ट्रिन...ट्रिन...
फोन के बजने की आवाज आ रही थी पर मैं बाथरूम में थी उठा नही सकती थी, घर पर भी कोई नहीं था जिसे फोन उठाने को कहती....पता नही किसका फोन होगा, क्या पता कोई जरूरी फोन भी हो सकता है...सोचते हुए जल्दबाजी में मेरे हाथ से पानी का मग छूट गया और फोन की घंटी भी बंद हो गई | दस-पंद्रह मिनट में मैं बाथरूम से बाहर आई आते ही सबसे पहले मैं अपने फोन की ओर लपकी और मिस्डकॉल चेक किया कोई अनजान नंबर था |खैर छोड़ो मुझे किसका जरूरी फोन आने लगा?सोचते हुए मैंने फोन टेबल पर रख दिया,
लेकिन पता नही क्यों जैसे किसी के फोन का इंतजार कर रही थी..पर किसका? नहीं जानती | वैसे भी जिसका कोई नहीं होता वो कुछ अधिक ही लोगों को अपना कहने का आदी होता है, शायद ये मन के भीतर की वो अनकही चाह होती है जिसे किसी के साथ साझा नहीं कर सकते या फिर स्वयं को बहलाने का एक निमित मात्र...फिर चाहे भले ही लोग 'थोथा चना बाजे घना' कहकर मेरे पीछे हँसते हों| मेरी दुनिया भी मेरे परिवार तक ही सिमटी हुई है, न कोई रिश्तेदार न ही कोई सखी सहेली, जो भी हैं वो सैकड़ों किलोमीटर दूर हैं जिनसे कभी-कभी फोन पर ही बात हो पाती और जाना तो सालों में हो पाता....मैं तो खुद से ही बातें कर लेती हूँ खुद ही खुशी मना लेती हूँ और कोई दुख हो तो अकेली ही बैठकर रो-धोकर शांत हो लेती हूँ...फिरभी मेरे भीतर का खालीपन मुझे कभी अकेला नहीं छोड़ता, और शायद यही खालीपन मुझे ये उम्मीद नही छोड़ने देता कि मैं अकेली नहीं हूँ | मेरा एक छोटा-सा परिवार तो है, पति और मेरी दो बेटियाँ...और मेरी पूरी दुनिया मेरे छोटे से परिवार के इर्द-गिर्द ही सिमट कर रह गई है...मेरा जीना-मरना सब इन्हीं के लिए है...आज मैंने ऑफिस से छुट्टी ली हुई थी कि घर पर थोड़ा आराम करूँगी, पति के ऑफिस और बच्चों के स्कूल जाने के बाद घर की रोजमर्रा की सफाई बगैरा करके नहाकर नाश्ते की तैयारी करने लगी अचानक फिर से फोन बज उठा मैं जल्दी से बैठक की ओर लपकी और इतनी जल्दबाजी में फोन उठाया कि मेरे हाथ से फोन छूटते-छूटते बचा, मुझे नहीं पता था कि किसका फोन होगा परंतु ऐसा महसूस हो रहा था जैसे मैं इसी का इंतजार कर रही थी मैंने नंबर देखे बिना ही फोन उठा लिया...
हलो...
हलोsss दूसरी तरफ से आवाज आई,
माँ..प्रणाम, कैसी हो आप ? एक पल को ऐसा लगा मेरा इंतजार पूरा हुआ शायद मैं इसी फोन का इंतजार कर रही थी
मैं ठीक हूँ बेटा, बहुत दिनों से तुमने फोन नहीं किया तो चिंता हो रही थी, सब ठीक तो है ? माँ ने अपने उसी चिर-परिचित गाँव की भाषा में पूछा
सब ठीक है माँ, मैने कई बार फोन किया था पर आपका नंबर ही नही लग रहा था...मैंने शिकायत भरे लहजे में जवाब दिया
हाँ वो फोन खराब हो गया था इसीलिए....अब दूसरा लिया है,
अच्छा माँ और सब ठीक है वहाँ, मैंने बातों का सिलसिला आगे बढ़ाते हुए कहा
वैसे तो सब ठीक है...तुम्हारी दादी जी नहीं रहीं..
