शनिवार

बाल विवाह


बालविवाह
कृष्णपक्ष की अंधेरी रात थी दूर-दूर तक सन्नाटा पसरा हुआ था, कहीं-कहीं खेतों में खड़े पेड़ हवा के झोंके से झूमते हुए दानव की भाँति डरावने लग रहे थे, ऐसी अंधेरी रात में दो साये खेतों की मेड़ों पर इधर-उधर फिसलते लड़खड़ाते हुए आगे बढ़ रहे थे। उनमें से एक के हाथ में पोटली जैसा कुछ था। अंधेरी रात और कहीं-कहीं वृक्षों और अरहर के खेतों की वजह से रात की कालिमा और गहरा जाती, हाथ को हाथ सुझाई नहीं देता, दोनों इधर उधर गर्दन घुमाकर देखते और आश्वस्त होकर आगे बढ़ जाते। आदमियों को भी ढँक लेने जितनी ऊँचाई वाले अरहर के पौधे हवा के झोंके से जब-तब झूम उठते और तब उनकी पकी हुई छीमियाँ आपस में टकराकर छनछना कर बज उठतीं। खेतों में दूर-दूर तक फसल लहराती हुई आपस में टकराती हुई जो ध्वनि पैदा कर रही थी अगर और कोई समय होता तो यही ध्वनि संगीत बनकर कर्ण द्वार से प्रविष्ट कर हृदय को आह्लादित कर देती किन्तु इस समय रात की भयावहता में वृद्धि कर रही थी, नीले आसमान में टिमटिमाते असंख्य तारे मानों रजनी के आँचल में जड़े असंख्य हीरे की मानिंद उसकी सुंदरता में चार चाँद लगा रहे थे, पर उन दो सायों को प्रकृति की इस सुंदरता से कुछ लेना देना नहीं था वह तो अपने-आप को अंधेरे में छिपाए बस आगे बढ़ रहे थे और एक पेड़ के नीचे आकर दोनों रुक गए। वहाँ दो साए पहले से मौजूद थे, एक वृद्ध (करीब चालीस-पचास साल का) पुरुष और एक वृद्ध महिला। दोनों सायों में से एक उस महिला के गले लगकर रो पड़ी।
"अम्मा ले जाओ अपनी नातिन को और इसे पढ़ा-लिखा के अपने पैरों पर खड़ी कर देना, मेरे जैसी जिंदगी ना देना इसे।" रोते हुए उसने कहा।
"रो नहीं बिंदू अब से रितु हमारे पास रहेगी, तुम्हारी बदनामी तो होगी बिटिया लेकिन इसकी जिंदगी तुम्हारी तरह खराब नहीं होने देंगे हम।" पुरुष ने कहा।
"माँ कल सब लोगों को क्या जवाब दोगी तुम?" रोते हुए बिंदू की बेटी (दूसरे साये) ने पूछा।
"कुछ नहीं, कह देना हमें का पता। सब समझेंगे कि जबरदस्ती के गौना से बचने खातिर भाग गई, तुम इसका पक्ष ना लेना नहीं तो तुम पर शक हो जाएगा, फिर हमारे पास रहने नहीं देंगे इसे।" बिंदू की माँ ने कहा।
"हम किसी को कुछ नहीं कहेंगे अम्मा, तुम सब लोग अब जाओ, हम भी घर जा रहे हैं नहीं तो कोई जाग गया तो ठीक नहीं होगा।" कहते हुए बिंदू ने अपने पल्लू से मुँह दबाकर रुलाई रोकने की कोशिश की पर हिचकी न रोक सकी। सभी की आँखें बरस रही थीं, रितु माँ से लिपट कर सुबक कर रो पड़ी, वह अपनी माँ के त्याग को समझ मन ही मन नत मस्तक हुई जा रही थी। उसे पता था कि अब उगने वाला सूरज उसकी माँ के लिए कैसे-कैसे ताने और गालियाँ लेकर आने वाला है, पर वह चाहकर भी उन परिस्थितियों को बदल नहीं सकती, वह तो माँ के लिए वह सब करने को तैयार थी जो बाकी घर वाले चाहते थे, पर माँ ने उसे बहुत समझाया और बाबा की आखिरी इच्छा का वास्ता देकर उसे ऐसा करने के लिए मना लिया।
रितु अपने नाना-नानी के साथ शहर जाने वाली सड़क की ओर चल दी जहाँ से वह प्रातः उगने वाले सूरज की रोशनी के साथ एक नई सुबह की तलाश में एक नई यात्रा पर निकल जाएगी, अपनी माँ को इसी अंधकार में प्रकाश की आशा में प्रतीक्षा रत छोड़कर।

