शनिवार

अभिव्यक्ति का अधिकार

अभिव्यक्ति का अधिकार
स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक होने के नाते हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी प्राप्त है और सभी इस स्वतंत्रता का अपने-अपने ढंग से भरपूर लाभ भी उठाते हैं। स्वतंत्रता केवल मनुष्य मात्र के लिए नहीं अपितु समस्त जीवधारियों के लिए वरदान समान है, फिर चाहे वह विचाराभिव्यक्ति की हो या जीवन जीने की। परतंत्रता कब किसी को रास आई है चाहे वह मनुष्य हों या पशु-पक्षी। जैसा कि शिवमंगल सिंह 'सुमन' जी ने अपनी कविता में भी लिखा है कि..
"हम पंछी उन्मुक्त गगन के,
पिंजरबद्ध न गा पाएँगे।
कनक तीलियों से टकराकर,
पुलकित पंख टूट जाएँगे।"

परतंत्रता के व्यंजनों में वह स्वाद कहाँ जो स्वतंत्रता की रूखी-सूखी रोटी में है। हर प्राणी अपने हिस्से की आजादी और अधिकार चाहता है और वह तभी सुखी व प्रसन्न रह पाता है जब वह अपने अधिकारों का भरपूर प्रयोग करता है, जब किसी क्षेत्र में वह अपने अधिकार बंदिश में  महसूस करता है तो व्यक्ति को अपना जीवन दुरुह प्रतीत होने लगता है। ऐसा तभी होता है जब एक व्यक्ति या वर्ग के अधिकारों पर दूसरे व्यक्ति या वर्ग का वर्चस्व हावी होने लगता है। छोटे-छोटे कीट-पतंगे हों या सर्व शक्ति सम्पन्न मानव सभी अपने से कमजोर पर अपनी सत्ता स्थापित करना चाहते हैं इसीलिए अनुशासन बनाए रखने हेतु नियम व कानून बनते हैं ताकि किसी एक की आजादी दूसरे के लिए अभिशाप न बने और सभी को समान अधिकार प्राप्त हो सके किन्तु आजकल अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर प्राप्त अधिकारों का इतना अधिक दुरुपयोग हो रहा है कि अधिकतर इसका विकृत रूप ही दृश्यमान होता है। अभिव्यक्ति के नाम पर देश विरोधी नारे लगाना, देश के द्वितीय सर्वोच्च संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति को निम्नतम स्तर तक जाकर गालियाँ देना, कहाँ तक उचित है? क्या ऐसी अभिव्यक्ति को आजादी मिलनी चाहिए। फिर देश की आम जनता को कष्ट तब होता है जब आम नागरिक की छोटी सी गलती के लिए उसे वही कानून सजा देता है जो कानून देश विरोधी नारों और कृत्यों के लिए उनकी अभिव्यक्ति की आजादी बताकर उन्हें छोड़ देता है। मुझे आज भी याद है जब कुछ वर्ष पहले महाराष्ट्र में एक लड़की और उसकी मित्र को इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया था क्योंकि उसने वहाँ के जाने-माने नेता के लिए घोषित अवकाश के विरोध में सोशल मीडिया में कुछ लिखा था और उसकी मित्र ने समर्थन स्वरूप लाइक किया था। तब वहाँ की पुलिस ने जबरन उन्हें गिरफ्तार कर लिया था और अब हमारे देश की राजधानी दिल्ली में देश के खिलाफ नारे लगाए जाते हैं पर पुलिस चार्जशीट तक तैयार नहीं कर पाती क्योंकि अभिव्यक्ति का अधिकार बताकर राज्य सरकार उसको अनुमति नहीं देती। विरोधी पार्टियों के नेता प्रधानमंत्री को गालियाँ देते हैं क्योंकि उन्हें अभिव्यक्ति की आजादी है परंतु कानून उनके खिलाफ कोई कदम नहीं उठा सकता क्योंकि गालियाँ देने वाले आम नागरिक नहीं हैं तो क्या संविधान ओहदा, रुतबा व खानदान देखकर परिवर्तित होता रहता है? अभी चंद वर्ष पूर्व अखलाक नामक एक विशेष धर्म के व्यक्ति की हत्या किसी दूसरे धर्म के व्यक्ति के द्वारा कर दी जाती है तो संविधान के पूजकों द्वारा, कुछ कलम के पुजारियों द्वारा और कुछ अन्य बुद्धिजीवियों तथा मीडिया के द्वारा सिर्फ अपने ही देश में नहीं बल्कि अन्य दूसरे देशों में भी हमारे देश को असहिष्णु घोषित कर दिया गया जबकि अभी कुछ दिन पहले ही उसी विशेष संरक्षण प्राप्त वर्ग के लोगों के द्वारा पहले तो एक लड़की को उसके ही घर के पास छेड़ा जाता है फिर पिता के द्वारा अपनी पुत्री की सुरक्षा की कोशिश में पिता और भाई को चाकुओं से निर्ममता पूर्वक गोद दिया जाता है जिसमें पिता की मृत्यु हो जाती है। ...अब सभी शांति हैं.. न मीडिया चीख रही, न बुद्धिजीवियों की बुद्धि जागी, न साहित्यकारों के पास वापसी के लिए कोई अवॉर्ड बचे, न ही उनकी कलमों में स्याही बची...।।।आखिर क्यों????