क्या...मेरे हाथ से फोन छूटते-छूटते बचा...
कब? क्या हुआ था? मैंने पूछा, मुझे अपनी ही आवाज दूर से आती प्रतीत हो रही थी |
दो महीने हो गए, तुम्हें तो पता ही है कितनी बूढ़ी हो चुकी थीं, बीमार थीं....
और आप मुझे आज बता रही हो माँ, मुझे बताना भी जरूरी नहीं समझा, मैं भी आ जाती..अनजाने ही मेरा गला भर आया पर मैं रोना नहीं चाहती थी, नहीं चाहती थी कि माँ को मेरे रोने का पता चले..
क्या करतीं बेटा आके, देख तो तब भी नहीं पाती इतनी दूर जो हो..माँ ने कहा, अब तुम परेशान मत हो अपना ध्यान रखना मैं अभी फोन रखती हूँ....माँ ने कहा
ठीक है माँ, प्रणाम.......मैंने फोन रख दिया|
मैं धम्म से सोफे पर बैठ गई, मेरी दादी जी मर गईं और किसी ने मुझे बताना जरूरी नहीं समझा..क्यों?
एक दादी ही तो थीं जिनसे मैं सबसे ज्यादा जुड़ाव महसूस करती थी, मुझे आज भी याद है जब मैं छोटी थी माँ पापा के साथ लखनऊ में रहती थी पापा की सरकारी नौकरी थी तो हमारा पूरा परिवार लखनऊ में ही रहता, जब स्कूल की गर्मियों की छुट्टियाँ होतीं तो हम सभी गाँव जाने के लिए इतने उतावले होते थे कि एक-एक दिन काटना मुश्किल होता था| रोज पापा से पूछते कि आपको छुट्टी कब मिलेगी? चाचा के लड़कों के लिए खिलौने, पापा के चचेरे भाई यानी मेरे चाचा जो लगभग मेरी ही उम्र के थे उनके लिए मैं अपनी किताबें ले जाती और हम कंचे भी इकट्ठा करके रखते थे कि गाँव में खेलेंगे, उन्हें भी सहेज कर रख लेते....कुछ ऐसी ही होती थी हम बच्चों के गाँव जाने की तैयारी, हमें मतलब नहीं होता था कि माँ-पापा क्या लेकर जा रहे हैं क्या नहीं ये तो हमारी व्यक्तिगत तैयारी होती थी|
गाँव पहुँचने पर गाँव से बाहर ही दादी खड़ी मिलतीं हाथों में पीतल के चमकते हुए लोटे में जल लेकर,वो पहले जल भरे लोटे को हमारे सिर से पैर तक वारती फिर उस जल को एक तरफ किसी देवी या देवता को डाल देतीं तब कहीं हमें गाँव में प्रवेश की अनुमति देतीं | घर पहुँच कर सब अपने अपने अनुसार काम, खेल, रिश्तेदारी के निर्वाह आदि में व्यस्त हो जाते थे और मैं व्यस्त हो जाती थी दादी के साथ....
दादी वैसे तो अपने सभी पोतों को भी प्यार करती थी परंतु उनका लगाव मुझसे कुछ विशेष ही था...सर्दियों मे जब गुड़ बनाया जाता तो मेरे लिए सोंठ और मेवे डालकर बनवाया हुआ गुड़ वो बचा कर गर्मियों की छुट्टी तक रखती थीं, पका हुआ सीताफल एक जरूर बचाकर रखतीं ताकि जब हम छुट्टियों में आएँ तो वो हलवा बनाकर मुझे खिला सकें, इतना ही नहीं वो हर जगह मुझे अपने साथ ले जातीं और मैं भी..
