सोमवार

आज मैं आजाद हूँ

उड़ान भरने को स्वच्छंद गगन में
तोल रही पंखों का भार
भूल चुकी हूँ पंख फैलाना
पंखों में भरना शीतल बयार
होड़ लगाना खुले गगन में
छू लेने को अंबर का छोर
निकल पड़ी हूँ तोड़ के पिंजरा
तोड़ दिया है भय की डोर
फँसी हुई थी अपने ही 
आकांक्षाओं के बुने जाल में
अब जब जागी तो तोड़ दिया
नही फँसी निष्ठुर जंजाल में
रहता था मन व्याकुल हरपल
देख-देख असंवेदनशीलता
भर उठता था विद्वेष हृदय में
मानव के प्रति देख क्रूरता
तिल-तिल घुटती रहती थी
उस सुनहरे पिंजरे में
आज वो पिंजरा तोड़ चली
उन्मुक्त गगन के सहरे में
अब तो अपनी हर सुबह होगी
होगी अपनी हर शाम नई
पूरे करूँगी अपने वो सपने
अंतर्मन में दबे-कुचले जो कई
बनाने को उज्ज्वल समाज
अपने घर में तम का विस्तार किया
उसी तम को मिटाने के लिए
पग-पग पर दीप प्रज्ज्वलित किया
न होंगी अब शिकवों की संध्या
नही शिकायतों भरी प्रात
हर शिकवे-गिले मिटाने को
मन में जगाया नव प्रभात
जो समय गँवाया जी हुजूर में
वो तो वापस पा सकती नहीं
परंतु बचे अनमोल पलों को
अब और गँवा सकती मैं नहीं
मालती मिश्रा





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