सोमवार

अरुण रथ आया है...

रंग दे अपने रंग में जग को
ऐसी किसी में ताब कहाँ
सूरज न घोले सोना जिसमें
ऐसी कोई आब कहाँ 
भर-भर कर स्वर्ण रस से गागर
तरंगिनी मे उड़ेल दिया 
उषा तुमने अपनी गागर से
जल-थल का सोने से मेल किया
हरीतिमा भी रक्त वर्ण हो
अपने रंग को भूल गई
ओढ़ ओढ़नी स्वर्ण वसन की
सुख सपनों में झूल गई 
कर श्रृंगार प्रकृति कनक सी
तरंगिनी में झाँक रही 
बना दर्पण नीर सरिता की
अपनी छवि को आँक रही 
रूप अधिक मनभावन कब हो
तारक चुनरी हो जब मस्तक पर
या स्वर्ण सुरा मे नहा के निखरी
पुष्पों के गजरे हों केशों पर
मोती से चमकते ओस की माला
इतराते चढ़ मेरे कंठ पर
पवन थाप से लहराती कोपलें
लज्जा से सिमट रहीं रह-रहकर
मनभावन सा रूप प्रकृति का यह
जिसने जग को हरषाया है
मीठा-मीठा तेज दिवस का
लेकर अरुण रथ आया है।

मालती मिश्रा 

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