शनिवार

दलित मानसिकता की शिकार राजनीति....

आज कब क्या हो जाय कुछ नहीं कहा जा सकता आज प्रातः मैं घर से बाहर निकल कर गेट बंद कर ही रही थी कि हमारे पड़ोसी अपनी पत्नी के साथ अभी-अभी घर से निकले बाइक मोड़ ही रहे थे कि सामने से आ रहे बाइक  सवार (दो लड़के) ने जो बड़ी ही तेजी से आ रहा था उनकी बाइक के अगले टायर में टक्कर मार दी, खैर पड़ोसी क्योंकि अभी बाइक पर बैठे नहीं थे तो थोड़ा लड़खड़ा कर संभल गए और बोले- थोड़ा देख के भाई ये गली है स्पीड थोड़ी कम कर लो।
"अबे सा* तुझे दिखाई नहीं देता फिर मुझे उपदेश दे रहा है" बाइक सवार जो देखने में ही कोई मवाली सा लग रहा था, मुँह में चबाते हुए मसाले को वहीं (गली में) थूक कर बोला।
"अरे भाई तो तमीज में ही बोल ले मैने तुझसे कोई बदतमीजी की क्या?" पड़ोसी बोले। फिर क्या था वो मवाली सा दिखने वाला लड़का लगा गालियों से उन्हें नवाजने, अब अपने ही घर के सामने कोई किसी बाहर के लड़के से इसप्रकार अपमानित होकर चुप तो नही रह सकता था सो हमारे पड़ोसी भी भड़क गए, गाली-वाली तो नहीं दी पर गिरहबान पकड़ लिया एक जोर का थप्पड़ रसीद करने ही वाले थे कि तभी उनकी पत्नी ने रोक लिया आस-पास के दुकानदारों ने भी बीच-बचाव किया। सामने का पलड़ा भारी पड़ते देख उनमे से दूसरा लड़का कहता है "चल थाने में रिपोर्ट लिखवा देते हैं कि हम दलित हैं इसलिए ये हमें मार रहा है।" वहाँ खड़े सभी स्तब्ध रह गए, किसी ने सोचा भी न होगा कि यहाँ भी दलित कार्ड इस्तेमाल होगा। या फिर ये लोग जानबूझ कर पंगे लेते हैं और फिर दलित-कार्ड आगे करके पब्लिसिटी पाते हैं। खैर जैसे-तैसे लोगों ने समझा-बुझा कर उन दोनों को वहाँ से भेज दिया, वो भी तब तक नहीं टले जब तक उन्हें यह विश्वास नही हो गया कि ऐसा करके स्वयं वो दोनों ही फँसेंगे।

क्या है यह 'दलित'? क्या ऐसा नहीं लगता कि अब यह सिर्फ एक राजनीतिक शब्द बनकर रह गया है? पहले दलित का अर्थ होता था"जो दबाया गया हो, अर्थात् जिसके अधिकारों का हनन हुआ हो" आज दलित का अर्थ है "जो दूसरों को दबाता हो, दूसरों के अधिकारों का हनन करता हो" इस शब्द का प्रयोग भी वही लोग करते हैं जिन्होंने जन्म भले ही दलित या पिछड़े वर्ग में लिया है किंतु वो सामाजिक और आर्थिक रूप से दलित बिल्कुल नहीं होते, वो हर तरह से समृद्ध होते हैं। जो वास्तव में दलित होते हैं जिन्हें सरकार या समाज के सहयोग की सचमुच आवश्यकता होती है उन्हें या तो उनके इस "दलित-कार्ड" की शक्ति का ज्ञान नहीं होता या फिर वो स्वाभिमानी होने के कारण अपने इस अधिकार का प्रयोग नहीं करते। 

अभी 1सितंबर 2016 की ही बात लीजिए दिल्ली में शानदार विजय के साथ सत्तासीन हुई "आम आदमी पार्टी" के "महिला एवं बाल विकास" मंत्री संदीप कुमार।
इन महाशय ने महिलाओं और बच्चों के विकास करने के शपथ के साथ यह पदवी संभाली। और महिलाओं के साथ ऐसे घिनौने कुकृत्य के सामने आने के बाद मीडिया को अपना "दलित-कार्ड" दिखाने में एक सेकेंड का समय नहीं लगाया। "मैं दलित नहीं महा दलित हूँ वाल्मीकि समाज से, मैंने बाबा साहब की प्रतिमा लगवाई इसीलिए लोग मुझे फँसा रहे हैं।"

इन्होंने अपने-आपको बचाने के लिए यहाँ भी दलित होने की घोषणा कर दी। इन्हें कौन समझाए कि राजनीति में आने के बाद, इतना बड़ा और जिम्मेदारी वाला पद संभालने के बाद कोई दलित नहीं रह जाता। बल्कि शोषण तो ये करते रहे हैं महिला विकास के नाम पर महिलाओं का, तो दलित कौन?

या फिर शायद "आम आदमी पार्टी" के नेताओं को व्यभिचार करने के लिए भी आरक्षण चाहिए। अर्थात् यह कुछ भी अनैतिक करें इन्हें दलित मान छोड़ देना चाहिए। 
क्यों समाज में इंसान को इंसान नहीं समझा जाता? क्यों आज हमारे देश में ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया उतने गर्व से यह नहीं कहते कि "हम सवर्ण हैं" जितने गर्व से निम्न तबके के लोग स्वयं को दलित बताते हैं। क्या कारण है कि "दलित" शब्द आज इतना बड़ा बन गया है कि उसके समक्ष बाकी सबकुछ छोटा हो गया है।
आज इस शब्द का ऐसा दुरुपयोग होने लगा है कि इस तबके के लोग बिना किसी परिणाम की चिंता किये अपराध करते हैं और पकड़े जाने पर दलित-कार्ड सामने कर देते हैं।

आज उतने व्यक्ति जन्म या सामाजिक स्थिति के अनुसार दलित नहीं हैं जितने मानसिक रूप से दलित हो गए है, आज समाज की मानसिकता दलित हो चुकी है और इसके लिए "राजनीति" पूर्ण रूप से जिम्मेदार है। जो सचमुच दलित होते हैं, जिन्हें सचमुच सामाजिक  और कानूनी सहयोग की आवश्यकता है, वो उन अधिकारों से वंचित रह जाते हैं और जो 'आम आदमी पार्टी' के नेता संदीप कुमार की तरह सामाजिक और आर्थिक रूप से सुदृढ़ होते हैं वो अपने अपराधों और व्यभिचारों के सामने आने पर "दलित-कार्ड" का प्रयोग करते हैं।

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