मंगलवार

राजनीति का शिकार भारत का किसान

 

राजनीति का शिकार भारत का किसान

'किसान'..... इस साधारण से शब्द में एक ऐसी महान छवि समाई हुई है जो संपूर्ण मानव समाज का ही नहीं बल्कि पशु-पक्षियों का भी पोषक है, जो अन्नदाता है। जो स्वयं भूखा रहकर औरों का पेट भरता है, जो स्वयं चीथड़े लपेट औरों के लिए कपास और रेशम तैयार करता है। 'जय जवान जय किसान' का नारा यही दर्शाता है कि ये दोनों ही समाज और देश के वो कर्णधार हैं जिनके कंधों पर देश का रक्षण और भरण-पोषण टिका हुआ है, जिनके कारण ही देश का अस्तित्व कायम हैं बाकी सब तो उत्कृष्टता बढ़ाने की सामग्री हैं। यदि घर की दीवारें ही न हों तो सजाएँगे किन्हें?

सदियों से यही चला आ रहा है किसान अपने दिन का आराम और रात की नींदें कुर्बान करके अपनी फसल को पुत्रवत् पोषित करता है।

वह मौसम की हर मार से उसे बचाने का प्रयास करता है। पूस-माघ की कड़कड़ाती सर्दी में भी यदि उसे आभास हो कि सुबह पाला पड़ने वाला है तो उस पाले से अपनी फसल को बचाने के लिए वह हड्डियाँ गलाने वाली सर्दी की परवाह किए बिना रात को खेतों में पानी भरता है ताकि सुबह का पाला उसकी फसल खराब न कर सके। उस भयंकर सर्दी में भी वह फसल की रखवाली के लिए घर की छत का आनंद छोड़कर खेतों में पड़ी टूटी-फूटी झोपड़ी में सोता है, हिंदी के महान साहित्यकार 'मुंशी प्रेमचंद' की कहनी 'पूस की रात' में किसान की इसी दशा का वर्णन मिलता है। कठोर परिश्रम और देख-रेख के बाद जब वह अंकुर निकलते देखता है तो इस प्रकार प्रसन्न होता है जैसे एक पिता अपने पुत्र को पहली बार देखकर प्रसन्न होता है। लहलहाती फसल को देखकर उसकी छाती उसी प्रकार गर्व से फूल जाती है जिस प्रकार अपने पुत्र की तरक्की से एक पिता की।
उस फसल को देखकर उसे अपनी पत्नी की वह सूती साड़ी याद आती है जो कई जगह से सिलकर पहनने लायक बनाई गई है, उसे अपनी पत्नी के लिए नई साड़ी की उम्मीद उस फसल में नजर आती है, अपने बच्चों की कई महीने से रुकी हुई स्कूल की फीस और किताबें तथा बूढ़े पिता के टूटे हुए चश्में की उम्मीद नजर आती है। बिटिया की शादी के लिए बचत करने के सपने भी आँखों में पलने लगते है। वह फसल कटकर घर आने से पहले पूरे परिवार के महीनों से रुकी जरूरतों के पूरा होने की उम्मीद जगा देती है, इसीलिए फसल को किसी भी प्रकार की क्षति से बचाने के लिए, उसे समय पर पानी और खाद मिले इसके लिए किसान हर संभव प्रयास करता है यहाँ तक कि उसके खाद, सिंचाई आदि की व्यवस्था के लिए फसल पकने पर कर्ज चुका देने की पूरी आशा के साथ वह कर्जदार भी बन जाता है।
खेत की जोताई, बीज रोपाई, सिंचाई ,फसल की खाद आदि से लेकर अनाज घर तक लाने के लिए वह न जाने कितनी नींदें और कितने समय का भोजन भी त्याग चुका होता है परंतु जब उसकी आवश्यकताओं के पूरा होने का समय आता है तो इसी फसल को तैयार होने तक लिया गया कर्ज उसके समक्ष मुँह बाए खड़ा होता है। वह चाह कर भी कर्ज से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाता, चाह कर भी अपने सपने पूरे करना तो दूर अपनी आवश्यक आवश्यकताएँ भी पूरी नहीं कर पाता। उसी फसल में से उसे अगली फसल में लगने वाला खर्च भी निकालना होता है और पूरे साल परिवार का भरण-पोषण भी करना है सामाजिक और पारिवारिक जिम्मेदारियाँ भी पूरा करना है ऐसे में यदि अनाज का उचित मूल्य न मिल सके या उसे बेचने की सही सुविधा का अभाव हो तो वह तो वैसे ही असहाय हो जाता है।
हमारे हिंदी साहित्यकारों ने अपने साहित्य में किसानों की जिस दयनीय दशा का उल्लेख किया है माना कि वर्तमान समय में किसानों की स्थिति उससे भिन्न है परंतु यह भी सत्य है कि पूर्णतया भिन्न नहीं है, किसान आज भी कर्ज के बोझ तले दबा है, किसान आज भी मौसम की मार झेलता है, वह पहले मदद के लिए साहूकारों का मुँह देखता था, वह आज भी मदद के लिए सरकार का मुँह देखता है। आज भी उसे अपनी मेहनत को औने-पौने दाम में बेचना पड़ता है।
इतनी समस्याएँ क्या कम थीं जो आजकल राजनीतिक पार्टियों द्वारा आए दिन आंदोलन, बंद आदि करवाकर इनके लिए और समस्या खड़ी कर दी जाती हैं। खेत के खेत खड़ी फसलों को बर्बाद कर दिया जाता है, ट्रक के ट्रक सब्जियाँ, दूध आदि बर्बाद किए जाते हैं, जो कि किसान की स्वयं की सहमति नहीं होती उससे जबरन करवाया जाता। कोई भी किसान पुत्रवत पाली गई फसल बर्बाद नहीं कर सकता। ऐसी अनचाही परिस्थिति का वह राजनैतिक शिकार होता है और अनचाहे ही राजनीति के जाल में फँस जाता है।

मालती मिश्रा 'मयंती'

6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 10.12.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
    धन्यवाद
    दिलबागसिंह विर्क

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    1. हार्दिक आभार दिलबाग सिंह विर्क जी

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