बुधवार

खामोशी



तुम हो मैं हूँ और हमारे बीच है...गहरी खामोशी
खामोशी..
जो बोलती है
पर तुम सुन नहीं पाते
खामोशी जो शिकवा करती है 
तुमसे तुम्हारी बेरुखी की
पर तुम अंजान बन जाते हो 
खामोशी..
जो रोती है, बिलखती है 
पर तुम देख नहीं पाते 
खामोशी...
जो माँगती है इक मुस्कान 
पर तुम अनभिज्ञ अंजान
न पाए इसकी सूनी आँखों को पहचान 
खामोशी...
जो हँसती है अपनी बेबसी पर 
पर ठहाकों में छिपा दर्द तुम्हें छू न सका
खामोशी...
जो चीखती है, चिल्लाती है 
अपना संताप बताती है 
पर तुम हो बेखबर 
खामोशी..
जो खोजती है तुम्हारी नजरों को 
खामोशी...
जो सुनती है तुम्हारी सांसों की धुन को
खामोशी....
जो पढ़ती है तुम्हारी आँखों को 
खामोशी....
जो कहती है, सुनती है, 
देखती,पढ़ती और समझती है
पर कुछ भी बताने में झिझकती है...
वही खामोशी..
फैली है आज चारों ओर
जिसका कोई ओर न छोर 

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

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4 टिप्‍पणियां:

  1. बेनामी01 फ़रवरी, 2023

    मार्मिक शब्दों से सजाई हुई एक कविता। दिल को छू गई।

    जवाब देंहटाएं
  2. बेनामी01 फ़रवरी, 2023

    अति सुन्दर रचना।बहुत खूब।

    जवाब देंहटाएं

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