की के पिता को अपनी स्थिति स्पष्ट करने कोशिश की, उन्हें कितना समझाया कि कक्षा का दृश्य उस समय बेहद डरावना था, बच्चों को रोकने के लिए उन्हें हाथ उठाना पड़ा और उस समय लड़की के छोटे बालों और लड़कों जैसे कपड़ों की वजह से वह यह भी नहीं जान पाए थे कि वह लड़की है। इस तरह की न जाने कितनी दलीलें देकर मास्टर साहब ने उन्हें समझाने का प्रयास किया परंतु लड़की का पिता अपनी जिद पर अड़ा रहा और उन्हें गिरफ्तार करवाकर ही माना।
विद्यालय के मालिक कोई छोटी हस्ती नहीं थे, उनका विद्यालय नामचीन विद्यालयों में से एक है और इसकी चार अन्य शाखाएँ भी हैं। राजनीति से भी अछूते नहीं हैं, नेताओं के बीच उठना-बैठना उनकी पहुँच को बढ़ा देता है। वह जानते थे कि यदि मास्टर जी को सजा हुई तो विद्यालय का नाम भी खराब होगा, अतः उन्होंने लड़की के पिता वर्मा जी को समझाने का प्रयास किया। लड़की ने भी अपने पिता को पुलिस केस करने से मना किया तथा पत्नी ने भी समझाया कि उन्हें मास्टर जी की स्थिति को समझना चाहिए, वो गुरु हैं अगर बच्चे को थोड़ी सजा दे भी दी तो उसकी भलाई के लिए ही किया होगा, उन्हें केस वापस ले लेना चाहिए। परंतु मि० वर्मा ने अपनी पत्नी को डाँटकर चुप करवा दिया।
विद्यालय की दो-तीन और अध्यापिकाओं के पति पुलिस विभाग में ही उच्च पदों पर कार्यरत हैं, विद्यालय के संस्थापक के कहने से उनके द्वारा भी सोर्स लगाए गए और इंस्पेक्टर और सब-इंस्पेक्टर ने भी वर्मा जी को समझाने का प्रयास किया पर मजाल है जो महाशय टस से मस हो जाते।
शाम के पाँच बज चुके थे, एस. एच. ओ. ने थाने में प्रवेश किया, एक कोने में कुर्सी पर बैठे मास्टर जी की आँखों में उम्मीद की किरणें फिर जगमगा उठीं। उसने मास्टर जी को अपने पास बुलाया और उन्हें ढाढस बँधाया कि वह चिंता न करें वह लड़की के पिता को समझाएँगे और उसे समझना ही होगा, आखिर गुरु हैं आप! ऐसे कैसे एक थप्पड़ मार देने की वजह से आपका नाम और करियर खराब होने देंगे! आप फिक्र न करें आराम से बैठिए। मास्टर जी को एस.एच.ओ. की बातों से बड़ी तसल्ली मिली कुछ हद तक वह आशान्वित होकर चिंता को स्वयं के मस्तिष्क से दूर झटककर बैठ गए परंतु छठी इंद्रिय अभी भी अशुभ संकेत ही दे रही थी।
मास्टर जी को थाने में बैठे हुए लगभग छः घंटे हो चुके थे, रात्रि के आठ बज चुके थे। दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था। हत्या का आरोपी भी उतना बड़ा अपराधी घोषित नहीं होता होगा जितने बड़े अपराधी मास्टर जी बना दिए गए थे या फिर ऐसा भी हो सकता है कि शरीफों की शराफत को जब बेपर्दा किया जाता है तो वह बेहद अपमानित महसूस करते हैं किंतु जो पहले से बेपरदा हो उसे क्या फर्क पड़ेगा? यही अंतर इस समय मास्टर जी और पेशेवर अपराधी में था। थाने में बैठे हुए वह हर आने-जाने वाले को उम्मीदभरी नजरों से देखते और थोड़ी ही देर में वही नजरें बेउम्मीद होकर वापस लौट आतीं।
थाने में विद्यालय के मैनेजर मि० सोमानी ने प्रवेश किया तथा एस.एच.ओ. से हाथ मिलाकर मेज के सामने कुर्सी पर बैठ गए। तभी लड़की के पिता मि० वर्मा भी आ पहुँचे। वह भी बैठे और सभी की आपस में बातें होने लगीं। मास्टर जी को भी बुलाया गया, उनकी आँखों में आशा की चमक दिखाई दी। मास्टर जी ने मि० वर्मा से केस वापस लेने का अनुरोध किया पर वह नहीं माने तब एस. एच. ओ. ने उन्हें बहुत समझाया कि यह आपकी बेटी के गुरु हैं, गलती होने पर सजा देने का अधिकार भी रखते हैं फिरभी यदि वह चाहें तो उन्हें मास्टर जी से माफीनामा भी लिखवाकर दे देते हैं पर उन्हें केस वापस ले लेना चाहिए। इतना सुनकर तो मि० वर्मा भड़क गए और मीडिया बुलाने की धमकी देते हुए बोले कि वह मीडिया को बताएँगे कि थाने में एस.एच.ओ व अन्य सभी उन्हें धमका कर केस वापस लेने की बात कर रहे हैं। सभी चुप हो गए किसी ने इस विषय में आगे कुछ भी न बोलना ही उचित समझा। मि० वर्मा के जाने के बाद एस.एच.ओ. ने मि० सोमानी से कहा कि यह व्यक्ति लालची है, जब तक उसे पैसे नहीं मिलेंगे वह ऐसे ही अड़ा रहेगा, उसे पता है कि आप के स्कूल का नाम और मास्टर जी का करियर दाँव पर है और आप अपने स्कूल का नाम नहीं खराब होने देंगे।
यह बात मास्टर जी के कानों में पड़ते ही उन्हें ऐसा लगा मानों वह गश खाकर गिर पड़ेंगे। उन्हें पता है स्कूल तो अपनी छवि पर दाग नहीं आने देगा, पैसे देकर भी वेबसाइट से फोटो हटवा देगा लेकिन उनके पास तो इतने पैसे नहीं हैं, वह क्या करेंगे... कैसे निकलें इन सब से बाहर...
