नारी को अधिकार चाहिए
पुरुषों के समकक्ष
या पुरुषों के समक्ष
हे नारी
मैं आज पूछती हूँ तुझसे
कौन से अधिकार हैं
जिनकी तू आकांक्षी है
क्या है तेरे अधिकारों की परिभाषा
क्या तेरे अधिकार
आज सिर्फ
कपड़ों तक सिमट कर रह गए
क्यों तू सिर्फ अंग प्रदर्शन को ही
अधिकारों की पहचान बना पाई
क्यों तू पुरुषों के समझ
महज मनोरंजन
और सजावट की वस्तु
बन कर रह गई
तू मनोरंजन का साधन
बनाई नहीं गई
स्वयं बनी है
इससे तो अच्छा था कि
अधिकारों से वंचित रहती
तो किसी के घर का मान होती
किसी का अभिमान होती
ये कैसी आजादी ली है
ये कैसे अधिकार हैं
जहाँ मनोरंजन के नाम
सजी नग्नता की बाजार है
बोलने का अधिकार मिला
तो बलात्कारी के पक्ष में बोल पड़ी
दहलीज से बाहर गई तो
मान मर्यादा की
चुनरी ले जाना भूल गई
बछेंद्री, बबिता जैसी
नारियों ने
कभी बराबरी का अधिकार
नहीं माँगा
कभी बोलने की आजादी
नहीं माँगी
बिन माँगे ही आज वो
अपने माता पिता का
अभिमान हैं
देश का गौरव हैं
और नारी का सम्मान हैं
यह मान अभिमान
यह गौरव
उन्हें माँगने से न मिला
उन्होंने कमाया है
जो देती हैं
अधिकारों की दुहाई
उनके अधिकार सिर्फ
स्वच्छंदता तक
और तन के कपड़ों
तक सीमित हो गए
जैसे-जैसे अधिकार बढ़ते जाते
वैसे-वैसे कपड़े छोटे
होते जाते हैं
कैसा ये अधिकार है
ये कैसी आज़ादी है
जिसमें बहू-बेटियों ने
मर्यादा ही भुला दी है।
मालती मिश्रा, 'मयंती'
चित्र साभार... गूगल से
पुरुषों के समकक्ष
या पुरुषों के समक्ष
हे नारी
मैं आज पूछती हूँ तुझसे
कौन से अधिकार हैं
जिनकी तू आकांक्षी है
क्या है तेरे अधिकारों की परिभाषा
क्या तेरे अधिकार
आज सिर्फ
कपड़ों तक सिमट कर रह गए
क्यों तू सिर्फ अंग प्रदर्शन को ही
अधिकारों की पहचान बना पाई
क्यों तू पुरुषों के समझ
महज मनोरंजन
और सजावट की वस्तु
बन कर रह गई
तू मनोरंजन का साधन
बनाई नहीं गई
स्वयं बनी है
इससे तो अच्छा था कि
अधिकारों से वंचित रहती
तो किसी के घर का मान होती
किसी का अभिमान होती
ये कैसी आजादी ली है
ये कैसे अधिकार हैं
जहाँ मनोरंजन के नाम
सजी नग्नता की बाजार है
बोलने का अधिकार मिला
तो बलात्कारी के पक्ष में बोल पड़ी
दहलीज से बाहर गई तो
मान मर्यादा की
चुनरी ले जाना भूल गई
बछेंद्री, बबिता जैसी
नारियों ने
कभी बराबरी का अधिकार
नहीं माँगा
कभी बोलने की आजादी
नहीं माँगी
बिन माँगे ही आज वो
अपने माता पिता का
अभिमान हैं
देश का गौरव हैं
और नारी का सम्मान हैं
यह मान अभिमान
यह गौरव
उन्हें माँगने से न मिला
उन्होंने कमाया है
जो देती हैं
अधिकारों की दुहाई
उनके अधिकार सिर्फ
स्वच्छंदता तक
और तन के कपड़ों
तक सीमित हो गए
जैसे-जैसे अधिकार बढ़ते जाते
वैसे-वैसे कपड़े छोटे
होते जाते हैं
कैसा ये अधिकार है
ये कैसी आज़ादी है
जिसमें बहू-बेटियों ने
मर्यादा ही भुला दी है।
मालती मिश्रा, 'मयंती'
चित्र साभार... गूगल से
बहुत सार्थक रचना। अधिकार के नाम पर बेशर्मी की मांग कभी जायज नही हो सकती। इसे ही कहते है पावं पर कुल्हाड़ी मरना।
जवाब देंहटाएंनीतू जी समर्थन के लिए सादर आभार🙏🙏
हटाएंखरी खरी
जवाब देंहटाएंखरी खरी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद जी. एस. परमार जी🙏
हटाएंकरारी चोट मीता सत्य का डंका बजाया आपने अधिकारों और समानता के नाम पर सिर्फ उच्छृंखलता बढी है और गौरव मई नारी पतन की कागार पर खडी दिखाई दे रही है, "ये तो आपने लिखा है स्वयं एक नारी ने, अगर कोई पुरूष लिख देता तो हंगामा बपर जाता, मै आपसे पूरण सहमत हूं।
जवाब देंहटाएंबहुत कडवा पर सत्य सटीक तंज।
आपका ब्लॉग पर आना मुझमें नवप्राण सा फूँक जाता है, ऐसे ही स्नेह की सदा आशा है। आभार मीता💐💐💐💐🙏🙏
हटाएंतू मनोरंजन का साधन
जवाब देंहटाएंबनाई नहीं गई
स्वयं बनी है
इससे तो अच्छा था कि
अधिकारों से वंचित रहती
तो किसी के घर का मान होती
किसी का अभिमान होती
ये कैसी आजादी ली है बहुत सुंदर रचना 👌 सत्य प्रदर्शित किया आपने 👌
सराहना और उत्साहवर्धन के लिए सादर आभार अनुराधा जी🙏
हटाएंस्त्री की गरिमा उसकी मर्यादा में है , अधिकार के नाम पर जिस तरह का निर्लज्ज प्रदर्शन हो रहा है उस पर करार प्रहार करती सार्थक रचना
जवाब देंहटाएंआपके समर्थन से लेखनी को ऊर्जा मिली है। सादर आभार🙏
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