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संस्मरण

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यादों के पटल से 'मेरी दादी'
आज की विधा है संस्मरण यह जानकर मेरे मानसपटल पर सर्वप्रथम जो पहली और प्रभावशाली छवि अंकित हुई वो मेरी दादी जी की है। मैं अपनी दादी के साथ हमेशा नहीं रहती थी, क्योंकि मेरे बाबूजी की सरकारी नौकरी थी और इसीलिए हमारा पूरा परिवार यानि मैं और मेरे तीनों छोटे भाई माँ-बाबूजी कानपुर में रहते थे। दो चाचा-चाची, उनके बच्चे, बाबू जी के चाचा-चाची तथा उनके बच्चे, एक पूरा भरा-पूरा कुनबा था हमारा फिर भी एक दादी ही तो थीं जिनसे मैं सबसे ज्यादा जुड़ाव महसूस करती थी, जब स्कूल की गर्मियों की छुट्टियाँ होतीं तो हम सभी गाँव जाने के लिए इतने उतावले होते थे कि एक-एक दिन काटना मुश्किल होता था। रोज पापा से पूछते कि आपको छुट्टी कब मिलेगी? चाचा के लड़कों के लिए खिलौने, पापा के चचेरे भाई यानी मेरे चाचा जो लगभग मेरी ही उम्र के थे उनके लिए मैं अपनी किताबें ले जाती और हम कंचे भी इकट्ठा करके रखते थे कि गाँव में खेलेंगे, जो भी हमारे छोटे-मोटे खिलौने होते, उन्हें भी सहेज कर रख लेते....कुछ ऐसी ही होती थी हम बच्चों के गाँव जाने की तैयारी, हमें मतलब नहीं होता था कि माँ-पापा क्या लेकर जा रहे हैं क्या नहीं, ये तो हमारी व्यक्तिगत तैयारी होती थी।

गाँव पहुँचने पर गाँव के बाहर ही दादी खड़ी मिलतीं, दुबली-पतली, छरहरी सी काया, कोई साढ़े चार-पौने पाँच फिट लंबी, अभी-अभी नहाकर आई होती थीं तो गीले खुले हुए बाल साफ-सुथरी धुली हुई सूती धोती पहने, सिर पर पल्ला डाले, उम्र के शायद चौथे पड़ाव में प्रवेश कर चुकने के बाद भी चेहरे पर झुर्रियों के बाद भी गोरा रंग इस प्रकार दमक रहा होता मानो पवित्रता की प्रतिमूर्ति समक्ष खड़ी हों। उनकी इसी सुंदरता के कारण ही शायद उनके माता-पिता ने उनका नाम 'कोइली' अर्थात् काया के बिल्कुल विपरीत 'कोयला', रखा था, ताकि उन्हें किसी की नज़र न लगे। उनके हाथों में पीतल के चमकते हुए लोटे में जल होता, वो पहले जल भरे लोटे को हमारे सिर से पैर तक वारती फिर उस जल को एक तरफ किसी देवी या देवता को डाल देतीं तब कहीं हमें गाँव में प्रवेश की अनुमति देतीं। घर पहुँच कर सब अपने अपने अनुसार काम, खेल, रिश्तेदारी के निर्वाह आदि में व्यस्त हो जाते थे और मैं व्यस्त हो जाती थी दादी के साथ....

दादी वैसे तो अपने सभी पोतों को भी प्यार करती थी परंतु उनका लगाव मुझसे कुछ विशेष ही था...सर्दियों मे जब गुड़ बनाया जाता तो वो मेरे लिए सोंठ और मेवे डालकर बनवाया हुआ सोंठौरा (गुड़) बचा कर गर्मियों की छुट्टी तक रखती थीं, पका हुआ सीताफल एक जरूर बचाकर रखतीं ताकि जब हम छुट्टियों में आएँ तो वो हलवा बनाकर मुझे खिला सकें, इतना ही नहीं वो हर जगह मुझे अपने साथ ले जातीं और मैं भी..
जहाँ दादी वहीं मैं, दादी खेतों में जातीं तो मैं भी साथ जाती, वो बगीचे में जातीं तो भी मुझे ले जातीं और तो और वो दूसरे गाँव में, जो कम से कम डेढ़-दो किलोमीटर होगा वहाँ गेहूँ पिसवाने जातीं तो भी मैं उनके साथ होती, किसी के घर, किसी की खुशी में, किसी के गम में, पूजा-पाठ में..कहीं भी कभी भी वो अकेली नहीं जाती थीं, और यदि जाना भी चाहतीं तो मैं नहीं जाने देती..यहाँ तक कि रात को भी मैं माँ के पास नहीं सोती थी। हम जब तक गाँव में रहते मैं दादी के पास ही सोती थी, हम कभी छत पर सोते तो दूर किसी गाँव मे एक बल्ब जलता दिखाई देता था, मैंने एक बार दादी से पूछा था कि वहाँ पर लाइट कैसे जलती है, जबकि हमारे गाँव में तो नही है। दादी ने इस प्रश्न का क्या जवाब दिया मुझे याद नहीं पर एक बात जो उन्होंने बताई थी वो मुझे आज भी याद है कि बिजली वहाँ भी हर घर में नही जलती, जो बल्ब हमें दिखाई देता है वो आटा-चक्की पर जलने वाला बल्ब था....कुछ ऐसी ही बातें होती रहती थीं मेरे और दादी के बीच और वो रोज एक नई कहानी सुनाते हुए धीरे-धीरे मेरे बालों में हाथ फेरती रहतीं और मैं कहानी सुनते हुए कब स्वप्नलोक की सैर पर निकल जाती मुझे पता ही नहीं चलता। मेरे बालों में उनकी उँगलियों का वो कोमल स्पर्श मुझे आज भी महसूस होता है....

