गुरुवार


एक लंबे अंतहीन सम इंतजार के बाद 
आखिर संध्या का हुआ पदार्पण
सकल दिवा के सफर से थककर
दूर क्षितिज के अंक समाने
मार्तण्ड शयन को उद्धत होता
अवनी की गोद में मस्तक रख कर
अपने सफर के प्रकाश को समेटे
तरंगिनी में घोल दिया
प्रात के अरुण की लाली से जैसे
संध्या की लाली का मेल किया
धीरे-धीरे पग धरती धरती पर
यामिनी का आगमन हुआ
जाती हुई प्रिय सखी संध्या से
चंद पलों का मिलन हुआ
तिमिर गहराने लगा
निशि आँचल लहराने लगा
अब तक अवनी का श्रृंगार 
दिनकर के प्रकाश से था
अब कलानिधि कला दिखलाने लगा
निशि के स्याम रंग आँचल में
जगमग तारक टाँक दिया
काले लहराते केशों में 
चंद्र स्वयं ही दमक उठा
अवनी का आँचल रहे न रिक्त
ये सोच जुगनू बिखेर दिया
टिमटिमाते जगमगाते तारक जुगनू से
धरती-अंबर सब सजा दिया
कर श्रृंगार निशि हुई पुलकित
पर अर्थहीन यह सौंदर्य हुआ
मिलन की चाह प्रातः दिनकर से
उसका यह स्वप्न व्यर्थ हुआ।
मालती मिश्रा

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2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर मीता!
    ढलती शाम और मदमाती निशा का वर्णन काव्यात्मक और आलंकारिक साथ ही निशा का दिवाकर से न मिलपाने का अंतहीन इंतजार। शुभ रात्री।

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    1. 🍁🍁🌷🌷🌷🌾🌾🙏🙏🙏🙏 स्वागत है आपका, बता नहीं सकती कि कितनी खुशी हो रही है आपको ब्लॉग पर देखकर। आपकी प्रतिक्रिया से लिखने की प्रेरणा मिलती है। धन्यवाद मीता आभार।

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