शनिवार

बेटी


 सूरज सिर पर चढ़ आया और रवि है कि अभी भी सो रहा है और वही क्यों श्रिति भी सो रही है। नेहा उसे कई बार जगा चुकी पर वो अभी उठती हूँ कहकर करवट बदल कर सो जाती। रवि को वह जगाना छोड़ चुकी है, उसका मानना है कि दोनों बच्चों को देर तक सोने की आदत उसी की वजह से है। अविका को स्कूल जाना होता है इसलिए जल्दी उठ जाती है वर्ना वो भी दस बजे तक सोती रहती एक अकेली नेहा ही है जो पाँच-छः बजे तक उठ जाती है और अकेले भूतों की मानिंद घर में काम के बहाने खटर-पटर करती रहती। उसे पूरे घर में अकेले जगना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता, वो हमेशा यही कहती कि तुम लोग सात बजे तक उठ कर बैठ जाया करो बेशक कोई काम न करो, कोई बात नहीं कम से कम मुझे अकेलापन नहीं महसूस होगा, पर किसी को क्या पड़ी कि उसे कैसा लगता है, कोई क्यों अपनी नींद खराब करे उसकी खातिर.... धीरे-धीरे उसने रवि से तो कुछ कहना ही छोड़ दिया हाँ बच्चों को जरूर आठ-साढ़े आठ बजे तक जगा देती और खुद भी थोड़ा देर तक सोने लगी है या फिर अविका के स्कूल जाने के बाद हॉल में ही सोफे पर लेटकर एक-आधा घंटा यूँ ही बिना कुछ किए, बिना किसी की नींद खराब किए चुपचाप लेट कर सोने की कोशिश करती रहती है और यूँ ही करवट बदलते हुए आठ बजे तक का समय काट लेती है। लेकिन आज तो दस बजने वाले हैं और उसने किसी को भी नहीं जगाया है, वह बेचैन नजर आ रही थी, उसे देखकर यह अनुमान लगाना मुश्किल था कि उसके दिमाग में क्या चल रहा है। वह बड़बड़ाती जाती और काम करती जाती, जिसे देख यह समझना बहुत मुश्किल था कि वह करना क्या चाहती थी.....
आज मैं किसी को नहीं जगाऊँगी...किसी को भी नहीं....मैंने ही ठेका ले रखा है सबको जगाने का... मुझे नींद नहीं आती क्या? मैं तो जैसे इंसान ही नहीं हूँ.... मुझे तो आराम पसंद ही नहीं.....वह बड़बड़ाती जाती और बेचैन होकर कभी सफाई करने के लिए झाड़ू उठाती फिर उसे रख सोफा साफ करने लगती फिर उसे भी अधूरा छोड़ इधर-उधर बिखरे पड़े सामान सहेजने लगती....उसे देखकर ऐसा लग रहा था कि वह मानसिक रूप से बहुत परेशान है, उसका मस्तिष्क स्थिर नहीं इसीलिए वह कोई भी कार्य व्यवस्थित ढंग से नहीं कर पा रही। अभी कुछ ही देर पहले उसकी बात माँ से हुई थी, बहुत दिनों के बाद माँ से उसकी बात हुई थी, छोटे भाई से तो बात हो जाती, घर के हाल-चाल पता चल जाते पर माँ से बात नहीं हो पाती थी, महीनों बाद उनसे बात हुई पर बात करने के बाद उसे जितना खुश होना चाहिए था वह उतनी तो क्या बिल्कुल भी खुश नजर नहीं आ रही थी। वह सब काम छोड़कर फिर बैठ गई..... उसके दिमाग में माँ की वही असहज सी हो उठी आवाज गूँज रही थी, जब उसने माँ को बताया कि इस बार रवि भी गाँव आने के लिए कह रहे हैं...ऊँचा सुनने के कारण पहले तो माँ सुन न सकी परंतु जब दो-तीन बार बोलने के बाद सुना तो उनकी आवाज में कोई उत्साह नहीं था, वह बोलीं-"हाँ ठीक है बाबू जी से बात करेंगे।" नेहा के उत्साह पर मानों माँ ने पानी डाल दिया... क्यों माँ....बाबू जी को कोई परेशानी होगी क्या? उसने पूछा। 
नहीं उन्हें क्या परेशानी....बस वीरेंद्र शायद उन्हीं दिनों में आने वाले हैं और तुम्हें पता है कि वह तुम्हें....कहते हुए माँ चुप हो गईं
उसे मेरा आना अच्छा लगे या न लगे मैं क्या करूँ, मैं आना छोड़ दूँ?  तमतमा कर जवाब दिया नेहा ने।
नहीं, तुम आओ...देखा जाएगा, अब हम और बाबू जी तो बूढ़े हो चले हैं हम तो कुछ नहीं कहेंगे बस थोड़ा वीरेंद्र की समस्या है.. माँ ने बुझे हुए स्वर में कहा।
