शनिवार

माँ

माँ...
आज तुम्हारी बहुत
याद आ रही है
अपने इस सूने
जीवन में
तुम्हारी कमी
बहुत सता रही है
क्या खता थी मेरी
आखिर
मैं भी तो तुम्हारी
जाई थी
क्यों बेटे तो अपने
लेकिन बेटी पराई थी
चलो छोड़ो
वो दुनिया की रीत थी
ये मानकर हमने निभा लिया
पर क्यों बेटों ने
तुम पर भी
अपना आधिपत्य जमा लिया
जिस आँगन में खनकती
थी हँसी मेरी
आधा जीवन बीता था
उस आँगन से मेरी
तुलसी भी माँ
क्यों बेटों ने तेरे हटा दिया
जब तक थीं तुम
मैं आती थी
झूठा ही सही
पर थोड़ा तो
अपना अधिकार जताती थी
पर तुम भी निष्ठुर हो गईं
मुझसे मुख अपना मोड़ लिया
निर्दय दुनिया में क्यों माँ
अकेली मुझको छोड़ दिया
सच कहूँ तो अब लगता है
कि वह घर पराया
हो गया
जन्म जहाँ पाया मैंने
वो अंजाना साया हो गया।

मालती मिश्रा 'मयंती'

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