शनिवार

सत्ता की सीढ़ी

आज जब हर तरफ दलित-दलित का शोर सुनाई पड़ रहा है 'दलित' सिर्फ एक राजनीतिक शब्द बन कर रह गया है, जो लोग दलित वर्ग के हितैशी बने घूम रहे हैं उन्हें तो दलित का 'द' भी पता न होगा....उन्हें कैसे पता होगा कि दलित किस प्रकार जीते हैं उनकी परेशानियाँ कैसी होती हैं उनका रहन-सहन कैसा होता है? बस पुस्तकों में पढ़ लेने मात्र से किसी वर्ग विशेष के विषय में गहराई से नहीं जाना जा सकता हाँ राजनीति जरूर की जा सकती है| यदि वो दलित वर्ग की कठिनाइयों व उनकी पीड़ा से अवगत ही हैं और सचमुच ही उनका निवारण करना चाहते तो साठ-पैंसठ सालों का समय बहुत होता है किसी वर्ग विशेष की स्थिति को सुधारने के लिए... परंतु यदि आज तक दलित सिर्फ दलित ही है तो कम से कम जो पहले सत्ता में रह चुके हैं उन्हें इस विषय में कुछ कहते हुए सोच कर ही बोलना चाहिए परंतु नही....इस सारे ड्रामे के निर्माता, निर्देशक, फाइनेंसर, संवाद लेखक सब तो वही हैं, क्योंकि समाज को बाँटकर दुबारा सत्ता में वापस आने के लिए यही रास्ता उन्हें उचित लगा या यूँ कह लें कि लोगों को इतना अवसर नही देना चाहते कि उनकी दृष्टि इनकी काली करतूतों पर पड़े...इसलिए समाज को गुमराह करने का ये एक तरीका मात्र है....
आज देशद्रोह का परचम लहराने वाले को देश का हीरो बनाकर पेश किया जा रहा है इसलिए नहीं कि वो दलित है, बल्कि इसलिए क्योंकि देश की व्यवस्था को डगमगाने का जरिया है, इसलिए कि उसके कंधे पर बंदूक रखकर सरकार पर निशाना साधा जा सके, इसलिए भी कि समाज को दलित, जनरल यानि उच्च और निम्न की श्रेणी में बाँटा जा सके....और ये कहना गलत न होगा कि काफी हद तक कामयाबी भी मिली है इन स्वार्थी काली राजनीति करने वालों को....
पहले कोई एक ही राजनीतिक पार्टी देश पर सालों निष्कंटक राज्य करती है उसे ये सत्य तो ज्ञात था ही कि कभी न कभी तो जनता जागेगी और उससे उसके कामों का हिसाब माँगेगी इसलिए उसने देश के विकास से ज्यादा अपने विकास और कन्हैया, केजरी, हार्दिक पटेल जैसे असामाजिक तत्वों का विकास करने में ध्यान दिया और ऐसे कार्यों के लिए जेएनयू जैसी संस्था का प्रयोग किया गया.....ये सब आम जनता को दिखाई पड़ रहा है कि किस प्रकार उस देश में जहाँ सड़क पर दुर्घटना हो जाने पर एक व्यक्ति तड़पते हुए दम तोड़ देता है परंतु लोग तमाशा देखते हुए निकल जाते हैं और उसकी मदद को आगे नहीं आते वहीं पर एक बेहद साधारण से छात्र का इतना साहस होता है कि वो हमारे ही देश के खिलाफ नारे लगाता है और उसके समर्थन में लाखों लोग खड़े हो जाते हैं, वो साधारण छात्र महँगे वकीलों, महँगी गाड़ी तथा वी आई पी की भाँति सुविधाएँ प्राप्त करता है, तो फिर क्या ये सब सिर्फ इसलिए कि वो दलित है?
या इसलिए की वो किसी बड़ी हस्ती की डूबती नाव का पतवार है....
आज देश में बहस का मुद्दा कन्हैया नहीं, बहस का मुद्दा कोई दलित भी नहीं बल्कि मुद्दा सिर्फ ये है कि क्या जनता सिर्फ भावनाओं में बह कर ऊँच-नीच में बँटकर इन सत्ता के लोभियों की लालच का शिकार होगी या फिर खुद की समझदारी का प्रयोग करते हुए ऐसे लोगों को मुँहतोड़ जवाब देकर ये बताएगी कि हम तुम्हारे घिनौने साजिश का शिकार नहीं होने वाले....

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