जब रक्षक ही बन जाए भक्षक
समाज में कानून व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी पुलिस और न्यायालय की होती है। समाज में अपराध को रोकना पुलिस का उत्तरदायित्व है तो पुलिस द्वारा पकड़े गए अपराधी को उसकी सही जगह पहुँचाना अर्थात् सजा दिलवाना वकील का उत्तरदायित्व होता है, किन्तु जब समाज के यही दोनों रक्षक स्वयं एक-दूसरे के भक्षक बन जाएँ तो कानून व्यवस्था तो फिर भगवान भरोसे भी नहीं होगी क्योंकि आपराधिक प्रवृत्तियाँ तो सदैव क्रियाशील रहती हैं।
दिल्ली में 2 नवंबर (शनिवार) को वकीलों और पुलिसकर्मियों के बीच हुई हिंसक झड़प को महज़ इत्तेफाक कहना उचित नहीं जान पड़ता। यदि दिनरात कानून की धाराओं के मध्य बहने वाला वकील ही सरेआम गैरकानूनी कार्य करने लगे और उसे कानून के दूसरे रक्षक के द्वारा रोके जाने पर पहले से भी बड़ा अपराध करे, गुंडागर्दी करे तो इसके इत्तेफाक होने पर सवालिया निशान लगना स्वाभाविक है। जैसा कि अभी तक जानने में आया कि लॉकअप की सुरक्षा में तैनात एक पुलिसकर्मी द्वारा लॉकअप के बाहर एक वकील को गाड़ी खड़ी करने से रोकने पर वकील ने अपने दोस्तों के साथ मिलकर उस पुलिसवाले को पीट दिया और नजदीकी पुलिस स्टेशन में खबर पहुँचने पर पुलिवालों ने एक वकील को जो शायद वही हो सकता है, उसे जबरन मारपीट कर घसीटते हुए ले जाकर पुलिस स्टेशन में बंद कर दिया। ऐसी स्थिति में उस वकील के स्थान पर यदि एक आम नागरिक होता तो पहले तो वह इस बात के लिए पुलिस वाले से उलझता ही नहीं और अगर ऐसा होता भी तो उसे लॉकअप से बाहर निकालने में परिजनों व मित्रों की चप्पलें घिस जातीं पर यहाँ क्या हुआ? वकीलों का गिरोह जी हाँ गिरोह ही कहे जाएँगे जब ऐसे गैरकानूनी काम करेंगे। वकीलों का गिरोह थाने में घुसता है पुलिसवालों को पीटता है, मेज कुर्सियाँ तोड़ते हैं, बेल्ट से एक पुलिसकर्मी को इतना मारा कि वह बेहोश हो गया और अपने साथी को छुड़ाकर ले जाते हैं। क्या हम आम जनता इन्हें कानून का रखवाला कहें?
2:30 के आसपास की इस घटना के बाद लगभग 3:15 बजे एडिशनल डीसीपी अपनी फोर्स के साथ तीसहजारी कोर्ट पहुँचे तो वकीलों के झुंड ने उन्हें भी पीटा और कानून का वह रक्षक अपनी जान की रक्षा के लिए लॉकअप में अपराधियों के मध्य शरण पाता है। सवाल उठता है कि कानून के इन रक्षकों की रक्षा कौन करे और किससे? कानून के दूसरे तथाकथित रक्षकों से!