अब उन्हें अपना करियर खत्म होता नजर आ रहा था, उनके नाम पर अब ऐसा धब्बा लगेगा कि उन्हें कोई भी विद्यालय नौकरी नहीं देगा। इंसान अपनी बेइज्जती बर्दाश्त भी कर ले, अभावों में भी जीने का प्रयास कर ले परंतु अपने परिवार का क्या करे? कैसे नजर मिलाएँगे अपने बच्चों से...पत्नी को क्या जवाब देंगे? क्यों नहीं सतर्क थे वो... आखिर न उठाते हाथ, तो क्या हो जाता.... पर अब क्या करें... अब तो वह मान नहीं रहा....सभी समझाकर हार मान चुके हैं....अब मेरे बच्चों का तो भविष्य खराब हो जाएगा...ऐसे ही न जाने कितने भाव मास्टर जी के मन में आ-जा रहे थे। उनके भीतर द्वंद्व चल रहा था, वह कभी बैठ जाते कभी खड़े होकर टहलने लगते, न जाने कैसे-कैसे सवाल उठेंगे लोगों के मन में उनके लिए.... अगर अब वह यहाँ से बाहर आ भी गए तो क्या कोई उनका सम्मान करेगा...क्या अब वह पहले की भाँति बच्चों के वही प्यारे संगीत अध्यापक बने रह पाएँगे....क्या किसी बच्चे की गलती पर वो उसे डाँट सकेंगे...सभी हिकारत की नजरों से देखेंगे उन्हें...ऐसे सम्मान हीन जीवन का वह क्या करेंगे? जिंदगी भले छोटी हो पर सिर उठाकर चलने योग्य हो, हिकारत भरी जिंदगी होने से न होनी भली है।
मास्टर जी के घर के बाहर लोगों की भीड़ लगी हुई थी, लोगों को जैसे-जैसे खबर मिलती जा रही थी वे आते जा रहे थे। भीतर हॉल में परिजनों का क्रंदन वातावरण को बेहद मार्मिक बना रहा था। आज सभी की जबान पर मास्टर जी की विनम्रता की कहानी थी। मि० सोमानी एक ओर चुपचाप सिर झुकाए गमगीन मुद्रा में बैठे थे कुछ अध्यापिकाएँ भी बैठी हुई थीं, सभी की आँखें बरस रही थीं।
"बहुत अच्छे इंसान थे लेकिन ये मास्टरी की नौकरी ने उनकी जान ली।" किसी की आवाज आई।
"शर्मिंदगी ने मास्टर जी की जान ले ली, बहुत स्वाभिमानी थे, बेचारे अकारण ही गिरफ्तार किए जाने का अपमान बर्दाश्त न कर सके।" मिसेज शर्मा अपने आँसू पोछती हुई बोलीं।
"ये आत्महत्या नहीं इसे हत्या कहेंगे, एक मास्टर को जान देने पर मजबूर किया गया है। जो भी जिम्मेदार है हम उसे छोड़ेगे नहीं, चाहे हमें अब कुछ भी करना पड़े।" अत्यंत दुख और क्रोध से चड्ढा जी का पूरा शरीर काँप रहा था।
"किसे नहीं छोड़ेंगे चड्ढा जी, किसको मास्टर जी की मौत का जिम्मेदार ठहराएँगे? लड़की के लालची बाप को! पुलिस वालों को या विद्यालय वालों को?" मि० मल्होत्रा ने गमगीन मुद्रा में कहा।
"एक थप्पड़ ही तो मारा था, क्या उस निर्दयी इंसान ने कभी नहीं मारा होगा अपनी बेटी को? गुरु का एक थप्पड़ नही बर्दाश्त हुआ उससे!" पड़ोस में रहने वाली मिसेज देसाई बोलीं।
"उस एक इंसान की वजह से एक परिवार उजड़ गया अब किसी पर इल्जाम लगाने से तो गया हुआ इंसान वापस आने से रहा।" मृत शरीर के पास ही बैठीं मिसेज मल्होत्रा बोलीं।
स्कूल वालों ने भी अति कर रखी थी, बारह-पंद्रह सौ बच्चों में संगीत और नृत्य के एक ही अध्यापक थे मास्टर जी। कैसे संभालते होंगे, ये बेचारे इन्हीं का दिल जानता होगा, इतने बच्चों में हमेशा कभी जिला-स्तर पर कभी राज्य स्तर पर प्रतियोगिताओं की तैयारी अकेले करवाते थे और स्कूल को जितवाते भी थे।" वहाँ बैठे एक महाशय बोले जो शायद मास्टर जी के किसी विद्यार्धी के पिता थे।
