रविवार

आते हैं साल-दर-साल चले जाते हैं, कुछ कम तो कुछ अधिक सब पर अपना असर छोड़ जाते हैं। कुछ देते हैं तो कुछ लेकर भी जाते हैं, हर पल हर घड़ी के अनुभवों की खट्टी-मीठी सी सौगात देकर जाते हैं। जिस साल की कभी एक-एक रात होती है बड़ी लंबी वही साल पलक झपकते ही गुजर जाते हैं। माना कि यह...
2017 तुम बहुत याद आओगे..... बीते हुए अनमोल वर्षों की तरह 2017 तुम भी मेरे जीवन में आए कई खट्टी मीठी सी सौगातें लेकर मेरे जीवन का महत्वपूर्ण अंग बन छाए कई नए व्यक्तित्व जुड़े इस साल में कितनों ने अपने वर्चस्व जमाए कुछ मिलके राह में कुछ कदम चले साथ और फिर अपने अलग नए रास्ते...

गुरुवार

प्रश्न उत्तरदायित्व का...

प्रश्न उत्तरदायित्व का...
हम जनता अक्सर रोना रोते हैं कि  सरकार कुछ नहीं करती..पर कभी नहीं सोचते कि आखिर देश और समाज के लिए हमारा भी कोई उत्तरदायित्व है, हम सरकार की कमियाँ तो गिनवाते हैं परंतु कभी स्वयं की ओर नहीं देखते। मैं सरकार का बचाव नहीं कर रही और न ही ये कह रही हूँ कि सरकार के कार्य...

शनिवार

दहक रहे हैं अंगार बन इक-इक आँसू उस बेटी के धिक्कार है ऐसी मानवता पर जो बैठा है आँखें मीचे मोमबत्ती लेकर हाथों में निकली भीड़ यूँ सड़कों पर मानो रावण और दुशासन का अंत तय है अब इस धरती पर आक्रोश जताया मार्च किया न्याय की मांग किया यूँ डटकर संपूर्ण धरा की...
चलो अब भूल जाते हैं जीवन के पल जो काँटों से चुभते हों जो अज्ञान अँधेरा बन मन में अँधियारा भरता हो पल-पल चुभते काँटों के जख़्मों पे मरहम लगाते हैं मन के अँधियारे को ज्ञान की रोशनी बिखेर भगाते हैं चलो सखी सब शिकवे-गिले मिटाते हैं चलो सब भूल जाते हैं.... अपनों...

मैं ही सांझ और भोर हूँ..

मैं ही सांझ और भोर हूँ..
अबला नहीं बेचारी नहीं मैं नहीं शक्ति से हीन हूँ, शक्ति के जितने पैमाने हैं  मैं ही उनका स्रोत हूँ। मैं खुद के बंधन में बंधी हुई दायरे खींचे अपने चहुँओर हूँ, आज उन्हीं दायरों में उलझी मैं अनसुलझी सी डोर हूँ। मैं ही अबला मैं ही सबला मैं ही सांझ और भोर हूँ। पुत्री भगिनी...

बुधवार

आजकल चारों ओर राजनीति का माहौल गरम है और ऐसे में गुजरात पर सबकी नजर है। अन्य राज्यों में तो जनता की बेसिक जरूरतों को और राज्य के विकास को मुद्दा बनाया जा सकता है लेकिन गुजरात के लिए तो ये मुद्दा हो ही नहीं सकता था इसलिए जनता को बरगलाने के लिए वही सदाबहार चाल चली गई कि...

मंगलवार

हमारा देश स्वतंत्र हुआ परंतु स्वतंत्रता का सुख एक रात भी भोग पाते उससे पहले ही देश दो भागों में बँट गया। देश को बाँटने वाले भी वही जिनको देशवासी अपना सर्वोच्च मानते थे।  क्यों न हो भई देश को स्वतंत्र करवाने में दिन- रात एक कर दिया, घर-परिवार के ठाट-बाट को छोड़कर जेल...

रविवार

नारी तू खुद को क्यों इतना दुर्बल पाती है, क्यों अपनी हार का जिम्मेदार तू औरों को ठहराती है। महापराक्रमी रावण भी जिसके समक्ष लाचार हुआ, धर्मराज यमराज ने भी अपना हथियार डाल दिया। वही सीता सावित्री बनकर तू जग में गौरव पाती है, पर क्यों इनके पक्ष को तू सदा कमजोर दिखाती है। माना...