गाँव में कहाँ नदी है, कहाँ तालाब है हमारे कितने खेत हैं और कहाँ-कहाँ हैं, ये मुझे दादी के ही कारण पता चला....
मेरे पापा जी तीन भाई हैं और पूरे परिवार में मैं अकेली लड़की, शायद ये वजह भी रही हो मेरी दादी के प्यार की। जो भी मुझपर कोई टिप्पणी करता उसका पहला सवाल यही होता था कि "मैं कानपुर में दादी के बिना कैसे रहती हूँगी".....
खैर छुट्टियाँ खत्म होतीं दादी हमें नम आँखों से गाँव के बाहर काफी दूर तक छोड़ने आतीं और जाते हुए मैं बार-बार मुड़-मुड़ कर उन्हें तब तक देखती रहती जब तक दूर और दूर होते हुए वो मात्र एक छोटी सी परछाई में तब्दील नहीं हो जातीं और फिर दादी की परछाई अपने साथ आई अन्य दूसरी परछाइयों के साथ धीरे-धीरे विलुप्त हो जाती।

हर साल गर्मियाँ आतीं, स्कूल की छुट्टियाँ होतीं और फिर यही सिलसिला....मैं कुछ नौ-दस साल की हूँगी जब मंझले चाचा की जिद पर मेरे पापा और दोनों चाचा के बीच बँटवारा हुआ था। तब दादी को कितना दुख हुआ था मैं खुद इसकी साक्षी हूँ; दादी अपनी हमराज, हमदर्द मान अपनी किसी सखी के घर जातीं तो मैं भी उनके साथ होती थी। वो उनसे घर की तनावपूर्ण स्थिति के बारे में बातें करते-करते रो पड़ती थीं, भले ही दादी की बातें उस समय मेरी समझ से परे थीं परंतु उनकी आँखों से बहते आँसू मुझे भी रुला देते थे, मैं दादी की बाँह पकड़े उनसे ऐसे चिपक कर बैठ जाती मानो मुझे भय हो कि दादी मुझे छोड़कर कहीं चली न जाएँ...मुझे रोती देख सभी यही कहते कि पूरे घर में सिर्फ इसे ही तुम्हारी चिंता है, तब दादी कहतीं कि "मैं उनकी जान हूँ उनकी तकलीफ़ मुझे स्वतः महसूस हो जाती है।"
बचपन से लेकर मेरी शादी और उसके बाद भी मेरी दादी से मेरा लगाव कम नहीं हुआ परंतु कभी-कभी नियति के क्रूर चक्र में फँसकर घनिष्ट आत्मीयता पर भी समय और दूरी की गर्त जम जाया करती है। मेरी दादी बहुत वृद्धा हो चुकी थीं और एक दिन नीले आसमान में चमकते तारों में उन्होंने भी अपना स्थान बना लिया और मेरा दुर्भाग्य यह रहा कि मेरे सिर में स्नेह से सहलाने वाली उँगलियाँ कब मुझसे छूट गईं पता ही न चला....मेरी दादी सदा के लिए मुझे छोड़ गईं....किंन्तु उनकी उँगलियों के कोमल स्पर्श का अहसास दुखद समाचार के साथ मुझसे दो महीने बाद दूर हुआ।
गाँव पहुँचने पर लोटे के जल से नजर उतार कर स्वागत करने की परंपरा तो अबसे सालों पहले समाप्त हो चुकी है पर अब तो स्वागत करती हुई वो नजरें भी नहीं रहीं जिनमें मेरे लिए आशीर्वाद और हमेशा कुछ नया बनवाकर खिलाने की इच्छा नजर आती....
मालती मिश्रा, दिल्ली 

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