"ऐसे में तो अच्छा-भला इंसान पागल हो जाए, मास्टर जी को जरा सा गुस्सा आ गया तो क्या गलत हो गया!" दूसरी महिला बोली।
"उस लड़की के मुए बाप ने एक थप्पड़ के लिए इन्हें हवालात भिजवा दिया, उसकी वजह से तो इनकी जान ही चली गई, अब उसको छोड़ना नहीं चाहिए।" वहीं खड़े पड़ोसी मि० देसाई बोले।
"वो तो ठीक है भाई पर स्कूल वालों को भी क्यों भूल रहे हो! चार-पाँच अध्यापक का काम अकेले मास्टर जी से करवा रहे थे, शोषण कर रहे थे शोषण, नहीं तो अगर कोई और अध्यापक मास्टर जी की मदद को होता तो न उन्हें गुस्सा आता और न हाथ उठाते, तो ये सब कुछ नहीं होता।" मि० मल्होत्रा ने कहा।
"अरे भाई साहब! पुलिस वालों की क्या कम गलती है, ऐसे कैसे उनकी हिरासत में एक आदमी ने फाँसी लगा लिया और उन्हें पता ही नहीं चला! केस तो उनके खिलाफ भी बनता है, जिम्मेदार तो वो भी बराबर हैं।" मि० शर्मा बोले।
"अब तो जो होना था हो गया अब किसी को भी जिम्मेदार ठहराने से मास्टर जी तो वापस आने से रहे। अब अंतिम यात्रा की तैयारी करिए।" एक बुजुर्ग जो मास्टर जी के दूर के रिश्तेदार थे, उन्होंने कहा।
"ऐसे कैसे जो होना था हो गया! क्या यही होना था कि एक मास्टर को बिना बात शर्मिंदगी के कारण आत्महत्या करनी पड़े? ये तो नहीं होना चाहिए था, ये कहिए जो नहीं होना था, वह हो गया। दो छोटे-छोटे बच्चे अनाथ हो गए, पत्नी असमय ही विधवा हो गई, ये नहीं होना था। ये सब एक सनकी इंसान की सनक के कारण हुआ है, उसे इसकी सजा मिलनी चाहिए।" मि० शर्मा के बीस वर्षीय बेटे ने जो अभी-अभी आया था, कहा।
"अब किस-किस को दोष दें हम, क्या सरकार की गलती नहीं है जिसने ऐसा कानून बनाया कि अपना खून-पसीना जलाकर पढ़ाने वाला अध्यापक बच्चे को कुछ कह ही नहीं सकता! मेरे पति को चिता तक पहुँचाने में सभी ने अपने हिस्से का लकड़ी जोड़ी है, भगवान किसी को माफ नहीं करेगा।" मास्टर जी की पत्नी बिलखती हुई बोलीं।
"सबको अपनी गलती सुधारनी होगी चाहे वो लड़की का पिता हो या सिस्टम। जब तक मास्टर जी को न्याय नहीं मिलता तब तक उनका अंतिम संस्कार नहीं करेंगे। हमे मास्टर जी को न्याय दिलाना ही होगा।" मि० चड्ढा बोले।
"मास्टर जी आपने बड़े ही कष्ट में अपने प्राण त्यागे हैं पर अब आपको हम न्याय दिलवाकर ही रहेंगे। चलिए भाइयों मास्टर जी के पार्थिव शरीर को लेकर चलते हैं पहले हम न्याय की माँग करेंगे तत्पश्चात ही अंतिम संस्कार करेंगे।" मि० शर्मा का बेटा मास्टर जी के मुँह को कपड़े से ढकते हुए बोला।
"चलिए मास्टर जी उठिए अब आप आरोप मुक्त हो चुके हैं।" हवलदार ने मास्टर जी के चेहरे से उनका ही हाथ हटाते हुए कहा।
मास्टर जी अचकचा कर उठ बैठे, "य्ये क्या मैं जीवित हूँ!" वो स्वयं से बड़बड़ाए। पर हवलदार ने सुन लिया।
"जीवित क्यों नहीं होंगे, अरे मास्टर जी कोई बुरा सपना देखा क्या?" उसने कहा।
"ह् हहाँ कहते हुए मास्टर जी ने खड़े होकर अपने कपड़े झाड़कर दुरुस्त करते हुए इधर-उधर देखा तो खुद को हवालात में ही पाया और सामने उनकी पत्नी और मि० सोमानी खड़े थे जो उन्हें लेने आए थे। मि० सोमानी ने बताया कि पचास हजार रुपए लेकर मि० वर्मा ने केस वापस ले लिया। यह सुबह मास्टर जी के लिए नया जीवन बनकर आया था।
