शनिवार

लीला भाभी

लघु कथा

शुचि घर के काम जल्दी-जल्दी निपटा रही थी उसे नौ बजे कॉलेज के लिए निकलना था, दस बजे से उसकी पहली क्लास होती है इसलिए वह सुबह पाँच बजे ही उठ जाती है, पापा आठ बजे ऑफिस के लिए निकल जाते हैं, वह नौ बजे और भाई साढ़े नौ बजे निकलते हैं, इसीलिए आठ बजे तक नाश्ता खाना सब बनाकर, पापा का टिफिन तैयार करके और उसके बाद सबके नाश्ते के बर्तन साफ करके फिर तैयार होकर कॉलेज के लिए निकल जाया करती। जब तक माँ नहीं होतीं यही रूटीन चलता, उनके गाँव से वापस आते ही शुचि आजाद हो जाती।
वह अपना बैग लेकर गेट से बाहर निकली ही थी कि पड़ोस में रहने वाली मीनू लगभग दौड़ते हुए ही आई और हाँफते हुए बोली-
"लीला भाभी ने आग लगा ली।"
"क्या!" शुचि उछल ही पड़ी।
"कौन सी लीला भाभी? वो अपनी गुड़िया की भाभी?" शुचि को खुद नहीं समझ आया कि वह क्या बोल रही है क्योंकि लीला नाम की किसी अन्य स्त्री को वह जानती भी नहीं, फिरभी उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि ऐसा कुछ हो सकता है।