बात पूरी करके नेहा ने माँ को प्रणाम कर फोन डिस्कनेक्ट कर दिया, तब से ही उसके मनो-मस्तिष्क में द्वंद्व चल रहा है आखिर क्यों....क्यों मैं पूरे हक के साथ नहीं जा पाती अपने ही माँ-बाप के घर? आखिर वो मेरा भी तो घर है, वो मेरे भी तो माता-पिता हैं....तो मेरा अधिकार क्यों नहीं उनपर, क्योंकि मैं बेटी हूँ.......
यदि वो यह अपनी माँ से पूछती तो उसे पता है क्या जवाब मिलता...
माँ उसे अब तक दोषी मानती हैं और जब-तब उसे इस बात का अहसास करवा ही देतीं कि उसने घर वालों के विरुद्ध जाकर अपनी पसंद से विवाह करके गलत किया और इसीलिए दस-ग्यारह वर्षों बाद अब तक भी उसके भाई उसको पसंद नहीं करते। सोचते हुए नेहा की आँखों से आँसू बह निकले, मेरे उच्च शिक्षिता होने के बाद भी मैं अपने जीवन के इतने अहम् फैसले को अपनी इच्छा और पसंद से नहीं ले सकती.....तो क्या फायदा मेरे शिक्षित होने का.....क्या बिगाड़ा मैंने किसी का...यदि ऐसा ही फैसला मेरे भाइयों में से कोई लेता क्या तब भी सबकी यही प्रतिक्रिया होती?? नहीं.....
क्योंकि वो बेटे हैं और बेटों की तो गलतियाँ भी क्षमा योग्य होती हैं परंतु बेटी का स्वेच्छा से लिया हुआ एक फैसला सबके लिए असहनीय हो गया।
नेहा को याद आने लगे बचपन के वो दिन जब वह स्कूल से आने के बाद अपने छोटे भाइयों को पूरे-पूरे समय गोद में लिए घूमती रहती थी, थोड़ी बड़ी हुई तो भाइयों को पढ़ाना उनके सारे काम करना तथा उनकी देखभाल सब वही करती थी। किसी की क्या मजाल कि उसके भाइयों को कोई कुछ कह जाए, वह ये भूल कर कि वह स्वयं छोटी है, लड़ पड़ती। माँ तो गाँव में रहतीं बाबू जी के साथ रहते हुए वही भाइयों की देखभाल करती थी। आज वही भाई उसकी शक्ल तक नहीं देखना चाहते और माँ बाबू जी पता नहीं उन्हें समझाते नहीं या समझा नहीं पाते। अगर मेरी जगह मेरा कोई भाई होता तो क्या उसके साथ भी ऐसा ही बर्ताव होता, क्या वह भी अपने ही घर में अलग-थलग रहने को विवश होता? शायद नहीं, उसके साथ तो मैं ऐसे बेगानों सा व्यवहार नहीं करती.....और न ही किसी को करने देती। 
सोच-सोच कर नेहा का सिर दर्द से फटने लगा, रवि चाहता था कि इस बार वह भी नेहा के गाँव जाए पिछले साल जब नेहा गई थी तो माँ ने कहा था कि "हमें लगा कि इस बार रवि भी आएँगे" सुनकर नेहा चौंक गई थी और माँ से पूछा था कि क्या अब बाबू जी को कोई ऐतराज नहीं रवि के आने से....तब माँ ने कहा था कि "नहीं" 
यही बात लौटकर उसने रवि को बताई, इसीलिए इस बार रवि ने भी जाने की इच्छा जताई है पर अब वह डर रही है कि यदि उसका वहाँ उचित मान-सम्मान न हुआ तो उसे बहुत बुरा लगेगा पर वह क्या करे? मना भी नही करना चाहती वह स्वयं भी दुविधा में फँसी हुई है कि क्या ठीक होगा? क्या नही? 
आज जहाँ दुनिया इतनी आगे निकल चुकी है वहीं मैं इस आजाद देश में एक स्वतंत्र निर्णय लेने की सजा भोग रही हूँ । आखिर मुझे किस बात की सजा मिल रही है...अपने जीवन का अहम् फैसला स्वयं लेने की..... या बेटी होने की? सोचते हुए अचानक उसकी आँखों से अश्रु बह निकले साथ ही कमरे से श्रिति के आने की आहट हुई और झट से नेहा सोफे से उठकर रसोई में चली गई।
मालती मिश्रा

5 टिप्‍पणियां:

  1. यशोदा जी रचना को लिंक में शामिल करने और सूचना देने के लिए आभार, लिंक में शामिल सभी रचनाओं को पढ़कर मुझे प्रसन्नता होगी।

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  2. यशोदा जी रचना को लिंक में शामिल करने और सूचना देने के लिए आभार, लिंक में शामिल सभी रचनाओं को पढ़कर मुझे प्रसन्नता होगी।

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  3. उत्तर
    1. बहुत-बहुत आभार आपका। ब्लॉग पर स्वागत है।

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    2. बहुत-बहुत आभार आपका। ब्लॉग पर स्वागत है।

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