सोमवार

तेरी गली

आज कई साल बाद मैं
उसी गली से गुजरा
प्रवेश करते ही गली में
फिर वही खुशबू आई
मानों तेरी ज़ुल्फें लहराई
हों और फ़िजां में भीनी-भीनी
खुशबू फैल गई
हवा का झोंका मेरे तन को
छूकर कुछ यूँ गुजरा
मानों तेरी चुनरी मुझे
सहलाती हुई उड़ गई
मैं लड़खड़ाया
सहारे के लिए दीवार
पर हाथ टिकाया
बिजली सी दौड़ गई
मेरे तन-मन में
मानों मरमरी हथेली
पे तेरे मेरी हथेली टिकी हो
वो नुक्कड़ का आखिरी मकान
परदा हौले से हिला
लहराती जुल्फों की लटें
किसी के छिपने की
चुगली कर रही थीं
एक किनारा खिसका
उस मखमली चिलमन का
हजारों जुगनुओं सी
झिलमिलाती वो आँखें
मेरी नजरों से मिलते ही
शरमा कर वो पलकों का झुक जाना
ऐसा लगा मानों दाँतों ने
नाजुक उँगली पर ज़ुल्म था ढाया
गालों पर बिखरी थी
हया की लाली
अधरों का वो कंपन
झंकृत कर रहा था मेरे
दिल के तार
फिर तेज हवा का झोंका आया
उस घर का वो परदा
जोर से लहराया
हाय! मेरे दिल की तरह
वो घर फिर खाली नजर आया

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

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6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब... महोदया
    ऐसा लगा मानो दाँतो ने
    नाजुक उंगली पर जुल्म था ढाया..

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    उत्तर
    1. आपकी टिप्पणी ने उत्साह बढ़ाया आदरणीय, धन्यवाद।

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  2. बहुत ही सुन्दर रचना

    जवाब देंहटाएं
  3. उत्तर
    1. उत्साह बढ़ाने के लिए बहुत-बहुत आभार आ०मीना जी।

      हटाएं

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