रविवार

मुफ्तखोरी विकास का मूलमंत्र या वोट का.....

मुफ्तखोरी विकास का मूलमंत्र या वोट का.....
मुफ्तखोरी विकास का मूलमंत्र या वोट का.... 70 साल बाद भी यदि दलितों की स्थिति में सुधार नहीं आया तो इसका जिम्मेदार कौन है, सोचने की बात है... यह भी सोचने का विषय है कि क्या मुफ्त की वस्तुएँ बाँटकर कर किसी वर्ग विशेष का विकास किया जा सकता है........? यह कैसी विडंबना है...

शनिवार

क्या रखा है जीने में

क्या रखा है जीने में
भावों का सागर बहता है मेरे सीने में मन करता है छोड़ दूँ दुनिया क्या रखा है जीने में सागर में अगणित भावों का मानों यूँ तूफान उठा है आपस में टकराती लहरें तत्पर हों अस्तित्व मिटाने में दिल और दिमाग के मध्य मानो इक प्रतिस्पर्धा हो एक दूजे के कष्टों के हलाहल उधत हों मानो...

गुरुवार

नारी धर्म

नारी धर्म
नारी धर्म... पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज गया जब नाम की घोषणा हुई "कीर्ति साहनी"। आगे की पंक्ति से उठकर कीर्ति मंच की ओर बढ़ी.....कद पाँच फुट तीन इंच, हल्के हरे रंग की प्लेन साड़ी सिल्वर कलर का पतला सा बार्डर और सिल्वर कलर की प्रिंटेड ब्लाउज, गले में साड़ी...

सोमवार

कब से था इंतजार

कब से था इंतजार
कब से था इंतजार मुझे सावन तेरे आने का, अखियाँ तकती पथराने लगीं खुशियों को देख पाने को। नव पल्लवित कोपलों को देखे ऐसा लगता सदियाँ बीतीं, ताल पोखर नदियाँ नहरें सब जल बिन रीती रीतीं। तरुवर अड़े खड़े रहे कब तक न आओगे जलधर, न सूखेंगे न टूटेंगे करते रहेंगे  जीवन का उत्सर्जन। धरती...

गुरुवार

नारी तू सिर्फ स्वयं से हारी है

नारी तू सिर्फ स्वयं से हारी है
गांधारी की तरह  आँखों पर पट्टी बाँध लेना ही  समाधान होता अगर  विनाश लीला से बचने का तो द्रौपदी भी बाँध पट्टी बच जाती  चीर हरण के अपमान से  न रची जाती  महाभारत की विनाश लीला बाँध पट्टी आँखों पर  गाँधारी बचा लेती  अपने शत पुत्रों...

रविवार

कसम

कसम
कसम.... रसोई में काम करते-करते अचानक ही दिव्या चौंक पड़ी उसके हाथ से प्लेट छूटते-छूटते बची, वह बच्चों के कमरे की ओर भागी जहाँ से सनी के चीखने की आवाज आई थी....मम्मीzzzzzz  क्या हुआ???  कहते हुए कमरे में पहुँची और एकदम से ठिठक गई....दोनों बच्चे सनी और महक एक...

इस युग के रावण

इस युग के रावण
इत-उत हर सूँ देखो तो गिद्ध ही गिद्ध अब घूम रहे किसी की चुनरी किसी का पल्लू चौराहों पर खींच रहे मरे हुए पशु खाते थे जो अब जीवित मानव पर टूट रहे नजरें बदलीं नजरिया बदला हर शय में गंदगी ढूँढ़ रहे अपनी नीयत की कालिमा दूजे तन पर पोत रहे मर चुकी है जिनमें मानवता वो हर अक्श...

शनिवार

ऐ जिंदगी पहचान करा दे मुझसे तू मेरी

ऐ जिंदगी पहचान करा दे मुझसे तू मेरी
चाहे-अनचाहे गर बिगड़ जाए दास्ताँ जो मेरी  जीवन सारा अफ़वाहों का बाज़ार बना जाता है खुदा ने भेजा औरों की तरह जहाँ में मुझको क़ायदा-ए-ज़हाँ ने असीर बना डाला है खुदा की अल हूँ या क़ज़ा है मेरा ये क़फ़स गर्दिशे-सवाल में क़रार खोया जाता है। कुछ काम किए...

बुधवार

ऐ जिंदगी पहचान करा दे मुझसे तू मेरी खुद को ढूँढ़ते एक उम्र कटी जाती है। मैं कौन हूँ, क्या हूँ, मेरा अस्तित्व क्या है खुदाया खोजने के जद्दो-ज़हद में खुद को मिटाए जाती हूँ। रिश्तों के चेहरों में ढका वजूद मेरा इस कदर आईने में अपना अक्श भी अंजाना नजर आता है। पहचान...