बिंदू वहीं पेड़ के नीचे खड़ी अपनी बेटी को अपने से दूर होती देखती रही, आँचल के कोने को मुट्ठी में पकड़कर मुट्ठी को मुँह में दबाए फफक-फफक कर रोती हुई। अपनी दुनिया को अपने से दूर जाती देख अपनी विवशता पर रोने के सिवा वह कुछ नहीं कर सकती थी। वह तब तक वहाँ खड़ी रही जब तक अम्मा बाबा और उसकी अपनी गुड़िया का साया अंधेरे में विलीन नहीं हो गया। मन में बेटी के उज्ज्वल भविष्य की कामना लिए वह वापस गाँव की ओर मुड़ गई और अब बिना डरे निर्विकार भाव से मेड़ों पर बिना लड़खड़ाए गाँव की ओर बढ़ता यह साया निर्भय स्वच्छंद प्रतीत हो रहा था। अब रात की कालिमा, हवाओं की सांय-सांय, फसलों का हरहराकर लहराना और अरहर की छनछनाहट उसके मन में भय उत्पन्न करने में नाकाम सिद्ध हो रहे थे।
घर पहुँच कर बिंदू चुपचाप अपने कमरे में जाकर लेट गई पर अब नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी, खाली पलंग पर उसे रितु की कमी खलने लगी, रह-रह कर मन में टीस उठती, मेरी बच्ची! अब पता नही कब तुम्हें देख पाएँगे हम!" सोचते ही वह सिसक पड़ी। हरिओम के जाने के बाद तो बस रितु ही सहारा है उसके जीने का, सोचती हुई वह पलंग की पाटी पर हाथ फेरती अतीत की गहराइयों में खोती चली गई...... सन् 1995 की बात थी जब वह दुल्हन बनकर इस घर में आई थी....
****** ****** ***** ***** ****** ******

दोस्तों में घिरा हरिओम आज खुशी के मारे मन ही मन बल्लियों उछल रहा था, उसका गौना जो हो गया था, उसके दोस्त न जाने क्या-क्या कहकर उसे छेड़ रहे थे। कोई कहता शहर की लड़की है वो भी पढ़ी-लिखी अब तो तुझे उँगलियों पर नचाएगी, तो कोई कहता अरे आज रात से ही तेरी क्लास लगाएगी अब तू तो अ से अनार पढ़ने की तैयारी करके जा। वहीं तीसरा कहता अरे नहीं पहले प्रेम-प्यार का पाठ पढ़ के जा, पहले तू पढ़ाना फिर भाभी से पढ़ना। इसी तरह की न जाने कितनी बातें और चुहलबाजियाँ देर रात तक चलती रहीं, हरिओम घर में सभी के सो जाने के बाद ही घर जाना चाहता था और उसे पता था कि मेहमानों से भरे घर में अभी भी घर की औरतें जाग रही होंगी, इसीलिए वह अभी दोस्तों के साथ ही बैठा हुआ था, तभी एक दोस्त बोल पड़ा- "अरे यार तुम्हार गौना भया है और तुम हो कि न खुद कै गला तर किया न हम लोगन कै, सुक्खै-सुक्खै बइठे हो।" ऐसा कहकर उसने पीछे रखी बोतल निकालकर सामने रख दी और भीतर से चार गिलास लाकर रखे। "भाई आज तो हमै छोड़ि देव, हम आज नाही पीयब।"
"काहे हरि का भया? अबहीं से जोरू कै इतना डर?" एक दोस्त ने कहा।
"जोरू कै नाहीं यार, घर में मेहमान हैं और तुम लोग बाबा कै आदत तो जनतै हो, सबके सामने बेइज्जती कर दीहैं।" हरिओम बोला।
"सही है यार फिर पहली ही रात बीबी के सामने बेइज्जती होएगी तो ऊ पूरी जिनगी ईकी इज्जत नाहीं करेगी।" दूसरे दोस्त ने कहा।
"अरे भाई तू कउन सा अबहीं जाय रहा है, सबके सोने के बादै तो जाएगा, कइसे पता चलिहै किसी को?" पहले दोस्त ने कहा।
"हाँ इहो ठीकै है।" दूसरे ने कहा।
"अरे लेकिन इकी नई-नवेली दुलहिन को ईका पीना पसंद ना आया तो?" तीसरे ने कहा।
"अबे रौब दिखान कै इहै तो टाइम है, अबहीं से डर गई तो पूरी जिनगी डरि के रहिहै, नाहीं तो सिर पै नचिहै, सहरी लड़की है ऊ मत भूलो।" पहले मित्र ने कहा।
मानव प्रकृति की विशेषता यही है कि सीधी और सही बात इतनी शीघ्रता से उसके मस्तिष्क पर प्रभाव नहीं डालती जितनी तीव्रता से गलत व नकारात्मक बातें प्रभाव डालती हैं। ऐसा ही कुछ हरिओम के साथ हुआ।
