गुरुवार

अधिकार और कर्तव्य

अधिकार और कर्तव्य
अपने बीते हुए समय पर विचार करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि समय की गति कितनी तीव्र है। आज से बस कुछ दशक पहले के लोग और उनके विचारों की तुलना वर्तमान से करें तो देखेंगे कि पहले लोग कर्म तो करते थे परंतु अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नही थे और इसी कारण अक्सर सामाजिक और आर्थिक हानि उठाते थे परंतु वर्तमान में परिस्थिति बिल्कुल विपरीत हो गई है, आजकल लोग अधिकारों से अधिक और कर्तव्यों से कम परिचित हैं। एक शिशु जब जन्म लेता है तब से ही नहीं बल्कि गर्भ में आने के साथ ही उसके अधिकार निश्चित हो जाते हैं, जन्म के पश्चात् अधिकारों के वट वृक्ष के नीचे वह पोषित होता है। जैसे-जैसे उसका शारीरिक व मानसिक विकास होता जाता है उसके दायित्वों का जन्म होने लगता है। अब वह अधिकारों की उँगली थाम दायित्वों के निर्वहन की ओर बढ़ता है। माता की ममता पिता की सुरक्षा परिजनों के प्यार-दुलार के अधिकारों की छाँव में पुत्र/पुत्री, भाई/बहन, पोता/पोती आदि के दायित्वों को सीखता है। पहले इनका संतुलन बखूबी देखने को मिलता था, व्यक्ति परिवार के प्रति, समाज के प्रति और देश के प्रति उत्तरदायी होता था किन्तु आज पुत्र अपने माता-पिता की संपत्ति पर तो पूरा अधिकार जताता है किन्तु कर्तव्य पालन का समय आता है तो परिवार से महरूम कर उन्हें वृद्धाश्रम में छोड़ देता है। विचारणीय है कि जो व्यक्ति अपने पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन नहीं कर सकता वह सामाजिक व राष्ट्रीय दायित्वों का निर्वहन कैसे करेगा!
वर्तमान समय में सभी को स्वच्छ और सुरक्षित परिवेश चाहिए परंतु वह सिर्फ दूसरों से चाहिए। जब रास्ते चलते हुए कागज फेंकते हैं, केले खाकर उसका छिलका फेंकते हैं, गुटखा, पान, तंबाकू खाकर जगह-जगह थूकते हैं, तब यह विचार मस्तिष्क में नहीं आता कि आसपास के क्षेत्रों को साफ रखना हमारा कर्तव्य। स्थिति हास्यास्पद और दुखद तब हो जाती है जब गंदगी फैलाकर कहते हैं सरकार प्रचार के लिए सफाई अभियान का ढोंग करती है। अस्वच्छता के लिए दूसरों पर उँगली उठाने वाले स्वयं ही गंदगी फैलाते हैं क्योंकि दायित्वों को निभाने में लगने वाली थोड़ी मेहनत वो नहीं करना चाहते। कौन ढूँढ़े कूड़ेदान....कौन ढूँढ़े शौचालय...जहाँ तन वहीं विसर्जन।
अपने गंतव्य पर जाते हुए सड़क पर कोई दुर्घटना का शिकार घायल पड़ा तड़प रहा होता है तो लोग पास खड़े होकर तमाशा देखते हैं, सहानुभूति जताते हैं किन्तु मानवता का धर्म निभाते हुए कोई उसकी मदद नहीं करता, फिर चाहे वह घायल तड़पते हुए दम ही तोड़ दे किन्तु वहीं जब पीड़ित कोई अपना होता है तो दूसरों को कोसते हैं, सिस्टम को कोसते हैं।
ऐसी कितनी ही दुर्घटनाओं को टाला जा सकता है यदि चालक अपने दायित्व का ध्यान रखकर वाहन चलाएँ और दुर्घटना के पश्चात् यदि लोग मूकदर्शक बनने के बजाय एक मानव का दायित्व निभाएँ या जिम्मेदार नागरिक होने का दायित्व निभाएँ तो कितनी ही जानें बचाई जा सकती है।
हमें सड़क पर स्वच्छंद होकर चलने का अधिकार चाहिए परंतु वही सड़क सभी के लिए सुरक्षित हो सके इसके लिए अपनी स्वच्छंदता पर थोड़ा अंकुश लगाने को तैयार नहीं। अधिकतर देखा जाता है कि जब हम किसी दफ़्तर में अपना कोई काम करवाने जाते हैं तो हमारा कार्य शीघ्रातिशीघ्र बिना दौड़-भाग के हो जाए इसके लिए चपरासी से लेकर अफसर तक को टेबल के नीचे से रिश्वत देते हैं फिर कहते हैं चारों ओर भ्रष्टाचार व्याप्त है। छोटे से लेकर बड़े व्यापारी तक सरकार को टैक्स देकर अपना नागरिक होने का उत्तरदायित्व नहीं निभाना चाहते और सुविधाएँ अमेरिका, स्विट्ज़रलैंड वाली चाहते हैं।
आज भी हमारे देश की जनता का एक बड़ा भाग मुफ्त की मलाई चाहते हैं, वह कर्म करने के दायित्व का निर्वहन भी नहीं करना चाहते और उम्मीद करते हैं कि सरकार उन्हें बिना कर्म ही रुपए या अन्य आवश्यक वस्तुएँ प्रदान करे और इसीलिए स्वार्थ के वशीभूत होकर सही या गलत को जाँचे बगैर ऐसा निर्णय ले लेते हैं कि अधिकारों की माँग रखने वाले ही भविष्य में अपने न जाने कितने अधिकारों से हाथ धो बैठते हैं। ऐसे लोग अधिकारों के नाम पर भ्रमित होते हैं और निर्णय नहीं कर पाते कि वास्तव में अधिकार का सही स्वरूप है क्या। सभी को नौकरियों में उच्च पद चाहिए परंतु शिक्षा ग्रहण करने के दायित्व का निर्वहन करने के बजाय आरक्षण की ढाल ओढ़कर सब हासिल करने का प्रयास करते समय हम यह नहीं सोचते कि जो परिश्रम से योग्यता प्राप्त करते हैं हम उनके अधिकारों का हनन कल रहे हैं।
वह स्थिति अति दुखद प्रतीत होती है जब एक जघन्य अपराध करने वाला अपराधी भी न्यायालय में मानवाधिकार की दुहाई देकर सजा से बचना चाहता है परंतु न्यायालय को यह कहते नहीं सुना जाता कि उसने जिसकी हत्या या बलात्कार का अपराध किया क्या उसका कोई मानवाधिकार नहीं था? उस समय मन और अधिक कुंठित हो उठता है जब आतंकवादियों के लिए भी मानवाधिकार की दुहाई दी जाती है, क्या उसने मानव होने का दायित्व निभाया? नहीं, तो मानव होने का अधिकार क्यों?
अधिकार और कर्तव्य एक-दूसरे के साथ चलते हैं, एक के बिना दूसरे का कोई अस्तित्व नहीं जिस दिन व्यक्ति को यह समझ आ जाएगा उस दिन वह स्वार्थ से मुक्त हो एक आदर्श नागरिक की श्रेणी में आ जाएगा।
मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

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