शुक्रवार

विकास की दौड़ में पहचान खोते गाँव

विकास की दौड़ में पहचान खोते गाँव
वही गाँव है वही सब अपने हैं पर मन फिर भी बेचैन है। आजकल जिधर देखो बस विकास की चर्चा होती है। हर कोई विकास चाहता है, पर इस विकास की चाह में क्या कुछ पीछे छूट गया ये शायद ही किसी को नजर आता हो। या शायद कोई पीछे मुड़ कर देखना ही नहीं चाहता। पर जो इस विकास की दौड़ में भी दिल...

यादों की दीवारों पर

यादों की दीवारों पर
यादों की दीवारों पर लिखी वो अनकही सी कहानी जिसे न जाने कहाँ छोड़ आई ये जवानी कच्चे-पक्के मकानों के झुरमुटों में खोया सा बचपन यादों के खंडहरों में दबा सोया-सा बचपन न जाने कब खो गई दुनिया की भीड़ में वो गाती गुनगुनाती संगीत सी सुहानी यादों की दीवारों..... मकानों के झुरमुटों...

रविवार

राजनीतिक मानवाधिकार

राजनीतिक मानवाधिकार
'मानवाधिकार' यह शब्द सुनने में पढ़ने में बहुत अच्छा लगता है पर जब यही शब्द हमारे हितों के मार्ग को अवरुद्ध करने लगे तो इसकी सारी मिठास कड़वाहट में तब्दील हो जाती। आजकल 'मानवाधिकार 'सहिष्णुता-असहिष्णुता' जैसे शब्द सिर्फ़ वोट-बैंक के लिए प्रयोग किए जाते हैं। अधिकार चाहे व्यक्तिगत...

मंगलवार

जिस प्रकार खरगोश से आसमान गिरने की खबर सुनकर जंगल के सभी जानवर उसके पीछे-पीछे भागने लगे वही हाल हमारे देश के बुद्धिजीवियों का भी है और मीडिया के तो कहने ही क्या..... कोई भी खबर मिली नहीं कि हमारे देश के बुद्धिजीवी बिना सोचे समझे अपनी कलम का जादू दिखाना शुरू कर देते हैं,...

बुधवार

हिंदी हमारी भाषा है.....

हिंदी हमारी भाषा है.....
हिंदी हमारी भाषा है  मेरी प्रथम अभिलाषा है, भारत देश के गरिमा की  यही परिष्कृत परिभाषा है। हिंदी हमारी भाषा है.. जिसको अपनी भाषा का  ज्ञान नहीं सम्मान नहीं, बेड़ियों में बँधी हुई उसकी हर प्रत्याशा है। हिंदी हमारी भाषा है.. पर भाषा पर संस्कृति से इसको कोई...

शुक्रवार

धार्मिक कानून और देश

धार्मिक कानून और देश
दरअसल हम अभी भी परदेशी ही हैं, सिर्फ किसी देश में पैदा हो जाने मात्र से हम उस देश के या वह देश हमारा नहीं हो जाता। जब तक हम देश को भली-भाँति जान नहीं लेते जब तक  उसकी संस्कृति उसकी शक्ति या दुर्बलता हमारे भीतर रच बस नहीं जाती तब तक हम उसके नही हो सकते। देश में बहुत...

शनिवार

अंधभक्ति

अंधभक्ति
हमारा देश महाशक्ति होने का दावा करता है..किस आधार पर? जहाँ एक बाबा के अंध भक्तों की गुंडागर्दी नहीं रोकी जा सकी! आखिर इन बाबाओं को इतना शक्तिशाली बनाता कौन है? हमारे आपके बीच से ही आम लोग जो अज्ञानता वश ढोंगी गुरुओं में ही भगवान होने का भ्रम पाल लेते हैं और फिर आँखें मूंद...

मंगलवार

जिस देश की धरती शस्य-श्यामला हृदय बहे गंग रसधार जिसके सिर पर मुकुट हिमालय सागर रहा है पैर पखार स्वर्ग बसा जिसकी धरा पर सुरासुर करते जिसका यश गान जिस धरा पर पाकर जन्म हुए आर्यभट्ट चाणक्य महान उस देश को न झुकने देंगे उस देश को न मिटने देंगे प्रणों की आहुति...