"ऊसे कउन डरत है...जोरू कै गुलाम थोड़ै न बनना है।" कहते हुए उसने गिलास मुँह से लगाया और एक ही साँस में पूरा गटक गया।
बारह बज चुके थे, गौने की रश्मों की भाग-दौड़ से थककर सभी घोड़े बेचकर सो रहे थे। वो कहावत है न कि 'भूख न जाने सूखा भात नींद न जाने टूटी खाट' यहाँ का दृश्य देखकर यही कहावत दृष्टिगोचर हो रही थे। धरती पर ही कहीं चटाई तो कहीं दरी बिछाकर बुआ, मामी, मौसी, चाची, ताई और भी सभी महिला रिश्तेदार और बच्चे जहाँ-तहाँ लुढ़क गए थे और बेसुध सो रहे थे, उनसे थोड़ी दूरी पर पुरुषों के लिए चारपाइयाँ बिछी हुइ थीं, वे उनपर सो रहे थे। हरिओम ने सबको सोते देख चैन की साँस ली और महिलाओं के बीच से बचता-बचाता दबे पाँव कमरे की ओर गया, उसके दिल की धड़कने तीव्र हो रही थीं, शराब के सुरूर के कारण चाल में लड़खड़ाहट थी, थोड़ी देर पहले दोस्तों के सामने निडरता का दावा करने वाला हरिओम नहीं चाहता था कि उसकी नई-नवेली पत्नी को उसके दारू पीने की बात पता चले, औरों के समक्ष अपनी हेकड़ी दिखाने के लिए भले ही गलत को सही के रूप में सहमति दे दी परंतु भीतर ही भीतर वह भी जानता था कि शराब पीना गलत है और इसीलिए अपनी गलती को पहली ही रात अपनी पत्नी के समक्ष उजागर नहीं होने देना चाहता था। दरवाजे के सामने पहुँच कर उसने पहले अपने बेतरतीब बालों को हाथों की उँगलियों से ठीक किया, फिर अपने कपड़ों को हाथ से झाड़ा ताकि धूल-मिट्टी न लगी रह जाए तथा बाजू को मोड़कर ऊपर चढ़ाया। दरवाजा बंद देख वह सोच में पड़ गया कि अगर ये अंदर से बंद होगा तो? खटखटाने से तो सभी जाग जाएँगे...पर अंदर से क्यों बंद होगा वो भी तो मेरा इंतजार कर रही होगी, ऐसा सोचकर उसने दरवाजे पर हाथ रखकर अंदर को हल्के हाथों से धकेला तो दरवाजा चर्र की आवाज के साथ खुल गया। हरिओम डर गया कि किसी ने सुन न ली हो, वह झट से भीतर आ गया और अंदर से कुंडी लगा ली। उसे उम्मीद थी कि पलंग पर उसकी पत्नी लंबा सा घूँघट डालकर बैठी उसका ही इंतजार कर रही होगी। उसने जेब से माचिस निकाल कर जलाया ताकि मिट्टी के तेल की ढिबरी जला सके पर यह क्या?? पलंग पर नजर पड़ते ही वह स्तब्ध रह गया, उसकी नई-नवेली पत्नी उसके सारे मंसूबों पर पानी फेरकर सो चुकी थी, उसके अंदर का मर्द आहत हो गया, उसका मन हुआ कि वह उसे जगाकर पूछे कि क्या यही सिखाकर भेजा है तुम्हारी माँ ने कि पति का इंतजार किए बिना ही सो जाओ! ऐसा सोचकर ज्यों ही उसने हाथ बढ़ाया उसके दिमाग में सरगोशी हुई कि उसे जगा मत, अच्छा हुआ सो गई तूने पी भी तो रखी है, अब उसे पता नहीं चलेगा। ऐसा सोचकर उसने तुरंत अपना हाथ वापस खींच लिया और पलंग की एक पाटी पकड़ किनारे पर ही लेट गया और थोड़ी ही देर में नींद ने उसे भी अपने आगोश में ले लिया।
****** ****** ***** ***** ****** ******

जोर-जोर से दरवाजा पीटने की आवाज सुनकर बिंदू की नींद खुल गई वह तेजी से अपने पति के पैरों को बचाते हुए पलंग से नीचे उतरी और सिर पर साड़ी का पल्लू ठीक करती हुई उसने दरवाजा खोला तो सामने सासू माँ खड़ी थीं।
"खेते की ओर चलिहो?" (खेत की ओर अर्थात् शौच क्रिया हेतु खेतों में जाना)
"अभी तो रात है।" गाँव के नियमों से अंजान बिंदू झिझकती हुई धीरे से बोली।
"रात नाही है सबेर होइ गया, उजियारा होने पर कइसे जइहो।" सासू माँ ने कहा।