चित्र- साभार..गूगल
©मालती मिश्रा 'मयंती'✍️
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पाँचवें पीरियड की समाप्ति की घंटी बजी, घंटी की आवाज सुनते ही विद्यार्धी अध्यापिकाओं की उपस्थिति भूलकर आपस में जोर-जोर से बातें करने लगे और पुस्तक बंद कर दिया। सभी अध्यापिकाएँ भी अपनी-अपनी फाइल, पुस्तक आदि उठाकर दूसरी कक्षाओं में जाने के लिए निकल गईं। छठा पीरियड शुरू हो चुका था, यह आखिरी पीरियड था। सुबह से पढ़ते-पढ़ते बच्चे अब तक मानसिक रूप से थक चुके थे ऐसे में यह अंतिम पीरियड भी पढ़ना उन्हें बहुत नागवार गुजरता है परंतु पढ़ना तो पड़ेगा। शिक्षक वर्ग के लिए भी यह कहाँ आसान होता है सुबह से एक कक्षा से दूसरी कक्षा दूसरी से तीसरी भाग रहे हैं और हर कक्षा में जाकर चालीस से पचास विद्यार्धी को पहले तो चुप कराना और फिर उनको पढ़ाना। सुबह आठ बजे से दोपहर डेढ़-दो बजे तक लगातार पूरे दबाव के साथ इतना तेज बोलते रहना कि कक्षा के आखिरी छोर तक के विद्यार्धी को साफ-साफ सुनाई दे, यह भी कहाँ आसान था, परंतु शिक्षक की नौकरी और नौकरी की जिम्मेदारी है तो किसी अन्य से तो क्या स्वयं से भी शिकायत नहीं कर सकते।
संगीत और नृत्य के अध्यापक अमरेंद्र सेन ने घंटी की आवाज सुनते ही नृत्य का अभ्यास कर रहे बच्चों को उनकी कक्षाओं में जाने का आदेश दिया। उनका यह पीरियड कक्षा सातवीं -ई में था, उन्हें पता था कि कक्षा में बच्चों ने आसमान सिर पर उठा रखा होगा। बच्चे तो बच्चे हैं पसंदीद विषय न होने पर अध्यापक की अनुमति बिना ही किताबें बंद हो जाती हैं किंतु नृत्य या संगीत जैसा विषय हो तो अध्यापक के कहने के बाद भी नहीं छोड़ना चाहते।
अमरेंद्र सेन बच्चों को वहाँ से भेजकर संगीतकक्ष को बंद करके लंबे-लंबे डग भरते हुए कक्षा में आए तो कक्षा की हालत देखकर दंग रह गए। कुछ बच्चे श्यामपट के पास खड़े थे तो कुछ बच्चे स्मार्ट बोर्ड के पास एक दूसरे को धकेल रहे थे। कक्षा के लगभच सभी बच्चे खड़े थे। दो-चार बच्चे बेंचों के ऊपर से भाग रहे थे। कक्षा के प्रवेश द्वार के पास रखे हुए डायस के पास ही तीन-चार बच्चे खड़े थे। मास्टर अमरेंद्र कक्षा में पहुँचते ही वहाँ का दृश्य देख आपे से बाहर हो गए और आव देखा न ताव वहाँ खड़े एक बच्चे को एक थप्पड़ रसीद कर दिया। यह देखते ही सभी बच्चे भाग कर अपनी-अपनी सीट पर बैठ गए। वैसे संगीत और नृत्य के अकेले अध्यापक होने के नाते और उनके विनम्र व मजाकिया स्वभाव के कारण सभी बच्चे उनका सम्मान करते और उनकी बात मानते थे लेकिन इस समय उनसे एक चूक हो गई बच्चों की भीड़ और उस बच्चे के ब्वॉय कट बालों की वजह से वह जान नहीं पाए कि उन्होंने जिस बच्चे को थप्पड़ मारा वह लड़की है। वैसे तो 'बेटा-बेटी एक समान' का नारा बहुत अच्छा लगता है किन्तु जहाँ समानता में कठिनाई या नुकसान और असमानता में सहजता या लाभ नजर आए वहाँ असमान रहना ही उचित माना जाता है, चाहे वह बसों और रेलगाड़ियों में सीटों के आरक्षण की बात हो या शारीरिक परिश्रम से राहत की बात हो या फिर पढ़ाई या नौकरी में महिलाओं के लिए आरक्षण आदि की बात हो, वहाँ महिलाओं को बराबरी नहीं चाहिए। ऐसा ही एक क्षेत्र है कक्षा, कक्षा