रविवार

प्रकृति की शोभा

प्रकृति की शोभा......
यह अरुण का दिया
ला रहा विहान है,
रक्त वर्ण से मानो
रंगा हुआ वितान है।
पवन मदमस्त हो चली
झूमकर लहराती गाती,
बिरह वेदना मधुकर की
अब मिटने को जाती।
अमराई पर झूल-झूल
कोकिल मधुर तान सुनाए,
महुआ रवि पथ में
कोमल पावन कालीन बिछाए
देख शोभा भास्कर की
लता खुशी से तन गई,
अति आनन्द सही न जाए
वृक्ष से लिपट गई।
कलियों ने खोले द्वार
निरखतीं शोभा अरुण की,
भरकर अँजलि में मकरंद
प्यास बुझाएँ मधुकर की।
पाकर मधुर स्पर्श अरुण की
तटिनी भी छलकी जाए,
कल-कल करती सुर-सरिता
स्वर्ण कलश भर-भर लाए।
कर स्नान प्रकृति तटिनी में
स्वर्ण वर्ण हुई जाती है,
अति मनभावन रूप सृष्टि की
शब्दों में न कही जाती है।।
मालती मिश्रा

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2 टिप्‍पणियां:

  1. धन्यवाद यशोदा जी मेरी रचना को शामिल करके मेरा उत्साहवर्धन करने के लिए।

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  2. धन्यवाद यशोदा जी मेरी रचना को शामिल करके मेरा उत्साहवर्धन करने के लिए।

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