बुधवार

गरीबों की नाव पर राजनीति की सवारी


सत्ता के इस महासंग्राम में कुछ राजनीतिक पार्टियों द्वारा गरीब को सदैव सारथी बनाया जाता है। जो कि अपने गरीबी के रथ पर बैठाकर अमीरी की ओर बढ़ती इन राजनीतिक पार्टियों को इस महा संग्राम के चुनावी रणक्षेत्र से बाहर विजयी बनाकर निकालता है। हमेशा इन्हीं गरीब सारथियों के सहारे चुनाव का रणक्षेत्र पार करके उसे फिर उसी प्रकार गरीबी की मँझधार में डूबने-उतराने के लिए छोड़ दिया जाता है। इसके बावजूद, इतने दशकों तक छले जाते रहने के बाद भी आज भी गरीब छले जाने के लिए तैयार हैं, ऐसा मानना है राजनीतिक दलों का, और क्यों न हो, जब तक ऐसा सोचने वालों को माकूल ज़वाब नहीं मिलता, तब तक तो उनकी धारणा यही रहेगी क्योंकि आज तक का उनका अनुभव उनका हौसला बढ़ाता है।

गरीबी यूँ तो अभिशाप है, गरीबी का दर्द क्या होता है ये गरीब के अलावा और कोई नहीं समझ सकता, लेकिन गरीब स्वार्थी ही हो यह आवश्यक नहीं, आवश्यक नहीं कि जो इंसान गरीब पैदा हो वह आजीवन गरीब ही रहे। किसी ने सत्य ही कहा है कि 'इंसान गरीब पैदा हो, इसमें उसका कोई दोष नहीं, किन्तु गरीब ही मर जाए तो वह दोषी ही नहीं अपराधी है। क्योंकि जन्म कहाँ किस परिवार में होना है ये हमारे वश में नहीं किन्तु ईश्वर प्रदत्त  शारीरिक अवयवों की सक्षमता के बाद भी यदि हम राजनीति द्वारा पोषित गरीबी के शिकार बने रहें तो यह हमारी अकर्मण्यता ही है। बहुधा देखा जाता है कि गरीबी व्यक्ति को निरीह व दया का पात्र बना देती है परंतु कुछ ऐसे उदाहरण भी दृष्टव्य हैं कि परिश्रमी व्यक्ति गरीबी से हारकर भी अपना स्वाभिमान नहीं छोड़ता। वह मुश्किलों से घबराकर परिश्रम करना नहीं छोड़ता और अंततः गरीबी के दलदल से बाहर भी निकल आता है। परिस्थितियाँ सदैव हमारे अनुकूल नहीं होतीं तो सदैव प्रतिकूल भी नहीं होतीं, आवश्यकता होती है सदैव चैतन्य अवस्था में रहते हुए उन्हें पहचानने और सही दिशा में कर्म करने की। जिस प्रकार दिवस और रात्रि प्रकृति का नियमित चक्र है उसी प्रकार सुख-दुख, अच्छा-बुरा भी नियमित चक्र है किन्तु यह तभी संभव है जब हम सदैव सकारात्मक सोच के साथ क्रियाशील रहेंगे। यदि धारणा ही ऐसी बना ली जाय की गरीब पैदा हुए हैं इसलिए गरीब ही मरेंगे, तो निश्चित ही यही होगा। कहा भी गया है कि- 'मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।' और सत्य यही है कि "व्यक्ति तब तक नहीं हारता जब तक वह हार न मान ले।" इसलिए कैसी भी परिस्थिति हो पर हार मान कर नहीं बैठना चाहिए बल्कि संघर्षरत रहना चाहिए।
आजकल चुनावी माहौल में गरीबों को लोक-लुभावने सब्ज़बाग दिखाकर उनका वोट हासिल करने का प्रयास हो रहा है। योजनाओं तक तो बात ठीक थी माना जा सकता है कि सरकार का काम है देश की जनता के हितार्थ काम करना किन्तु अब तो मुफ्त में पैसे देकर गरीबों का भला करने के वादे किए जाते हैं। ऐसा नहीं है कि ये पहली बार है, ऐसी तरह-तरह की योजनाएँ दशकों से चलती रही है, कभी किसी पार्टी के द्वारा मुफ्त में साइकिल वितरण किया गया तो कभी लैपटॉप वितरण हुआ। कभी प्रैशर कुकर बाँटा गया तो कभी साड़ी बाँटी गई, कहीं मुफ्त खाने के लिए भोजनालय खुलवा दिए गए तो कहीं मुफ्त पानी, वाई-फाई का वादा करके सत्तारूढ़ हुए। परंतु प्रश्न यह उठता है कि इतनी सारी मुफ़्त वस्तुओं के वितरण के पश्चात भी क्या गरीबी में अंश मात्र की भी कमी आई? बल्कि गरीबों की संख्या बढ़ी है, आत्महत्या की घटनाएँ बढ़ी हैं तथा सरकार पर निर्भरता बढ़ी है। कहते हैं कि 'बैठे मिले खाने को तो कौन जाए कमाने को' यह सूक्ति चरितार्थ होती नजर आती है। आम जनता में अधिकांश की धारणा बन गई है कि गरीबी उन्मूलन सरकार का काम है किन्तु यह नहीं समझ सके कि यदि मुफ्त वितरण से आर्थिक समानता आती तो हमारे देश से गरीबी कब की मिट चुकी होती। राजनीतिक पार्टियाँ जनता के इस सोच से या यूँ कहा जाए कि इस कमजोरी से भली भाँति परिचित हैं इसीलिए जब चुनाव आता है तब कर्ज़ माफी, रुपए वितरण जैसे लोक-लुभावने वादे किए जाते हैं और अकर्मण्यता के शिकार लोग लालच में आकर सिर्फ अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर ऐसी पार्टियों को वोट दे देते हैं। वो यह नहीं समझते कि ऐसे लालच देकर ये नेता उन्हें लालची और आलसी बना रहे हैं ताकि वे कभी आगे न बढ़ें और अगले चुनाव में भी उनका इसी प्रकार प्रयोग किया जा सके। परिणामस्वरूप मुफ्त का लालच देने वाली पार्टी सत्ता में आ जाती है। सोचने की बात है कि जो मुफ्त पैसे बाँटने को तैयार हो, वह ऐसा अपने स्वार्थपूर्ति के लिए ही तो करेगी, न कि गरीबों के लिए और इसीलिए सत्ता में आते ही गरीब और गरीबी भूलकर भ्रष्टाचार घोटाले आदि से अपना ख़जाना भरना प्रारंभ कर देती है और घोषित राशि कुछ दस-पाँच प्रतिशत लोगों तक पहुँचा कर दिखावे की राजनीति भी हो जाती है। परिणामस्वरूप गरीब गरीब ही रह जाते हैं और अगले आने वाले चुनाव का चारा बनने को तैयार होते हैं। यदि गरीब अपने स्वाभिमान को जगाए रखे और परिश्रम से ही आजीविका तलाशे तो कदाचित स्वयं वह अपनी नकारात्मक परिस्थितियों ने निकल सकता है और मुफ्त के लालच का शिकार बनकर देश को गलत हाथों में सौंपने के अपराध से भी बच जाएगा। हर व्यक्ति को सदैव अपने कर्मों पर भरोसा रखना चाहिए क्यों 'दैव-दैव' पुकारना आलसी का काम है। इसीलिए तो कहा गया है 'दैव-दैव आलसी पुकारा' कर्मयोगी के लिए तो 'अपना हाथ जगन्नाथ' होता है।

मालती मिश्रा 'मयंती'

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