"अरे हाँ वही, अभी पूरा परिवार अस्पताल में है।" मीनू ने कहा।
"लेकिन क्यों? वो तो इतनी स्वीट..." शुचि ने बात अधूरी छोड़ दी। फिर तुरंत ही बोल पड़ी- "अभी ठीक तो हैं?.. या..."
मीनू उसकी अनकही बात समझ गई और बोली- "अभी तक तो शायद जिन्दा हैं।"
"पर उन्होंने ऐसा क्यों किया?" शुचि ने प्रश्न किया।
कौन जाने? मैं कल शाम को जब उनके घर गई थी तो सब ठीक था, वो प्रेगनेंट हैं, इसलिए उस समय अल्ट्रासाउंड करवा कर आई थीं।" मीनू ने कहा
"अल्ट्रासाउंड क्यों?" उसके मुँह से अनायास निकला।
"ये जानने के लिए कि लड़का है या लड़की? पर इस बार भी लड़की है, तो सबके चेहरे उतर गए थे।" मीनू ने कसैला सा मुँह बनाकर कहा।
"कहीं इसीलिए तो नहीं...? उसने बात अधूरी छोड़ दी।
पता नहीं पर पड़ोस वाली आंटी कह रही थीं कि कुछ कहासुनी तो शायद हुई थी, लेकिन सबने पुलिस को ये बयान दिया है कि दूध गरम करते हुए स्टोव फट गया था।" मीनू ने बताया।
शुचि वापस अंदर आ गई और निढाल सी होकर सोफे पर धम्म से बैठ गई।
उसकी आँखों के समक्ष लीला भाभी का वह मासूम और शालीन सा चेहरा तैर गया। छरहरी सी काया, बड़ी-बड़ी आँखें, पतले-पतले मांसल से होंठ, पतली नुकीली नाक, पतली नाजुक सी कमर, सुराही दार गर्दन जैसे चित्रकार ने बड़ी लगन से बनाया हो उन्हें, बस रंग भरते समय शायद उसके पास रंग खत्म हो गए इसलिए काले रंग में भूरा रंग मिलाकर जैसे-तैसे कोयले की कालिमा से उबार लिया था, परंतु काली होने के बाद भी गजब का आकर्षण था। उन्हें देखकर ऐसा लगता कि शायद ईश्वर ने उनका रंग इतना इसलिए दबा दिया ताकि बैलेंस बराबर रहे नहीं तो कितनी ही सुंदरियाँ डाह के मारे मर जातीं। इतने शारीरिक सौंदर्य के बाद सोने पर सुहाग उनका स्वभाव था।  साड़ी का पल्ला कभी भी ललाट से ऊपर नहीं होता, जब भी घर से बाहर निकलतीं तो घूँघट नाक तक होता, बमुश्किल कभी-कभी ठुड्डी या होंठ दिख जाते, घर के भीतर भी साड़ी का पल्ला कभी माथे से ऊपर नहीं होता। यूँ तो दो बेटियाँ हैं उनकी परंतु उन्हें देखकर कोई अनुमान नहीं लगा पता कि उनके बच्चे भी होंगे।
उनके घर में नल नहीं था तो पानी के लिए गली के नुक्कड़ पर लगे सरकारी नल पर आती थीं, सबसे बड़े ही प्यार से बोलतीं। पूरे मुहल्ले की लड़कियों की फेवरिट भाभी थीं। बस अपनी पाँच छोटी ननदों की फेवरिट नहीं बन पाईं। उनकी ननदों की सहेलियाँ तो कितनी ही बार ननदों से मिलने के बहाने सिर्फ उनसे ही मिलने जाया करतीं और उनसे कभी कुरोशिया की बुनाई तो कभी कढ़ाई सीखतीं। सास-ससुर, पति, देवर, पाँच ननदें, भरा-पूरा परिवार था पर पूरे घर का काम अकेली ही करतीं। साथ ही ननदों और सास की तानाशाही भी बर्दाश्त करतीं पर मजाल था जो होंठों से मुस्कान लुप्त होने दें। शुचि और उनके परिवार का आपस में मेल-मिलाप कुछ ज्यादा ही था, इसीलिए कभी-कभी मौका पाकर वह अपनी आपबीती शुचि की माँ को बता लिया करतीं, कभी-कभी मौका पाकर उन्होंने शुचि से भी उसकी सहेली यानि अपनी ननद जो बहनों में बड़ी है उसके अनुचित व्यवहार का जिक्र करके अपने मन का बोझ हल्का कर लिया करतीं।
उसे याद आया एक बार वह शाम को उनके घर गई तो वह फूँकनी से चूल्हा फूँक रही थीं, जुलाई या अगस्त का चिपचिपाहट वाला मौसम था, पूरी रसोई धुएँ से भरी थी, वो पसीने से तर-बतर थीं, आँखें लाल हो रही थीं।
शुचि ने कहा- "क्या बात है भाभी, चूल्हा क्यों नहीं जल रहा?"
कंडे (उपले) गीले हैं न बड़ी मुश्किल से जलते हैं।" उन्होंने कहा।
"क्यों गीले उपले क्यों जला रही हो, सूखे खतम हो गए क्या? फिर तो पूरे बरसात में बड़ी परेशानी होगी।" शुचि ने सहानुभूति जताया।
"खतम तो नहीं हुए हैं, आपकी सहेली मुझे गीले उपले ही देती हैं खाना बनाने के लिए, कोठरी में पीछे की ओर सारे सूखे उपले रखे हैं एक दिन मैंने उसमें से निकाल लिया खाना बनाने को, तो जब उन्होंने देखा कि चूल्हा बहुत अच्छे से जल रहा है तो रसोई में आईं और एक उपला तोड़कर देखा, फिर क्या था... चिल्लाईं मेरे ऊपर "खबरदार जो पीछे के उपलों को हाथ लगाया तो हाथ तोड़ दूँगी, आगे के उपलों से ही खाना बनाया करो। तब से मैं जब भी वहाँ से ईंधन निकालती हूँ, वो साथ में खड़ी होकर निगरानी करती हैं।" कहते हुए भाभी का गला भर आया।
शुचि को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था, पर अविश्वास करने जैसी कोई बात भी नहीं थी। उसने खुद कई बार देखा था कि गुड़िया उन पर सास की तरह हुक्म चलाती थी, कई बार तो वो पूरे परिवार के जूठे ढेरों बरतनों की कालिख रगड़ रही होतीं और दूसरी ओर सास उन्हें गालियाँ सुना रही होती बिना ये सोचे कि घर में बाहर का भी कोई मौज़ूद है।
"भाभी गाय का सारा काम भी तो तुम्हीं करती हो न, यहाँ तक कि उपले भी थापती हो, फिरभी ये लोग ऐसा बर्ताव करते हैं तो भइया कुछ कहते नहीं?" शुचि ने दुखी होकर पूछा।
"अगर वो अपनी माँ और बहनों को कुछ बोलते तो मुझे इतनी परेशानी क्यों होती? पर न वो न ही बाबू जी कुछ बोलते। पूरा घर बेटियों खासकर बड़ी बेटी के हाथ में है।" उन्होंने कहा।
उस दिन शुचि को उस परिवार से घृणा हो गई थी। शुचि की माँ ने भी उसे बताया था कि लीला भाभी अपने पति से कितनी ही बार मिन्नतें कर चुकी हैं कि वो अलग होकर कहीं और रह लें वो रूखा-सूखा खाकर भी कभी शिकायत नहीं करेंगी, बल्कि अगर वो अनुमति देंगे तो सब्जी  की दुकान चलाकर घर खर्च में भी मदद कर देंगी, पर उनके पति उनकी एक नहीं सुनते। सभी को उस परिवार का उनकी ओर बर्ताव समझ आता है पर बाहर वाले क्या कर सकते थे।
उनका वो डेढ़-दो सौ गज में बना हुआ मकान पहले मात्र एक कमरे का था, उस जमीन से लगा हुआ बहुत विशाल कई एकड़ में फैला गहरा तालाब था जिसके कुछ हिस्से में मिट्टी पाट-पाट कर उन लोगों ने इतना बड़ा प्लाट, फिर मकान बना लिया था। उस मुहल्ले में पहले से ही रहने वाले लोग बताते थे कि लीला भाभी सुबह तीन-चार बजे से ही सिर पर कभी टोकरी में कभी बोरी में रखकर आधा किलोमीटर दूर से मिट्टी ढोना शुरू कर देती थीं जब तक उजाला नहीं हो जाता तब तक ढोतीं और फिर रात को सबको खिलाने-पिलाने के बाद फिर मिट्टी ढोना शुरू करतीं तो रात के बारह बजे तक ढोतीं। जब तक गड्ढा भरकर मकान बन नहीं गया तब तक यही उनकी दिनचर्या रही। फिरभी उनके साथ उस घर में ऐसे व्यवहार का कारण समझ नहीं आया।
शुचि की तंद्रा भंग हुई जब उसने देखा कि बाबूजी सामने खड़े हैं। "तुम कॉलेज नहीं गईं ?"  बाबूजी ने पूछा।
"नहीं, लेकिन आप तो ऑफिस गए थे, फिर इतनी जल्दी?"
हाँ, जवाहर के पास हॉस्पिटल जा रहा हूँ।" बाबूजी ने कहा।
"मैं भी चलूँ?" वह खड़ी होती हुई बोली।
"तुम क्या करोगी जाकर?" बाबूजी की आवाज में तल्खी साफ झलक रही थी।
"मैं भी देख आऊँगी।" उसने मायूस होकर कहा।
"किसे देख आओगी, वो अब नहीं रही।" बाबूजी की आवाज कहीं गहराई से आती प्रतीत हुई। शुचि फिर धम्म से सोफे पर गिर पड़ी, आँसू उसके गालों पर ढुलक आए, वह रोना चाहती थी पर जैसे किसी ने उसका कंठ भींच दिया हो।
#मालतीमिश्रा