में सभी विद्यार्थी समान है परंतु लड़कियों को उस तरह से नहीं डाँट सकते जैसे लड़कों को। खैर! उन्होंने एक लड़की को थप्पड़ मारा है, इस बात से बेखबर मास्टर जी ने डाँट-डपट कर बच्चों को बैठाया और फिर उन्हें अनुशासन में रहने की सीख देने लगे। आखिरी पीरियड होने के बाद भी बच्चे शांति से उनकी बातें सुन रहे थे क्योंकि वे उन्हें नाराज करके संगीत व नृत्य में अपने चुने जाने के अवसर को नहीं खोना चाहते थे। छुट्टी की घंटी बज गई, मास्टर साहब को सीढ़ियों के पास ड्यूटी देने जाना था इसलिए उन्होंने पहले इसी कक्षा के बच्चों की लाइन बनवाई और उन्हें भेजकर स्वयं ड्यूटी देने चले गए।
दोपहर के दो बजकर बीस मिनट हो रहे थे, सभी अध्यापिकाएँ जल्दी-जल्दी अपना कार्य खतम करने में व्यस्त थीं ताकि ढाई बजे घर के लिए निकल सकें। मास्टर अमरेंद्र सेन को ऑफिस में बुलाया गया। वह प्रधानाचार्या के ऑफिस में पहुँचे, प्रवेशद्वार पर पहुँचते ही उन्होंने उनकी ओर पीठ करके बैठे दो पुलिस वालों को देखा पर वह कारण से अनभिज्ञ थे। अनुमति लेकर वह ऑफिस के भीतर आए।
प्रधानाचार्या ने जलते हुए नेत्रों से उनकी ओर इस प्रकार देखा मानों आँखों ही आँखों से उन्हें वहीं खड़े-खड़े भस्म कर देंगीं, पर बोलीं कुछ नहीं।
वहाँ उपस्थित मैनेजर मि० सोमानी ने बताया कि आज छठे पीरियड में मास्टर जी ने जिस लड़की को थप्पड़ मारा था उसके पिता ने उनके खिलाफ एफ.आई.आर. करवाया है कि उन्होंने उनकी बेटी को इतनी जोर से मारा कि उसका गाल सूज गया है, इसीलिए पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने के लिए आई है। और इतना ही नहीं उसके पिता ने लड़की के सूजे हुए गाल की फोटो खींचकर स्कूल की वेबसाइट पर तथा सोशल मीडिया पर भी डाल दिया है ताकि अन्य अभिभावकों का और जनता का समर्थन पा सके।
मास्टर जी के तो पैरों तले धरती ही खिसक गई, उन्होंने प्रधानाचार्या तथा लड़की के पिता को अपनी स्थिति स्पष्ट करने कोशिश की, उन्हें कितना समझाया कि कक्षा का दृश्य उस समय बेहद डरावना था, बच्चों को रोकने के लिए उन्हें हाथ उठाना पड़ा और उस समय लड़की के छोटे बालों और लड़कों जैसे कपड़ों की वजह से वह यह भी नहीं जान पाए थे कि वह लड़की है। इस तरह की न जाने कितनी दलीलें देकर मास्टर साहब ने उन्हें समझाने का प्रयास किया परंतु लड़की का पिता अपनी जिद पर अड़ा रहा और उन्हें गिरफ्तार करवाकर ही माना।
विद्यालय के मालिक कोई छोटी हस्ती नहीं थे, उनका विद्यालय नामचीन विद्यालयों में से एक है और इसकी चार अन्य शाखाएँ भी हैं। राजनीति से भी अछूते नहीं हैं, नेताओं के बीच उठना-बैठना उनकी पहुँच को बढ़ा देता है। वह जानते थे कि यदि मास्टर जी को सजा हुई तो विद्यालय का नाम भी खराब होगा, अतः उन्होंने लड़की के पिता वर्मा जी को समझाने का प्रयास किया। लड़की ने भी अपने पिता को पुलिस केस करने से मना किया तथा पत्नी ने भी समझाया कि उन्हें मास्टर जी की स्थिति को समझना चाहिए, वो गुरु हैं अगर बच्चे को थोड़ी सजा दे भी दी तो उसकी भलाई के लिए ही किया होगा, उन्हें केस वापस ले लेना चाहिए। परंतु मि० वर्मा ने अपनी पत्नी को डाँटकर चुप करवा दिया।