"ज् जी ठीक है।" कहती हुइ बिंदू सासू माँ के पीछे चल दी। चारों ओर घना अंधेरा था उसने सोचा कि क्या ऐसे ही रोज रात को ही उठकर चोरों की भाँति शौच के लिए जाना पड़ेगा, अगर कभी पेट खराब हो जाए और दिन में जाने की जरूरत पड़े तब क्या करेगी वो? सोचकर उसे भय लगा। उसके साथ उसकी सास और शायद उनकी बहन और ननद थीं, अभी वह किसी से भी परिचित नहीं थी इसलिए  पता नहीं था कि किसे क्या कहकर पुकारे, वह अंधेरे में खेत की मेड़ पर फिसल गई तो उसके आगे चल रही मौसी जी का हाथ पकड़ कर खुद को गिरने से बचा लिया। वह मन ही मन कुपित हो रही थी 'कहाँ आ फँसी'.....
"संभाल के चलो दुलहिन इ सहर क सड़क नाही है।" मौसी हँसती हुई बोलीं।
आगे जाकर एक-एक कर सभी महिलाएँ अंधेरे में खेत में अपने-अपने लिए स्थान देख दूर-दूर छिटक गईं। बिंदू की सासू माँ भी उसके हाथ में लोटा पकड़ा कर खुद दूर चली गईं, वह अपने स्थान पर खड़ी देखती रही कि अब क्या करे? अंधेरा ही सही पर इस तरह खुले में! छिः! पर अब क्या करे? कहाँ ला पटका बाबा ने... उसका रोने का मन कर रहा था पर रो नहीं सकती थी अब तो यही उसकी किस्मत थी, आज रो भी लेगी तो क्या...अब तो रोज ही यहीं ऐसे ही आना होगा। सोचते हुए उसके गालों पर आँसू की बूँदें ढुलक आईं, उसने दूसरे हाथ से आँसू पोछे और इधर-उधर गर्दन घुमाकर देखने लगी कुछ दूरी पर उसे झाड़ियाँ नजर आईं वह संभलती हुई उसी ओर बढ़ चली। ज्यों-ज्यों उसके पैर झाड़ियों की ओर बढ़ते जाते त्यों-त्यों शर्म का पल्लू आहिस्ता-आहिस्ता सिर से सरकता जाता।

रिश्तेदारों से भरे घर में सहमी सिकुड़ी सी बिंदू अपने कमरे में भी खुलकर बैठ नहीं पा रही थी, बार-बार आने-जाने वालों का ताँता लगा हुआ था, इसीलिए उसे हर वक्त लंबा सा घूँघट डाले रखना पड़ रहा था। एक बार जरा सी ठोड़ी दिख गई होगी तो सासू माँ ने तुरंत टोक दिया "दुलहिन घूँघट ठीक से ओढ़ लेव।"
दोपहर का समय हो गया था, घर कुछ खाली-खाली लग रहा था शायद गर्मी से बचने के लिए घर के लोग पास के बगीचे में बैठे होंगे। बिंदू बैठी-बैठी थक गई थी उसने सोचा थोड़ा आराम कर ले, जैसे ही वह खड़ी हुई तभी दरवाजा धीरे से खुला उसने तुरंत घूँघट खींच लिया।
"घबराओ नाही हम हैं।"
हरिओम की आवाज सुनकर उसके दिल की धड़कनें बढ़ गईं, अब इस समय ये यहाँ क्यों...वह मन ही मन घबराई पर बिना कुछ बोले चुपचाप वहीं दरी पर बैठ गई। हरिओम पलंग पर बैठते हुए बोला- "रात को तुम तो बहुत जल्दी सोय गईं, हमने सोचा कि का तुम्हरी नींद खराब करें तो हम भी सोय गए।" उसकी बातों से ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे वह जताना चाहता था कि उसे अपनी पत्नी के आराम की कितनी फिक्र है। बिंदू चुप रही।
"तुम गूँगी हो का?" हरिओम ने थोड़ा चिढ़कर कहा।
"नहीं, पर हम क्या बोलें?" बिंदू हिचकिचाते हुए बोली।
"ऊ तो हमे भी पता है कि तुम गूँगी नाही हो, पर जवाब भी तो नाही दे रही थी।" हरिओम हँसते हुए बोला।
"पर हम क्या जवाब दें, जब आपने कुछ पूछा ही नहीं, आपने तो बस बताया है।"
"चलो अब पूछ लेते हैं, कलकत्ता में तुम स्कूल पढ़ने जाती थीं, तुम्हरे साथ लड़का लोग भी पढ़ते होंगे तो का तुम किसी से प्यार-व्यार भी करती थीं?" हरिओम न चाहते हुए भी दिल में छिपे संशय को बयां कर गया।
"छिः, कैसी बात कर रहे हो, लड़कों के साथ पढ़ने का मतलब प्यार करना होता है क्या?" बिंदू मन ही मन तिलमिला उठी। पति के अनपढ़ होने की बात तो उसने स्वीकार कर ली थी पर क्या ऐसी तोहमतें भी स्वीकारनी होंगी!