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8 टिप्‍पणियां:

  1. प्रिय मालती बहन -- नारी विमर्श और समाज की विडम्बनाओं को उकेरती आपकी लघुकथाएं उस समाज का आइना हैं जो मौन रहकर नारी के शोषण का तमाशा देखता है और बाद में एक दिन शोक मना तीसरे दिन उस दुखद घटना को भुला देता है |शुचि के रूप में अदृश्य बन्धनों से बंधी लड़की जो चाहकर भी , कई नारियों द्वारा पीड़ित एक अबला के लिए कुछ ना कर सकी | दूसरों के दुःख पर आसूं बहाने का अधिकार भी कहाँ मिलता है ? चुस्त शिल्प में बंधी सार्थक लघुकथा मन को छु गयी | सस्नेह

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    1. प्रिय रेनू जी आपने कहानी का गूढ़ विश्लेषण किया, आपकी बात से अक्षरशः सहमत हूँ, यही विडंबना है समाज की कि बहुत सी बुराइयों को हम देखते हैं समझते हैं फिरभी उनको समाप्त करना तो दूर चाहते हुए भी उनके खिलाफ आवाज भी नहीं उठा पाते। आपकी अनमोल टिप्पणी के लिए सस्नेहाभार।🙏

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  2. लीलाधर
    की
    लीला है
    सादर

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  3. अप्रतिम लघु कथा।
    दर्द पीड़ा और सामाजिक विसंगतियों से भरी

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    1. मीता बहुत-बहुत धन्यवाद लेखनी को बल देने के लिए। शुभ रात्रि🙏

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  4. प्रिय सखी ...लाजवाब जन मानस के भयावह कृत्य जिस बखूबी से मार्मिक और साधारण भाषा में एक श्वास में लिख जाती हो ...मन में आती जाती रोज की महिला मरीजों के चेहरे नजर आने लगते है उनकी अन बोली आँखें आपकी कहानी मैं मुखरित हो उठती है ....मार्मिक और सत्य सी घटना !


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    1. सखी आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहता है और इंतजार पूरा होते ही मन उत्साह से भर उठता है, जैसे किसी मृदुभाषी प्रेम दर्शाने वाले डॉ० को देखकर मरीज की आधी बीमारी अपने आप ठीक हो जाती है। आभार सखी🙏

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