शुक्रवार

मुखौटा...


आँखें नम हैं, दिल में गम है 
छिपाए फिरते हैं दुनिया से 
चिपका कर होंठों पे झूठी मुस्कान 
दिल में लिए फिरते हैं दर्द का तूफान 
पहन मुखौटा मान-सम्मान का
करते सुरक्षा झूठे अभिमान का
भीतर से टूटे-बिखरे पड़े हैं
फिर भी प्रत्यक्ष में अकड़े खड़े हैं
डर है निर्बलता मेरी जाने न कोई
मेरे अंतस के भय को पहचाने न कोई
देखकर लोगों हरपल ठहाके लगाते
न जाना पाई कभी वो भी हैं आँसू छिपाते 
दर्द का सौदा ही मुझको करना पड़ा है
खुशियों का भाव अाजकल आसमान पे चढ़ा है..

साभार....मालती मिश्रा

6 टिप्‍पणियां:

  1. अति सुन्दर रचना।बहुत खूब।

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  2. अति सुन्दर रचना।बहुत खूब।

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  3. आपके अनमोल शब्दों के लिए आभार राजेश जी

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  4. आपके अनमोल शब्दों के लिए आभार राजेश जी

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  5. सोचा की बेहतरीन पंक्तियाँ चुन के तारीफ करून ... मगर पूरी नज़्म ही शानदार है ...आपने लफ्ज़ दिए है अपने एहसास को ... दिल छु लेने वाली रचना ...

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  6. संजय जी आपके अनमोल स्नेहिल शब्दों से मेरी लेखनी को बल मिलेगा, बहुत-बहुत आभार

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