शुक्रवार

मेरे बाबू जी

'आप पुराने जमाने के आधुनिक पिता थे।'

जिस उम्र में बेटियाँ किसी को नमस्ते कहते हुए शर्मा कर माँ के आँचल के पीछे दुबक जाया करती थीं, उस उम्र में मैं आपकी उँगली पकड़ आपके पीछे दुबका करती थी। ऐसा नहीं है कि मुझे अम्मा की कमी नहीं महसूस होती थी लेकिन अम्मा के साथ होने पर भी मुझे संबल आपसे ही मिलता था। मैं तो अम्मा की याद आने पर आपसे दुबक कर सो जाया करती इस बात से अंजान कि हमारा भविष्य बनाने के लिए आप कितना बड़ा त्याग कर रहे थे। आज सोचती हूँ तो लगता है कि कितनी अंजान थी मैं, मेरे दामन में आकाश भर खुशियाँ थीं पर शायद मैं उनको जी भरकर जी नहीं पाई। बाबूजी, पता नहीं कभी आपने भी इस बात को महसूस किया होगा या नहीं कि दुनिया की अन्य बेटियों की तरह मुझपर मेरी माँ की आदतों का असर बहुत कम या शायद नगण्य था, मेरे आदर्श तो आप थे इसलिए मुझपर तो सदा से आपकी आदतों और विचारों का ही वर्चस्व रहा, आज भी है। आपको कभी बता न सकी कि जब कभी आप किसी के सामने मेरा समर्थन करते थे न! तो उस समय मैं इतना गौरवान्वित महसूस करती थी जैसे मुझे कोई मैडल मिल गया हो या शायद कोई मैडल भी मुझे उतनी संतुष्टि, उतनी खुशी नहीं दे सकता था। मेरे लिए तो आपकी मुस्कुराहट ही किसी तमगे से कम न थी। सभी बेटियाँ खाना बनाना, घर-गृहस्थी के अन्य काम अपनी माँ से सीखती हैं पर मुझे तो आपने सिखाया था, इसलिए जब तक आपसे अपने काम की तारीफ नहीं सुन लेती तब तक खुद को उसमें पास नहीं समझती थी। मुझे आज भी याद है जब गाँव से अम्मा के आने के बाद खाना खाते हुए बची हुई रोटियाँ देखकर आपने कहा था कि "तुमसे ज्यादा अंदाजा तो इसे है, उतना ही आटा माड़ती है कि न एक रोटी ज्यादा होती है न कम।" उस समय अपनी तारीफ सुन मेरा मन बल्लियों उछलने लगा था। 'आप पुराने जमाने के आधुनिक पिता थे।' काश मैं कभी आपसे कह पाती। जिस समय हमारे गाँव के लोग लड़कियों को सबके सामने चारपाई पर नहीं बैठने देते थे, उस समय आपने मुझे पूरी छूट दे रखी थी कि जहाँ मन हो जाओ, जिससे मन बात करो, कहीं बैठो-उठो कोई रोक-टोक नहीं। कितने ही लोगों को मुझसे जलन होती थी पर आपके कारण किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि वो मुझे कुछ कह सकें। आपसे प्रेरणा लेकर गाँव में और दो-तीन लोगों ने अपनी बेटियों को पढ़ाया था, वो अलग बात है कि दसवीं से आगे नहीं पढ़ा सके। हर कोई मेरे बाबूजी जैसा तो नहीं हो सकता। आप किस मिट्टी से बने थे कभी समझ नहीं पाई, इतने सख्त कि बड़े-छोटे किसी की हिम्मत नहीं होती थी आपके खिलाफ बोलने की, जबकि आपको कभी किसी से झगड़ते भी नहीं देखा पर कभी-कभी कुछ ऐसा कर जाना या कह जाना जिससे लगता कि आप इतने कोमल हृदय हो हम तो नाहक ही डर रहे थे, परंतु इसके बाद भी आपके समक्ष गलत बोलने या गलत करने का साहस कोई न कर सका। अपने बच्चों को सुनहरा भविष्य देने की कामना तो हर पिता की होती है, आपकी भी थी, इसीलिए तो आपने उस समय के अन्य पुरुषों की भाँति अपने बच्चों को माँ के पास नहीं छोड़ा बल्कि नौकरी करते हुए अपने साथ रखा और हमारे खाने-पीने से लेकर छोटी-बड़ी हर जरूरत का ध्यान उसी तरह रखते जैसे माँ रखती है। हमें अपने हाथों से नहलाना कपड़े धोना, खाना बनाना घर की सफाई-बरतन धोना और अपनी नौकरी भी करना। आज सोचती हूँ तो आश्चर्य होता है कि कैसे करते थे आप? आज अगर मैं बाहर नौकरी करती हूँ तो घर के कार्य कुछ-कुछ तो रोज ही रह जाते हैं, पर आपने तो सब कुछ बहीं ही कुशलता से वहन किया। आपको देखकर कभी नहीं लगा कि कोई मुश्किल आपको कभी हिला भी सकती है। साल में आठ महीने तो आप हम बच्चों के साथ अम्मा से दूर रहते थे शायद इसीलिए हमारे मन में कहीं न कहीं यह विचार पनप गया था कि अम्मा के साथ आपका रिश्ता तो सामान्य पति-पत्नी जैसा है पर वह असीम प्रेम नहीं है, जैसा अन्य लोगों में होता है। परंतु मुझे कुछ धुंधला सा याद है जब एक बार अम्मा बहुत बीमार थीं और वह बेहोश हो गईं तब आप बिलख-बिलखकर रो पड़े थे। खैर वो तो पुरानी बात हो गई उतना ही प्यार अब भी हो यह आवश्यक नहीं लेकिन अम्मा के चले जाने के बाद जब मैं आपसे मिली तब आपका फिर से वैसे ही बिलख-बिलख कर रोना मुझसे देखा नहीं जा रहा था। तब कहाँ जानती थी मैं कि आप अम्मा के बिना एक साल ही बमुश्किल निकाल पाएँगे। कहाँ जानती थी मैं कि मैं आपसे आखिरी बार मिल रही हूँ।
पहले अम्मा गईं फिर आप भी मुझे छोड़कर चले गए, अब तो मेरी मातृभूमि ही पराई हो गई, अब वो घर पराया और बेजान लगता है जिसमें कभी खुशियाँ खिलखिलाती थीं। अब भी मैं वहाँ जाकर उस घर में आपके और अम्मा के प्यार और दुलार को महसूस करना चाहती हूँ, पर वो अपनापन आप साथ ले गए जिसके सहारे मैं वहाँ एक/दो दिन रुक सकती थी। आपने अपने जीवन में सब सही किया बस एक और काम आप कर गए होते तो मैं आप दोनों को महसूस करने से वंचित नहीं होती, काश मुझे भी अपने बेटों की तरह अपनी विरासत का हकदार बनाया होता तो मैं भी उस मिट्टी की खुशबू से वंचित न होती।

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

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