"अरे नाही, लेकिन अब गाँव वालन को कऊन समझावै, खैर ई बताओ कि खाली पढ़ाई-लिखाई भर सीखे हो कि खाना-वाना भी बनाय लेती हो?" हरिओम सीधे बैठते हुए बोला।
बिंदू चुप रही, उसे खाना बनाना नहीं आता था इसलिए समझ नहीं आया क्या जवाब दे! कहीं वह बुरा मान गया तो!
कुछ पल रुक कर हरिओम ने पुनः कहा "तुम बताईं नहीं खाना-वाना बनाय लेती हो कि खाली पढ़ाई-लिखाई भर करी हो?"
"व् वो हमे खाना बनाना नहीं आता बस थोड़ा-बहुत कुछ चीजें ही बना पाते हैं।" वह सहमी सी आवाज में बोली पर उसकी बात पूरी होते ही हरिओम दहाड़ पड़ा
"अरे स् साली तो का आता है तोहे अउर ऊ साली तोरी महतारी ने का सिखाया है तोहे, तोरी पढ़ाई कै हम अचार डालैं का!"
उसके चिल्लाते ही बिंदू भीतर तक काँप उठी पर अपनी माँ के लिए गाली सुनकर उसके तन-बदन में आग लग गई, उसका मन हुआ कि अभी अपना सामान उठाए और अपने घर चली जाए, पर वो ऐसा नहीं कर सकती थी। बेबसी से उसने अपना निचला होंठ चबाकर जख्मी कर लिया अब उसकी बेबसी अश्रुधार बन उसके गालों को भिगोने लगे। उसे पहले ही दिन महसूस होने लगा कि उसने तो अपने पति का अनपढ़ होना स्वीकार कर लिया पर उसका पति उसका शिक्षित होना पचा नहीं पा रहा, तो क्या वह इसी तरह उसे बार-बार बेइज्जत करके अपनी हीन भावना को तृप्त करेगा। रोते-रोते उसकी हिचकियाँ बंध गईं, हरिओम तो गाली देकर कमरे से बाहर चला गया था, वह धरती पर बैठी पलंग पर सिर टिकाए सिसक-सिसक कर रोती रही।
एक लड़की जब अपने माता-पिता का घर छोड़कर पहली बार ससुराल आती है तो मायके से ससुराल तक की यात्रा के दौरान पति का साथ उसे पति से इतनी निकटता का अहसास तो करवा ही देता है कि वह ससुराल में अन्य लोगों की अपेक्षा पति से अधिक अपनत्व की अपेक्षा करती है किन्तु यदि पति ही उसकी उपेक्षा या अपमान कर दे तो वह किसी अन्य पर विश्वास करने में घबराती है। यही हुआ बिंदू के साथ, उसने कलकत्ता में रहते हुए खाना कभी-कभार ही बनाया था वो भी स्टोव पर। चूल्हे पर खाना बनाना तो दूर चूल्हा जलाते कैसे हैं, उसे यह भी नहीं पता। सोचा था कि सासू माँ को सारी बात बताकर उनसे विनती करेगी कि सिखा दें, आखिर माँ ही तो हैं, वो जरूर सिखाएँगीं, पर जब पति को ही इतना बुरा लगा कि वो गाली देकर चले गए तो सासू माँ या कोई अन्य कैसे चुप रहेंगे।
शाम के 4 बज रहे थे कुछ रिश्तेदार जो सुबह रुक गए थे वो अब शाम को जाने को उद्यत हो रहे थे। बिंदू की सास और छोटी ननद जल्दी-जल्दी बायना आदि बाँधने में व्यस्त थीं, शाम होते-होते सभी रिश्तेदार जा चुके थे अब घर में सन्नाटा छाया हुआ था।
तभी छोटी ननद कमरे में आई और बोली- "भउजी आज तोहार चूल्हा पूजन है, का बनाओगी?"
