सिनेमा का हमारे देश को योगदान
एक समय था जब शिक्षा को मानवीय विकास का आधार माना जाता था, लोग धार्मिक पुस्तकें पढ़ते थे, वेद और पुराण पढ़ते थे, दन्त कथाएँ पढ़ते थे और उनके द्वारा अपनी संस्कृति और परंपराओं से परिचित होते थे। तब लोगों में छोटे-बड़े के प्रति प्रेम और सम्मान भी होता था। पाश्चात्य संस्कृति के साथ-साथ बॉलीवुड का बोलबाला हुआ और युवा ही नहीं प्रौढ़ भी इसकी ओर आकर्षित हुए और अब तो लत लग चुकी है किन्तु यह कुछ दिनों में नहीं हुआ बल्कि पतन की इस स्थिति तक पहुँचने में दशकों का समय लग गया। अन्यथा जैसी अश्लीलता आज परोसी जा रही है उसका पचास प्रतिशत भी पहले के सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं था। पहले कोई अभिनेत्री यदि फिल्म में किसी अभिनेता को राखी बाँधती थी तो वह किसी अन्य फिल्म में भी उसकी नायिका का अभिनय नहीं करती थी। धार्मिक फिल्में बुजुर्गों को आकर्षित करती थीं तो सामाजिक फिल्में युवाओं को। और धीरे-धीरे इनका स्तर गिरते-गिरते यहाँ तक पहुँचा कि आज अभिनेत्रियाँ अपने वस्त्र उतारने या वस्त्रों को छोटे से छोटा करने के अधिक से अधिक पैसे लेती हैं। सोचने वाली बात है कि आजकल बॉलीवुड समाज को मनोरंजन के नाम पर किस हद तक अश्लीलता परोस रहा है। चारदीवारी के भीतर जो स्त्रियाँ चाहे मजबूरी वश या ऐच्छिक रूप से अपना तन बेचती हैं उनमें और इन अभिनेत्रियों में क्या अंतर है। लेकिन क्या आज सनी लियोनी या उस जैसी अन्य अभिनेत्रियों को उसी नाम से संबोधित करेंगे जिस नाम से इन साधारण स्त्रियों को संबोधित किया जाता है।
एक समय था जब विद्वान और विद्वत्ता का सम्मान होता था किन्तु आज पैसों का सम्मान होता है इसीलिए आजकल बहुत से लोगों को आपत्ति होती है जब नग्नता परोसने वाली अभिनेत्रियों को नंगी कहा जाता है। विचारणीय है कि यदि नंगा होना गलत नहीं है तो नंगा कहा जाना गलत कैसे हो गया, कालिमा को काला ही कहा जाएगा उसे श्वेत नहीं कह सकते। और जो लोग समाज को मानवता को दूषित करने वाले इन हीरो हिरोइनों की तरफदारी करते हैं वो एकबार स्वयं से प्रश्न करें कि क्या वो खुद भी उनके नक्शे-कदम पर सिर उठाकर चल सकते हैं? रही देश को योगदान देने की बात तो वास्तव में इन लोगों का योगदान समाज में दिखाई देता है, राह चलती लड़कियों को देखकर फब्तियाँ कसना, सीटी मारना उन्हें छेड़ना और इकतरफा प्यार में असफल होने पर तेजाबी हमला या कत्ल कर देना ये सब बॉलीवुड का ही योगदान है। आजकल किसी लड़की को देखकर किसी लड़के या पुरुष के मन में बहन-बेटी के भाव नहीं आते क्यों??? और ऐसा नहीं है कि सिर्फ पुरुष वर्ग प्रभावित हुआ है स्त्रियाँ भी कहाँ कम हैं अपना भारतीय परिधान तो कब का त्याग दिया था परंतु अब तो फटे कपड़े पहनकर अंग प्रदर्शन करना इन्हें खूब भाता है। इन्हें बराबर का अधिकार चाहिए परंतु अच्छे कामों में नहीं बल्कि कपड़े पहनने में।
बॉलीवुड युवा पीढ़ी को सिर्फ गुमराह कर रहा है जो लोग कहते हैं कि बॉलीवुड को टारगेट किया जा रहा है वो अभी पिछले दो सालों का इसका रिकॉर्ड देख लें, ड्रग माफिया, सेक्स रैकेट ये सब बॉलीवुड में धड़ल्ले से चलता है और इसका शिकार कौन बनता है हमारा समाज और यही सो कॉल अभिनेत्रियाँ इसके मूल में होती हैं। गाँधी जी की आत्मकथा में पढ़ा था कि उन्होंने एक बार बाइस्कोप में राजा हरिश्चंद्र की कहानी देखा और तभी से उन्होंने सत्य बोलने और मांसाहार न लेने की प्रतिज्ञा कर लिया, सोचिए जब एक बार बाइस्कोप देखकर इतना बड़ा हृदय परिवर्तन हो सकता है तो हमारे समाज के युवा और बच्चे तो रोज-रोज यही अश्लीलता और और अपने देवी-देवताओं का मजाक बनते देख रहे हैं तो उनपर कितना असर हो रहा है।
मैं सिर्फ इतना कहूँगी कि महिला हूँ इसका मतलब यह नहीं कि आजादी और बराबरी के नाम पर कुछ भी चलेगा। सही और ग़लत के पैमाने को पहचानना होगा, महिला होने के नाते महिलाओं का साथ दूँगी लेकिन गलत को ग़लत कहने का अधिकार नहीं छोड़ूँगी।
मालती मिश्रा 'मयंती'✍️
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