वकीलों की गुंडागर्दी यहीं बस नहीं होती बल्कि लॉकअप के बाहर खड़ी गाड़ियों में तोड़फोड़ और आगजनी की जाती है जिसके धुएँ से लॉकअप में बंद लगभग 128 कैदियों का दम घुटने लगता है, जैसे-तैसे आग बुझाकर उनकी जान बचाई गई। नि:संदेह आग बुझाने वालों में कोई वकील तो नहीं होगा।
यदि उन कैदियों की जान जाती तो जिम्मेदार कौन होता? कानून के यही रक्षक? जो रक्षा तो शायद ही कभी करते हों। इसके बाद आप ही सोचें क्या हो सकता था, जी वही हुआ जिसका अंदेशा था, यहाँ कानून की लड़ाई तो थी ही नहीं, यहाँ तो गैंगवार चल रहा था, 4:15 बजे स्पेशल कमिश्नर पहुँचे और वकीलों पर लाठीचार्ज करके डीसीपी को लॉकअप से बाहर निकाला, अब कमजोर तो वकील भी नहीं हैं वैसे भी भीड़ ताकतवर तो होती ही है तो हाथपाई, मार-पीट आदि में कथित तौर पर हवाई फायरिंग भी हुई और वकीलों के अनुसार दो वकील घायल हो गए। अब तक जो पता चला कि 17 गाड़ियों की बलि चढ़ गई, 2 एस एच ओ समेत 20 पुलिस वाले और 8 वकील घायल हैं।
लगभग पूरे दिन खुलेआम दोनों पक्षों के द्वारा कानून की धज्जियाँ उड़ाए जाने के बाद वकीलों का आंदोलन शुरू हो गया। सोमवार को न्यूज चैनल पर दो घटनाएँ एक साथ दिखाई जा रही थीं एक कड़कड़डूमा कोर्ट के आसपास की थी तो दूसरी साकेत की थी। एक वीडियो जिसमें एक पुलिसवाला मोटरबाइक से अपनी ड्यूटी पर जा रहा था वहाँ वकीलों का झुंड मिलकर उसे पीट-पीटकर वापस भगा देते हैं वहीं दूसरी वीडियो में एक अन्य आम राहगीर को वकीलों का झुंड मिलकर पीटता है और उसे जिधर से आया था उधर ही वापस भगा देता है। जो लोग इस घटना की वीडियो बना रहे थे उनके मोबाइल तोड़ दिए और उन्हें भी पीटा। ये करतूत वकीलों के उन गिरोहों की है जो आंदोलन कर रहे हैं और कहते हैं कि जब तक सरकार लॉयर्स प्रोटेक्शन ऐक्ट नहीं लागू करती तब तक वे ये आंदोलन खत्म नहीं करेंगे और देशव्यापी स्तर पर ले जाएँगे।
अब एक सवाल मुझ जैसे आम नागरिक का...
जब लॉयर्स प्रोटेक्शन ऐक्ट नहीं है तब लॉयर्स पुलिस को पुलिस नहीं समझ रहे, कानून की खुलेआम धज्जियाँ उड़ा रहे हैं। यदि यह ऐक्ट लागू होता है तो क्या यह कानून के रखवालों की श्रेणी में आएँगे? क्या अंतर है इन वकीलों और गुंडों में? ये कैसे कानून के रक्षक हैं जो खुद गुंडागर्दी करते हैं? लॉयर्स प्रोटेक्शन ऐक्ट लागू करने के बाद क्या गारंटी है कि ये इस तरह की गुंडागर्दी हर दिन, हर जगह, हर तबके के साथ नहीं करेंगे?
दोष किसका है किसका नहीं यह तो निष्पक्ष जाँच के बाद ही पता चलेगा, परंतु जिन घटनाओं के वीडियो अबतक देखे हैं उनसे तो एक ही जगह पुलिवालों की इंसानियत शर्मसार होती दिखाई दी जब वो एक अकेले वकील को घसीटते हुए पुलिस स्टेशन में लाए परंतु उससे पहले और बाद में हर जगह वकीलों की गुंडागर्दी ही दिखाई दी।
हम आम नागरिक इन्हीं पुलिसवालों पर भरोसा करते हैं कि ये हमारे समाज को अपराधमुक्त रखेंगे, इन्हीं वकीलों पर भरोसा करते हैं कि ये हमें न्याय दिलवाएँगे पर ऐसी घटनाओं के बाद हमारे भरोसे की धज्जियाँ उड़ जाती हैं। अब तक अपराधियों को पुलिसवालों से भिड़ते देखा है अब वकील और पुलिसवाले ही आपस में भिड़ रहे हैं, एक-दूसरे की जान के दुश्मन बने हुए हैं ये आम नागरिक की सुरक्षा क्या करेंगे?
ऐसा फिज़ूल आंदोलन और उसे देशव्यापी स्तर पर फैलाने की धमकी से यह पूरी घटना संदेह के घेरे में आती है, वकीलों की हड़ताल और पुलिसवालों को और सरकार का ध्यान बँटाना ही संदेहास्पद लगता है। ऐसी नाजायज माँग सरकार को न सिर्फ खारिज़ कर देनी चाहिए बल्कि जाँच उपरांत दोषियों को ऐसी सजा देनी चाहिए कि फिर कोई कानून का मखौल उड़ाने से पहले दस बार सोचे।
मालती मिश्रा 'मयंती'✍️
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