रविवार

मजदूर

कॉलोनी के बड़े से गेट के बाहर
जो लम्बी सी सड़क जा रही है 
थोड़ा सा आगे चलकर 
उसी सड़क की पगडंडी पर
लम्बी सी कतारों में 
कुछ बैठे तो कुछ खड़े मिलेंगे
सूरज के साथ ही निकल पड़ते हैं ये भी
अपने पूरे दिन के सफर पर
पास आकर रुकती है मोटर
पलक झपकते ही घेरा सबने
जरा भी देर न लगाई किसी ने 
क्या गजब की फुर्ती और चुस्ती
दिखाई उन जर्जर शरीरों ने
गाड़ी का दरवाजा खुला
सूट-बूट में एक साहब निकला
चेहरे पर रौब गर्दन तनी हुई
आपस में कुछ बातें हुईं 
और कतार में से कुछ को 
पता बताकर साहब चले गए
बाकी फिर अपने स्थान पर आ गए
पुनः प्रतीक्षा में रत
कोई आए और 
दो जून की रोटी का बंदोबस्त हो जाए

मालती मिश्रा

Related Posts:

2 टिप्‍पणियां:

  1. हर शब्द अपनी दास्ताँ बयां कर रहा है आगे कुछ कहने की गुंजाईश ही कहाँ है बधाई स्वीकारें

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. संजय जी बहुत-बहुत आभार आपकी टिप्पणी मेरे लिए अनमोल है।

      हटाएं

Thanks For Visit Here.