क्योंकि इस बार पीड़ित आपके चहेते आपके द्वारा सुरक्षित वर्ग का नहीं या फिर इसलिए क्योंकि अपराधी आपके द्वारा सुरक्षित वर्ग के हैं???
कारण जो भी हो पर सवाल यही उठता है कि संविधान कहाँ है? किसके लिए है?
अभी आज ही टी.वी. पर समाचार देखा कि पश्चिम बंगाल के एस.आई.टी. अधिकारी राजीव को शारदा चिटफंड घोटाले के मामले में सी.बी.आई. गिरफ्तार करना चाहती थी तो वहाँ की मुख्यमंत्री ही गिरफ्तारी के विरोध में धरने पर बैठ गईं और उनकी माँग पर संविधान की रक्षक न्यायालय ने न सिर्फ गिरफ्तारी पर रोक लगाई बल्कि उसे सुरक्षा भी प्रदान किया। एक ऐसा व्यक्ति जो शक के घेरे में हो उसको बचाने के लिए मुख्यमंत्री खुलेआम धरना-आंदोलन आदि करने लगे तो इससे क्या यह विश्वास नहीं हो जाता कि असली गुनहगार कौन है! खैर जब सुनवाई के दौरान सुप्रीमकोर्ट को राजीव की गिरफ्तारी आवश्यक लगी तब भी इसी सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा उसे सात दिन का अवसर दिया जाता है कि वह अग्रिम जमानत ले ले ताकि उसकी गिरफ्तारी न हो सके...यदि यहाँ राजीव की जगह कोई आम नागरिक होता तो देश का यह सर्वोच्च न्यायालय उस आम नागरिक को भी यह अवसर देता कि वह अपने लिए अग्रिम जमानत ले ले... नहीं, तब हमारा संविधान कुछ और कहता। कई निरपराधों को सिर्फ शिकायत के बाद कई दिनों तक हवालात में घुटते देखा है। परंतु ये ओहदे व रसूखदारों का संविधान भी गिरगिट की तरह रंग बदलता है।
पश्चिम बंगाल में ही अभी हाल ही में चुनावों की गहमागहमी में किसी भाजपा कार्यकर्ता के द्वारा वहाँ की मुख्यमंत्री का चेहरा प्रियंका चोपड़ा के चेहरे की जगह लगाकर सोशल मीडिया पर अपलोड कर दिया जाता है जिसके लिए उस कार्यकर्ता को गिरफ्तार करवा दिया जाता है जबकि वही मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री को न जाने कितने अपशब्द कहती हैं जो उनके पद की गरिमा को धूमिल करते हैं पर उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं होती क्योंकि उनका ओहदा उस कार्यकर्ता के ओहदे से बड़ा है..!! इसलिए अभिव्यक्ति की आजादी उन्हें ज्यादा है..!!! अपने देश में जब संविधान के रक्षक न्यायालय का ये दुहरा रवैया देखने को मिलता है तब मन खिन्न हो जाता है और संविधान व न्यायपालिका रसूखवालों के हाथ की कठपुतली मात्र नजर आता है।
जाने-माने लेखक श्री यशपाल जी द्वारा लिखित 'दुख का अधिकार' में जिस तरह उन्होंने दर्शाया है कि दुख मनाने का अधिकार भी उसी के पास है जो रसूखवाला है, निर्धन तो किसी अपने को खोने का दुख भी नहीं मना सकता। उसी प्रकार संविधान भी इतना लचर है कि यह रसूख देख रंग बदलता है या यूँ कहें कि संविधान स्वतंत्र नहीं बल्कि रसूख वालों के हाथ की कठपुतली है, तो गलत न होगा, जहाँ जिसका आधिपत्य होगा वहाँ उसी के अनुसार कानून चलेगा।

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

4 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 18/05/2019 की बुलेटिन, " मजबूत इरादों वाली अरुणा शानबाग जी को ब्लॉग बुलेटिन का सलाम “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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    1. सूचित करने के लिए आभार शिवम मिश्रा जी

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  2. शानदार मीता सही और खरी बात।
    सब ढोल की पोल है।

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    1. समर्थन के लिए हृदय से आभार मीता
      आपका शुभ नाम जानना चाहूँगी।

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