विद्यालय की दो-तीन और अध्यापिकाओं के पति पुलिस विभाग में ही उच्च पदों पर कार्यरत हैं, विद्यालय के संस्थापक के कहने से उनके द्वारा भी सोर्स लगाए गए और इंस्पेक्टर और सब-इंस्पेक्टर ने भी वर्मा जी को समझाने का प्रयास किया पर मजाल है जो महाशय टस से मस हो जाते।
शाम के पाँच बज चुके थे, एस. एच. ओ. ने थाने में प्रवेश किया, एक कोने में कुर्सी पर बैठे मास्टर जी की आँखों में उम्मीद की किरणें फिर जगमगा उठीं। उसने मास्टर जी को अपने पास बुलाया और उन्हें ढाढस बँधाया कि वह चिंता न करें वह लड़की के पिता को समझाएँगे और उसे समझना ही होगा, आखिर गुरु हैं आप! ऐसे कैसे एक थप्पड़ मार देने की वजह से आपका नाम और करियर खराब होने देंगे! आप फिक्र न करें आराम से बैठिए। मास्टर जी को एस.एच.ओ. की बातों से बड़ी तसल्ली मिली कुछ हद तक वह आशान्वित होकर चिंता को स्वयं के मस्तिष्क से दूर झटककर बैठ गए परंतु छठी इंद्रिय अभी भी अशुभ संकेत ही दे रही थी।
मास्टर जी को थाने में बैठे हुए लगभग छः घंटे हो चुके थे, रात्रि के आठ बज चुके थे। दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था। हत्या का आरोपी भी उतना बड़ा अपराधी घोषित नहीं होता होगा जितने बड़े अपराधी मास्टर जी बना दिए गए थे या फिर ऐसा भी हो सकता है कि शरीफों की शराफत को जब बेपर्दा किया जाता है तो वह बेहद अपमानित महसूस करते हैं किंतु जो पहले से बेपरदा हो उसे क्या फर्क पड़ेगा? यही अंतर इस समय मास्टर जी और पेशेवर अपराधी में था। थाने में बैठे हुए वह हर आने-जाने वाले को उम्मीदभरी नजरों से देखते और थोड़ी ही देर में वही नजरें बेउम्मीद होकर वापस लौट आतीं।
थाने में विद्यालय के मैनेजर मि० सोमानी ने प्रवेश किया तथा एस.एच.ओ. से हाथ मिलाकर मेज के सामने कुर्सी पर बैठ गए। तभी लड़की के पिता मि० वर्मा भी आ पहुँचे। वह भी बैठे और सभी की आपस में बातें होने लगीं। मास्टर जी को भी बुलाया गया, उनकी आँखों में आशा की चमक दिखाई दी। मास्टर जी ने मि० वर्मा से केस वापस लेने का अनुरोध किया पर वह नहीं माने तब एस. एच. ओ. ने उन्हें बहुत समझाया कि यह आपकी बेटी के गुरु हैं, गलती होने पर सजा देने का अधिकार भी रखते हैं फिरभी यदि वह चाहें तो उन्हें मास्टर जी से माफीनामा भी लिखवाकर दे देते हैं पर उन्हें केस वापस ले लेना चाहिए। इतना सुनकर तो मि० वर्मा भड़क गए और मीडिया बुलाने की धमकी देते हुए बोले कि वह मीडिया को बताएँगे कि थाने में एस.एच.ओ व अन्य सभी उन्हें धमका कर केस वापस लेने की बात कर रहे हैं। सभी चुप हो गए किसी ने इस विषय में आगे कुछ भी न बोलना ही उचित समझा। मि० वर्मा के जाने के बाद एस.एच.ओ. ने मि० सोमानी से कहा कि यह व्यक्ति लालची है, जब तक उसे पैसे नहीं मिलेंगे वह ऐसे ही अड़ा रहेगा, उसे पता है कि आप के स्कूल का नाम और मास्टर जी का करियर दाँव पर है और आप अपने स्कूल का नाम नहीं खराब होने देंगे।
यह बात मास्टर जी के कानों में पड़ते ही उन्हें ऐसा लगा मानों वह गश खाकर गिर पड़ेंगे। उन्हें पता है स्कूल तो अपनी छवि पर दाग नहीं आने देगा, पैसे देकर भी वेबसाइट से फोटो हटवा देगा लेकिन उनके पास तो इतने पैसे नहीं हैं, वह क्या करेंगे... कैसे निकलें इन सब से बाहर...