"आज है चूल्हा पूजन!" सुनकर बिंदू सिहर उठी।
"हाँ, अम्मा कही हैं।"
"क्या तुम अम्मा को बुला दोगी?" बिंदू बोली।
वह चुपचाप बाहर अपनी माँ को बुलाने चली गई।
"का भया दुलहिन, कोई परसानी है का?" सास ने अंदर आते ही कहा।
"अम्मा जी हमने कभी चूल्हे पर खाना नहीं बनाया है, अगर स्टोव है तो हम खाना बना देंगे लेकिन अगर चूल्हे पर बनाना पड़ेगा तो हम चूल्हा नहीं जला पाएँगे।" कहते-कहते बिंदू रो पड़ी उसे हरिओम की गाली अभी भी तेजाब सदृश भीतर ही भीतर जला रही थी।
"हम लोग धन्ना सेठ नाही हैं दुलहिन, इहाँ तो चूल्हा पर खाना बनत है, चलो हम सिखाइब तोहे चूल्हा जलाना।" कहती हुई सासू माँ बाहर आ गईं, पीछे-पीछे बिंदू भी रसोई में पहुँची। उसकी सास ने उसके साथ उसकी ननद को सहायता के लिए भेज दिया। बिंदू ने ननद की सहायता से खीर, पूरी और सब्जी बनाई।
परंतु खाना खाकर सभी ने नेग की जगह अपनी-अपनी तरफ से जो बन सकता था कहा, पति ने कहा तुमही लोगन सहरी बहू चाहत रहै न, लेव मिल गई, खाना बनावै नाहीं आवत, अब बैठाय कै इनकी सुंदरता निहारौ। दूसरी ओर सास अपनी किस्मत को कोस रही थीं। बिंदू अपने कमरे में बैठी सबकी बातें सुन रही थी और बहते आँसुओं को आँचल में जब्त करती जा रही थी, उसे पता था कि अब यही उसकी किस्मत है, काश अम्मा की बात मानकर उसने खाना बनाना और घर के काम सीख लिए होते तो आज ये सब नहीं सुनना पड़ता।
"अरे अब तुम सब मिलि कै कोसत रहिहो ऊका, चुप रहौ जैसे अपनी बिटिया कै सिखाय रही हो वइसै ऊको भी सिखाय दिहो। देख्यो एकै साल मे सब सीख लीहै।" बिंदू को अपने ससुर की आवाज सुन कर खुशी हुई उसे लगा कि कोई तो है जो उसको अपना समझता है। 
उसी दिन से वह पूरी लगन से घर के सारे काम सीखने लगी, कभी सास से तो कभी ननद से पूछकर धीरे-धीरे सभी काम करने लगी। गलती होने पर पति की गालियाँ और सास के ताने भी सुनती पर कभी किसी को जवाब नहीं देती थी, कभी-कभी तो हरिओम उसपर हाथ भी उठा देता था लेकिन वह तब भी रो-धोकर शांत हो जाती पर कभी अपने अम्मा-बाबा से शिकायत नहीं की। उसे अपनी विदाई के वक्त अम्मा की कही गई एक ही बात याद थी कि"बेटी इस घर से डोली मे विदा होकर जा रही हो, ससुराल से अर्थी में ही निकलना।" उसी समय बिंदू ने मन में निश्चय कर लिया था कि माँ-बाबा के द्वारा करवाया गया बाल विवाह मैं जी-जान से निभाऊँगी चाहे जो हो जाए, इसीलिए वह अपने शराबी पति की गाली मार सब सहन करती पर कभी पलटकर जवाब नहीं देती थी।  दूसरे वर्ष में रितु का जन्म हुआ, वह उसकी परवरिश में कोई कमी नहीं रखना चाहती थी, उसे पढ़ा-लिखा कर शिक्षित बनाना चाहती थी पर यहाँ संभव नहीं था। बेटी के जन्म के बाद वह पति व अपनी सास के साथ खेतों में भी जाने लगी और वहाँ के काम भी सीखने लगी। और समय के साथ-साथ सभी कामों में पारंगत हो गई। उसे देख कर कोई भी नही कह सकता था कि उसकी परवरिश शहर में हुई है या वह शिक्षित है, वह पूरी तरह गाँव के रंग में रंग चुकी थी किन्तू जब रितु तीन साल की हो गई तो बिंदू को उसके भविष्य की चिंता सताने लगी, वह अपनी बेटी को शिक्षित करके अपने पैरों पर खड़ा करना चाहती थी लेकिन इसके लिए उसे कोई मार्ग दिखाई नहीं दे रहा था।
