गुरुवार

श्रद्धा से दस दिन
घर में सत्कार किया,
पूजा हवन और
भोग श्रृंगार किया।
अवधि समाप्त हुई
चले यूँ विसर्जन को,
ढोल और मृदंग
नाच गान उपहार दिया।
करके विसर्जन तुम
कार्य मुक्त हो गए,
जब जहाँ जगह मिली
पानी में उतार दिया।
पूजते हो मुझे और
पूजते हो नदियों को,
देखो आज तुमने
दोनों का क्या हाल किया।
हाथ कहीं टूटे पड़े
मस्तक विछिन्न हुआ,
फटकर उदर टुकड़ों में
छिन्न-भिन्न हुआ।
उँगलियाँ टूटकर
कचरे में तब्दील हुए,
फूटे पड़े चक्षु, कर्ण,
नासिका विदीर्ण हुए।
कूड़े कचरे से पाट
नदियों को दूषित किया,
प्रकृति का मान नहीं
हृदय संकीर्ण हुए।।

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️
चित्र साभार- गूगल से


Related Posts:

  • अब न सहेंगे सेना का अपमान हमसे अब सहन नहीं होगा, देश से गद्दारी का भार अब वहन नही… Read More
  • अच्छाई और सच्चाई के मुकाबले बुराई और झूठ की संख्या बहुत अधिक होती है।… Read More
  • शत-शत नमन कितने ही घरों में अँधेरा हो गया सूख गया फिर दीयों का तेल उजड़ गई… Read More
  • एक सफर ऐसा भी एक सफर ऐसा भी आजकल हर दिन अखबारों में, समाचार में लड़कियों के प्रति अ… Read More

4 टिप्‍पणियां:

  1. पूजते हो मुझे और
    पूजते हो नदियों को,
    देखो आज तुमने
    दोनों का क्या हाल किया।

    वाह

    बहुत सुन्दर

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. उत्साहवर्धन के लिए सादर आभार डॉ ज़फर जी

      हटाएं

Thanks For Visit Here.