अब उन्हें अपना करियर खत्म होता नजर आ रहा था, उनके नाम पर अब ऐसा धब्बा लगेगा कि उन्हें कोई भी विद्यालय नौकरी नहीं देगा। इंसान अपनी बेइज्जती बर्दाश्त भी कर ले, अभावों में भी जीने का प्रयास कर ले परंतु अपने परिवार का क्या करे? कैसे नजर मिलाएँगे अपने बच्चों से...पत्नी को क्या जवाब देंगे? क्यों नहीं सतर्क थे वो... आखिर न उठाते हाथ, तो क्या हो जाता.... पर अब क्या करें... अब तो वह मान नहीं रहा....सभी समझाकर हार मान चुके हैं....अब मेरे बच्चों का तो भविष्य खराब हो जाएगा...ऐसे ही न जाने कितने भाव मास्टर जी के मन में आ-जा रहे थे। उनके भीतर द्वंद्व चल रहा था, वह कभी बैठ जाते कभी खड़े होकर टहलने लगते, न जाने कैसे-कैसे सवाल उठेंगे लोगों के मन में उनके लिए.... अगर अब वह यहाँ से बाहर आ भी गए तो क्या कोई उनका सम्मान करेगा...क्या अब वह पहले की भाँति बच्चों के वही प्यारे संगीत अध्यापक बने रह पाएँगे....क्या किसी बच्चे की गलती पर वो उसे डाँट सकेंगे...सभी हिकारत की नजरों से देखेंगे उन्हें...ऐसे सम्मान हीन जीवन का वह क्या करेंगे? जिंदगी भले छोटी हो पर सिर उठाकर चलने योग्य हो, हिकारत भरी जिंदगी होने से न होनी भली है।
मास्टर जी के घर के बाहर लोगों की भीड़ लगी हुई थी, लोगों को जैसे-जैसे खबर मिलती जा रही थी वे आते जा रहे थे। भीतर हॉल में परिजनों का क्रंदन वातावरण को बेहद मार्मिक बना रहा था। आज सभी की जबान पर मास्टर जी की विनम्रता की कहानी थी। मि० सोमानी एक ओर चुपचाप सिर झुकाए गमगीन मुद्रा में बैठे थे कुछ अध्यापिकाएँ भी बैठी हुई थीं, सभी की आँखें बरस रही थीं।
"बहुत अच्छे इंसान थे लेकिन ये मास्टरी की नौकरी ने उनकी जान ली।" किसी की आवाज आई।
"शर्मिंदगी ने मास्टर जी की जान ले ली, बहुत स्वाभिमानी थे, बेचारे अकारण ही गिरफ्तार किए जाने का अपमान बर्दाश्त न कर सके।" मिसेज शर्मा अपने आँसू पोछती हुई बोलीं।
"ये आत्महत्या नहीं इसे हत्या कहेंगे, एक मास्टर को जान देने पर मजबूर किया गया है। जो भी जिम्मेदार है हम उसे छोड़ेगे नहीं, चाहे हमें अब कुछ भी करना पड़े।" अत्यंत दुख और क्रोध से चड्ढा जी का पूरा शरीर काँप रहा था।
"किसे नहीं छोड़ेंगे चड्ढा जी, किसको मास्टर जी की मौत का जिम्मेदार ठहराएँगे? लड़की के लालची बाप को! पुलिस वालों को या विद्यालय वालों को?" मि० मल्होत्रा ने गमगीन मुद्रा में कहा।
"एक थप्पड़ ही तो मारा था, क्या उस निर्दयी इंसान ने कभी नहीं मारा होगा अपनी बेटी को? गुरु का एक थप्पड़ नही बर्दाश्त हुआ उससे!" पड़ोस में रहने वाली मिसेज देसाई बोलीं।
"उस एक इंसान की वजह से एक परिवार उजड़ गया अब किसी पर इल्जाम लगाने से तो गया हुआ इंसान वापस आने से रहा।" मृत शरीर के पास ही बैठीं मिसेज मल्होत्रा बोलीं।
स्कूल वालों ने भी अति कर रखी थी, बारह-पंद्रह सौ बच्चों में संगीत और नृत्य के एक ही अध्यापक थे मास्टर जी। कैसे संभालते होंगे, ये बेचारे इन्हीं का दिल जानता होगा, इतने बच्चों में हमेशा कभी जिला-स्तर पर कभी राज्य स्तर पर प्रतियोगिताओं की तैयारी अकेले करवाते थे और स्कूल को जितवाते भी थे।" वहाँ बैठे एक महाशय बोले जो शायद मास्टर जी के किसी विद्यार्धी के पिता थे।
"ऐसे में तो अच्छा-भला इंसान पागल हो जाए, मास्टर जी को जरा सा गुस्सा आ गया तो क्या गलत हो गया!" दूसरी महिला बोली।
"उस लड़की के मुए बाप ने एक थप्पड़ के लिए इन्हें हवालात भिजवा दिया, उसकी वजह से तो इनकी जान ही चली गई, अब उसको छोड़ना नहीं चाहिए।" वहीं खड़े पड़ोसी मि० देसाई बोले।
"वो तो ठीक है भाई पर स्कूल वालों को भी क्यों भूल रहे हो! चार-पाँच अध्यापक का काम अकेले मास्टर जी से करवा रहे थे, शोषण कर रहे थे शोषण, नहीं तो अगर कोई और अध्यापक मास्टर जी की मदद को होता तो न उन्हें गुस्सा आता और न हाथ उठाते, तो ये सब कुछ नहीं होता।" मि० मल्होत्रा ने कहा।