अपने हक के लिए कभी न बोलने वाली पत्नी माँ बनते ही साहसी हो गई, उसने हरिओम से बेटी की शिक्षा के विषय में कहा परंतु हरिओम ने सोचेंगे कहकर टाल दिया पर नियति को कुछ और ही मंजूर था अचानक हरिओम बीमार पड़ा और काफी इलाज के बाद भी जब ठीक नहीं हुआ तब जाँच करवाया और पता चला कि दारू के कारण उसका लीवर खराब हो चुका है। घर में कोहराम मच गया, पर सभी लाचार थे डॉक्टर ने भी हाथ खड़े कर दिए थे। अब हरिओम दवाइयों के सहारे जीवित था। कहते हैं जब व्यक्ति को मौत करीब दिखती है तो उसे अपने बुरे कर्मों के साथ-साथ दूसरों की अच्छाइयाँ याद आती हैं ऐसा ही कुछ हरिओम के साथ भी हुआ। बिंदू के साथ की गई सारी बदसलूकियाँ याद आने लगीं और वह पश्चाताप की अग्नि में जलने लगा। उसने चिट्ठी लिखकर अपने सास ससुर को बुलाया और रितु को उन्हें सौंपते हुए कहा- "आप इसे अपने साथ रखि के पढ़ाय-लिखाय के काबिल बनाय दो। बिंदू की तरह ईकी जिनगी खराब नाही होएक चाही।"
रितु कलकत्ता में नाना-नानी के लाड़-प्यार में पलने लगी इधर बेटी से दूर बिंदू उसके सुनहरे भविष्य के लिए अपना वर्तमान मातृत्व विहीन हो काटती रही। हरिओम बीमार रहने लगा तो घर वालों ने उसके जीते-जी रितु को ब्याह देना उचित समझा और बिंदू के लाख मना करने पर भी एक और बाल विवाह कर पिता को जिम्मेदारी से मुक्ति दिला दी। पति की बीमारी देख बिंदू भी अधिक कुछ न कह सकी। विवाह के बाद रितु फिर अपने नाना-नानी के साथ चली गई थी अपनी आगे की पढ़ाई करने और इधर हरिओम ने अपने प्राण त्याग दिए।
बेटी के सुनहरे भविष्य का सपना दिल में संजोये बिंदू पहाड़ सा वैधव्य जीवन काटने लगी। बेटी के अलावा उसके जीवन में रखा ही क्या है अब तो उसकी पूरी दुनिया उसकी बेटी तक ही सिमट गई थी। वह साल में एक बार बेटी के साथ कुछ दिनों के लिए रह कर पूरे साल की ममता की भूख शांत कर लेती, ऐसे ही साल दर साल ऐसे ही कटते रहे, एक दिन खेत से आते ही उसे सासू माँ ने बताया कि रितू के ससुर आए थे गौना का मुहूर्त तय करने।
"क्या! लेकिन अम्मा अभी तो उसकी पढ़ाई पूरी नहीं हुई है।" बिंदू बोली।
"पढ़ाई-वढ़ाई खातिर गौना नाही रुकी दुलहिन, शादी कै सतवाँ साल में गौना होय जाए क चाहीं, नाही तो दुइ साल अउर रुकै के पड़िहै, अउर हम इतना नाही रुक सकत हैं।" सासू माँ बोलीं।
वह समझ गई कि उसकी बात कोई नहीं मानेगा, इसलिए उसने अन्य किसी से कहकर उस लड़के के विषय में पता करवाया जिससे अपनी बेटी की शादी की थी। यह जानकर वह बेहद दुखी हुई थी कि लड़का शराब पीने लगा है और शिक्षा भी पूरी नहीं की।
बिंदू अपना अतीत नहीं दोहराना चाहती थी, वह बार-बार अपनी सास कभी ससुर को समझाने का प्रयास करती पर सभी ने मानों उसकी बात न मानने की ठान ली थी, चिट्ठी भेज रितु को भी बुला लिया गया पर बिंदू दिन-रात इसी चिंता में घुलने लगी कि कैसे गौना होने से रोके। अब उसे अपने पति की कमी बहुत सता रही थी वह सोचती कि काश आज वो होते तो अपनी बच्ची के लिए कुछ तो करते, ऐसे जानबूझ कर शराबी के साथ नहीं बाँध देते। वह अपनी सास को जब भी समझाने का प्रयास करती वो शादी को सात जन्मों का बंधन कहकर उसका मुँह बंद कर देतीं। बिंदू समझ चुकी थी कि अब तो जो करना है उसे ही करना होगा।
