शनिवार

परिंदों का जहाँ शोर हुआ करता था.....

अशांत और भागदौड़ भरा जीवन है नगरों का,
पहले हँसता-मुस्कुराता शांत गाँव हुआ करता था।
मुर्गे की बाँग और कोकिल के मधुर गीत संग,
सूर्योदय के स्वागत में चहल-पहल हुआ करता था।
ऊँचे भवन अटारी ढक लेते हैं सूरज को,
पहले तो सुरमई भोर हुआ करता था।
सिर मटकी धर इठलाती बलखाती सी जातीं गोरी,
हास-परिहास से खनकता पनघट हुआ करता था।
सखियों की चुटकी और प्रेम रस की बतियाँ,
हर ओर चहकता सा यौवन हुआ करता था।
आजकल तो संध्या भी चुपके से आती है,
पहले परिंदों का शोर हुआ करता था।
हल-बैलों संग आता था कृषक जब खेतों से,
मनभावन गोधूलि वह बेला हुआ करता था।
गगन में परिंदे, अवनी पर शैशव की चहक,
ऐसा सिंदूरी सूर्य गमन हुआ करता था।
ढक लेती काले आँचल से रजनी जो धरा को,
ऊपर जगमग तारों भरा अंबर हुआ करता था.
महानगरों की चमक और व्याकुलता से परे,
शांत-सुखद गाँवों का जीवन हुआ करता था।
मालती मिश्रा

12 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 23 अक्टूबर 2016 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मेरी रचना को शामिल करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद यशोदा जी।

      हटाएं
    2. मेरी रचना को शामिल करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद यशोदा जी।

      हटाएं
  2. आजकल तो संध्या भी चुपके से आती है,
    पहले परिंदों का शोर हुआ करता था।......बहुत सुन्दर ...

    जवाब देंहटाएं
  3. था से कोशिश करे है कि तरफ चलने की :)

    बहुत सुन्दर ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सुशील कुमार जी धन्यवाद प्रतिक्रिया और सुझाव दोनों के लिए। सुझाव पर अमल करने का प्रयास करूँगी।

      हटाएं
    2. सुशील कुमार जी धन्यवाद प्रतिक्रिया और सुझाव दोनों के लिए। सुझाव पर अमल करने का प्रयास करूँगी।

      हटाएं

Thanks For Visit Here.