"अरे भाई साहब! पुलिस वालों की क्या कम गलती है, ऐसे कैसे उनकी हिरासत में एक आदमी ने फाँसी लगा लिया और उन्हें पता ही नहीं चला! केस तो उनके खिलाफ भी बनता है, जिम्मेदार तो वो भी बराबर हैं।" मि० शर्मा बोले।
"अब तो जो होना था हो गया अब किसी को भी जिम्मेदार ठहराने से मास्टर जी तो वापस आने से रहे। अब अंतिम यात्रा की तैयारी करिए।" एक बुजुर्ग जो मास्टर जी के दूर के रिश्तेदार थे, उन्होंने कहा।
"ऐसे कैसे जो होना था हो गया! क्या यही होना था कि एक मास्टर को बिना बात शर्मिंदगी के कारण आत्महत्या करनी पड़े? ये तो नहीं होना चाहिए था, ये कहिए जो नहीं होना था, वह हो गया। दो छोटे-छोटे बच्चे अनाथ हो गए, पत्नी असमय ही विधवा हो गई, ये नहीं होना था। ये सब एक सनकी इंसान की सनक के कारण हुआ है, उसे इसकी सजा मिलनी चाहिए।" मि० शर्मा के बीस वर्षीय बेटे ने जो अभी-अभी आया था, कहा।
"अब किस-किस को दोष दें हम, क्या सरकार की गलती नहीं है जिसने ऐसा कानून बनाया कि अपना खून-पसीना जलाकर पढ़ाने वाला अध्यापक बच्चे को कुछ कह ही नहीं सकता! मेरे पति को चिता तक पहुँचाने में सभी ने अपने हिस्से का लकड़ी जोड़ी है, भगवान किसी को माफ नहीं करेगा।" मास्टर जी की पत्नी बिलखती हुई बोलीं।
"सबको अपनी गलती सुधारनी होगी चाहे वो लड़की का पिता हो या सिस्टम। जब तक मास्टर जी को न्याय नहीं मिलता तब तक उनका अंतिम संस्कार नहीं करेंगे। हमे मास्टर जी को न्याय दिलाना ही होगा।" मि० चड्ढा बोले।
"मास्टर जी आपने बड़े ही कष्ट में अपने प्राण त्यागे हैं पर अब आपको हम न्याय दिलवाकर ही रहेंगे। चलिए भाइयों मास्टर जी के पार्थिव शरीर को लेकर चलते हैं पहले हम न्याय की माँग करेंगे तत्पश्चात ही अंतिम संस्कार करेंगे।" मि० शर्मा का बेटा मास्टर जी के मुँह को कपड़े से ढकते हुए बोला।
"चलिए मास्टर जी उठिए अब आप आरोप मुक्त हो चुके हैं।" हवलदार ने मास्टर जी के चेहरे से उनका ही हाथ हटाते हुए कहा।
मास्टर जी अचकचा कर उठ बैठे, "य्ये क्या मैं जीवित हूँ!" वो स्वयं से बड़बड़ाए। पर हवलदार ने सुन लिया।
"जीवित क्यों नहीं होंगे, अरे मास्टर जी कोई बुरा सपना देखा क्या?" उसने कहा।
"ह् हहाँ कहते हुए मास्टर जी ने खड़े होकर अपने कपड़े झाड़कर दुरुस्त करते हुए इधर-उधर देखा तो खुद को हवालात में ही पाया और सामने उनकी पत्नी और मि० सोमानी खड़े थे जो उन्हें लेने आए थे। मि० सोमानी ने बताया कि पचास हजार रुपए लेकर मि० वर्मा ने केस वापस ले लिया। यह सुबह मास्टर जी के लिए नया जीवन बनकर आया था।
चित्र- साभार..गूगल
©मालती मिश्रा 'मयंती'✍️
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जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (07-10-2019) को " सनकी मंत्री " (चर्चा अंक- 3481) पर भी होगी।
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रवीन्द्र सिंह यादव
मेरी रचना को मान देने और मुझे सूचित करने के लिए आभार आदरणीय
हटाएंसामायिक विषय पर बहुत सुंदर और सार्थक कहानी जो बहुत से मुद्दों पर दृष्टि डालती है, साथ ही आज के अध्यापक वर्ग की मजबूरी को उजागर करती है, और पढ़ाती है संयम और विवेक का पाठ, हर क्षेत्र में विवेक से काम लेना सर्वोपरी है ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति।
आपकी विस्तृत, गहन और सार्थक प्रतिक्रिया पाकर मेरा लेखन ऊर्जस्वित हुआ आदरणीया
हटाएंमीता मैं कुसुम कोठारी ( मन की वीणा)
हटाएं😀 अरे वाह आप मेरे ब्लाग पर आपको देखकर खुशी हुई
हटाएंप्राइवेट स्कूलों के शिक्षकों के साथ ऐसे वाकये होते रहते हैं। कहानी सच का आईना है। मैं बच्चों पर हाथ उठाने के पक्ष में बिल्कुल नहीं हूँ पर आजकल बच्चों में संस्कारों की कमी है। जंगली सा व्यवहार करनेवाले पचास साठ बच्चों को सँभालना, नियंत्रण करना, साथ साथ पढ़ाना भी होता है। हम शिक्षक करें तो क्या करें ?
जवाब देंहटाएंसत्य कहा आपने, आजकल शिक्षक कई तरफ से एक साथ पिसता है।
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