'नहीं मैं माँ हूँ, अपनी बेटी की जिंदगी अपनी तरह नहीं बनने दूँगी' और ऐसा सोचकर बिंदू ने अपने माँ-बाबा और रितु को अपनी मंशा बताकर उन्हें मना लिया था कि अब रितु तब तक के लिए नाना-नानी के साथ कलकत्ता चली जाएगी जब तक वह अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो जाती। इसी महीने उसका गौना होने वाला था, इसलिए अब उसे भेजने के लिए कोई भी राजी नहीं होगा, अतः बिंदू ने रात को चोरों की तरह अपनी बेटी को घर से भेजा। आँसू की बूँदें ढुलक कर तकिया में समा गईं, उसे सोचते-सोचते पूरी रात बीत गई सुबह होते-होते उसे नींद आ गई।
दरवाजा पीटने की आवाज सुन बिंदू की नींद खुल गई, सासू माँ दरवाजा धकेल कर अंदर आ चुकी थीं, उनके हाथ में एक कागज था वो उसे बिंदू की ओर बढ़ाती हुई बोलीं- "तुम्हरी तबियत तो ठीक है एतनी देर तक सोय रही हो, रितु कहाँ है? बाहिर दिखाई नाही दी अउर इहाँ भी नाही है।"
"पता नहीं अम्मा जी हमारी तो नींद ही नहीं खुली।" सिर पर पल्लू रखते हुए बिंदू बोली।
"अच्छा देखौ ई का है? कोई हमरे तकिया के नीचे धरे रहा।" कागज उसकी ओर बढ़ाती हुई वह बोलीं।
बिंदू ने अंजान बनने का दिखावा करते हुए कागज ले लिया और पढ़ने लगी...
"दादी जी,
हम आपको, दादा जी को और अम्मा को बहुत प्यार करते आप सबकी बहुत इज्जत करते हैं, हम जानते हैं कि आप हमारे लिए जो करेंगे वो हमारा भला सोचते हुए ही करेंगे। पर दादी जी कभी-कभी बड़े भी गलतियाँ कर देते हैं। आज आप लोग गलत कर रहे हो और मैं गलत नहीं होने दूँगी आखिर यह मेरी जिंदगी का सवाल है, अभी तो मेरी पढ़ाई भी पूरी नहीं हुई है और मुझे पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़ा होना है। दादी जी हमारी अम्मा शहर में पली-बढ़ीं और आधी-अधूरी ही सही पढ़ाई भी की पर यहाँ आकर उन्होंनें कितनी मुश्किलों से अपने आपको ढाला, यह तो आप मुझसे ज्यादा अच्छी तरह जानती हैं। मैं दूसरी बिंदू नहीं बन सकती इसलिए मैं जा रही हूँ, नाना-नानी के पास नहीं जाऊँगी क्योंकि वहाँ तो आप लोग रहने नहीं दोगे ये जानती हूँ, इसलिए बस इतना कहूँगी कि मुझे ढूँढ़ने की कोशिश मत करना और मुझे माफ कर देना। अम्मा तुम भी अपनी बेटी को माफ कर देना मैं आऊँगी तुम्हारे पास जल्दी ही।
तुम्हारी रितु।"
पढ़ते-पढ़ते बिंदू सिसक पड़ी, पत्र उसके हाथ से छूटकर नीचे गिर गया। सासू माँ सिर पकड़कर वहीं धम्म से बैठ गईं और कभी अपनी किस्मत तो कभी बिंदू को कोसने लगीं। बिंदू सब कुछ जानते हुए भी फफक-फफक कर रो रही थी क्योंकि अब तो वह अपनी बेटी से दूर होने के दुख में खुल कर रो सकती थी, पर भीतर ही भीतर मन संतुष्ट था कि उसकी बेटी बाल विवाह के दंश से बच गई।

चित्र...साभार- गूगल से
मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

8 टिप्‍पणियां:

  1. किसी चल चित्र की तरह सारे दृश्य दृष्टिगोचर हो रहे थे. बहुत बढ़िया मालती जी.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हौसलाअफजाई के लिए बहुत-बहुत आभार सुधा जी।

      हटाएं
  2. उत्तर
    1. धन्यवाद आदरणीय, क्या आपका नाम जान सकती हूँ..

      हटाएं

Thanks For Visit Here.