रविवार

चाँद का सफर

चंदा तू क्यों भटक रहा
अकेला इस नीरव अंधियारे में
क्या चाँदनी है तूझसे रूठ गई
तू ढूँढ़े उसे जग के गलियारे में
तुझ संग तेरे संगी साथी हैं तारे 
जो तुझ संग फिरते मारे-मारे 
मैं अकेली संगी न साथी 
ढूँढ़ू खुद को बिन दिया बाती
उस जग में खुद को खो चुकी हूँ
जहाँ ढूँढ़े तू अपना साथी
कैसी अनोखी राह है मेरी 
व्यथा अपनी किसी से न कह पाती 
हे चंदा! कितनी समानता है हममें
तू भी अकेला हम भी अकेले 
फिर भी कितने विषम हैं दोनों
जग तुझको चाहे और हमको झेले 
अपनी कुछ खूबी मुझे भी दे दे 
ज्यों दाग के होते हुए भी तू  जग में
सबका प्रिय बना अकेले-अकेले 

मालती मिश्रा 

5 टिप्‍पणियां:

  1. बेनामी25 जुलाई, 2016

    सुन्दर कविता

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  2. चाँद जैसा कोई हो भी तो नहीं सकता ... पर सबके अकेलेपन का साथी भी तो वही तो है ...
    बहुत भावपूर्ण रचना है ...

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    उत्तर
    1. धन्यवाद Digamber Naswa जी आपकी अनमोल और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए।

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    2. धन्यवाद Digamber Naswa जी आपकी अनमोल और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए।

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