जहाँ दादी वहीं मैं, दादी खेतों में जातीं तो मैं भी साथ जाती, वो बगीचे में जातीं तो भी मुझे ले जातीं और तो और वो दूसरे गाँव में जो कम से कम डेढ़-दो किलोमीटर होगा वहाँ गेहूँ पिसवाने जातीं तो भी मैं उनके साथ होती, किसी के घर,किसी की खुशी में, किसी के गम में,पूजा-पाठ में..कहीं भी कभी भी वो अकेली नहीं जाती थीं और यदि जाना भी चाहतीं तो मैं नहीं जाने देती..यहाँ तक कि रात को भी मैं माँ के पास नहीं सोती थी| हम जब तक गाँव में रहते मैं दादी के पास ही सोती थी, हम कभी छत पर सोते तो दूर किसी गाँव मे एक बल्ब जलता दिखाई देता था मैंने एक बार दादी से पूछा था कि वहाँ पर लाइट कैसे जलती है जबकि हमारे गाँव में नही है, दादी ने क्या जवाब दिया मुझे याद नहीं पर एक बात जो उन्होंने बताई थी वो मुझे आज भी याद है कि बिजली वहाँ भी हर घर में नही जलती, जो बल्ब हमें दिखाई देता है वो आटा-चक्की पर जलने वाला बल्ब था....कुछ ऐसी ही बातें होती रहती थीं मेरे और दादी के बीच और वो रोज एक नई कहानी सुनाते हुए धीरे-धीरे मेरे बालों में हाथ फेरती रहतीं और मैं कहानी सुनते हुए कब स्वप्नलोक की सैर पर निकल जाती मुझे पता ही नहीं चलता| मेरे बालों में उनकी उँगलियों का वो कोमल स्पर्श मुझे आज भी महसूस होता है....
गाँव में कहाँ नदी है, कहाँ तालाब है हमारे कितने खेत हैं और कहाँ-कहाँ हैं ये मुझे दादी के ही कारण पता चला....
मेरे पापा जी तीन भाई हैं और पूरे परिवार में मैं अकेली लड़की, शायद ये वजह भी रही हो मेरी दादी के प्यार की| जो भी मुझपर कोई टिप्पणी करता उसका पहला सवाल यही होता था कि मैं लखनऊ में दादी के बिना कैसे रहती हूँगी.....
खैर छुट्टियाँ खत्म होतीं दादी हमें नम आँखों से गाँव के बाहर काफी दूर तक छोड़ने आतीं और जाते हुए मैं बार-बार मुड़-मुड़ कर उन्हें तब तक देखती रहती जब तक दूर और दूर होते हुए वो मात्र एक छोटी सी परछाई में तब्दील नहीं हो जातीं और फिर दादी की परछाई अपने साथ आई अन्य दूसरी परछाइयों के साथ धीरे-धीरे विलुप्त हो जाती|
हर साल गर्मियाँ आतीं, स्कूल की छुट्टियाँ होतीं और फिर यही सिलसिला....मैं कुछ नौ-दस साल की हूँगी जब मंझले चाचा की जिद पर मेरे पापा और दोनों चाचा के बीच बँटवारा हुआ था तब दादी को कितना दुख हुआ था मैं खुद इसकी साक्षी हूँ, दादी अपनी हमराज, हमदर्द मान अपनी किसी सखी के घर जातीं तो मैं भी उनके साथ होती थी, वो उनसे घर की तनावपूर्ण स्थिति के बारे में बातें करते-करते रो पड़ती थीं भले ही दादी की बातें उस समय मेरी समझ से परे थीं परंतु उनकी आँखों से बहते आँसू मुझे भी रुला देते थे, मैं दादी की बाँह पकड़े उनसे ऐसे चिपक कर बैठ जाती मानो मुझे भय हो कि दादी मुझे छोड़कर कहीं चली न जाएँ...मुझे रोती देख सभी यही कहते कि पूरे घर में सिर्फ इसे ही तुम्हारी चिंता है, और आज...मेरी दादी सच में सदा के लिए मुझे छोड़ गईं....छोड़ तो वो मुझे दो महीने पहले ही गईं थी पर उनकी उँगलियों के कोमल स्पर्श का अहसास आज दो महीने बाद मुझसे दूर हुआ.....
गाँव पहुँचने पर लोटे के जल से नजर उतार कर स्वागत करने की परंपरा तो अबसे सालों पहले समाप्त हो चुकी है पर अब तो स्वागत करती हुई वो नजरें भी नहीं रहीं जिनमें मेरे लिए आशीर्वाद और हमेशा कुछ नया बनवाकर खिलाने की इच्छा नजर आती....
साभार....मालती मिश्रा
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