रविवार

गरिमामयी पद के गरिमाहीन पदाधिकारी

गरिमामयी पद के गरिमाहीन पदाधिकारी
 देश के दूसरे सर्वोच्च पद पर आसीन पदाधिकारी उप-राष्ट्रपति मो० हामिद अंसारी ने पद छोड़ते समय जो कुछ भी कहा नि:संदेह उससे राष्टृवादी लोगों के हृदय को ठेस लगी होगी। उन्होंने अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर फिर ऐसा बयान दिया जो उनके पद की गरिमा को धूमिल करता है। उनके कथनानुसार...

शनिवार

बहुत याद आता है गुजरा जमाना

बहुत याद आता है गुजरा जमाना
बहुत याद आता है गुजरा जमाना वो अल्हड़ औ नटखट सी बचपन की सखियाँ वो गुड्डा और गुड़िया की शादी की बतियाँ वो पलभर में झगड़ना रूठना और मनाना बहुत याद आता है गुजरा जमाना....... वो गाँव की चौड़ी कहीं सँकरी सी गलियाँ  वो गलियों में छिप-छिप के सबको चिढ़ाना वो दादा जी का...

गुरुवार

आशा की किरन

आशा की किरन
इक आशा की किरण पाने को अंधकार में भटक रही है, आँखों में उदासी के बादल मसि बन अश्रु बिखर रही है। शब्द-शब्द में पीर बह रही  खामोशियाँ चीत्कार कर रहीं  पीड़ा किसी को दिखा न सके जो  वो शब्दों में हाहाकार कर रही। जुबाँ खामोशी की चादर ओढ़े अधरों पर निःशब्दता...

रविवार

अस्तित्व

अस्तित्व
शय्या पर पड़ी शिथिल हुई काया जो सबको है भूल चुकी, अपनों के बीच अनजान बनी अपनी पहचान भी भूल चुकी। तैर रही कोई चाह थी फिरभी बेबस वीरान सी आँखों में, लगता जीवन डोर जुड़ी हो खामोश पुकार थी टूटती सांसों में। ढूँढ रहीं थीं कोई अपना लगे कोई जाना-पहचाना, हर एक चेहरे को किताब मान पढ़ने...

गुरुवार

एकाधिकार

एकाधिकार
आज एक बेटी कर्तव्यों से मुख मोड़ आई है दर्द में तड़पती माँ को बेबस छोड़ आई है। बेटी है बेटी की माँ भी है माँ का दर्द जानती है माँ के प्रति अपने कर्तव्यों को भी खूब मानती है बेटों के अधिकारों के समक्ष खुद को लाचार पाई है दर्द में तड़पती माँ को बेबस छोड़ आई है। अपनी हर...
एक लंबे अंतहीन सम इंतजार के बाद  आखिर संध्या का हुआ पदार्पण सकल दिवा के सफर से थककर दूर क्षितिज के अंक समाने मार्तण्ड शयन को उद्धत होता अवनी की गोद में मस्तक रख कर अपने सफर के प्रकाश को समेटे तरंगिनी में घोल दिया प्रात के अरुण की लाली से जैसे संध्या...

सोमवार

गाँवों की सादगी खो गई

गाँवों की सादगी खो गई
शहरों की इस चकाचौंध में  गाँवों की सादगी ही खो गई जगमग करते रंगीन लड़ियों में अंबर के टिमटिमाते तारे खो गए। लाउड-स्पीकर की तेज ध्वनि में अपनापन लुटाती पुकार खो गई डीजे की तेज कर्कश संगीत में ढोल और तबले की थाप खो गई। प्रतिस्पर्धा की होड़ में देखो आपस का प्रेम-सद्भाव...

शनिवार

चलता चल राही...

चलता चल राही...
जीवन की राहें हैं निष्ठुर चलना तो फिर भी है उनपर अपने कर्मों से राहों के काँटे चुन और चलता चल चलता चल राही चलता चल... मार्ग में तेरे बाधा बनकर विशाल पर्वत भटकाएँगे, कर्मयोग से प्रस्तर को पिघलाकर नदी बहाता चल चलता चल राही चलता चल... सूरज की जलती किरणें झुलसाएँगी तेरा...

गुरुवार

अधिकारों की सीमा...

अधिकारों की सीमा...
अधिकारों की सीमा.... सभी को अपनी बात रखने का अधिकार होना चाहिए पर किसी की भावना पर नहीं प्रहार होना चाहिए देश और धर्म के लिए संतुलित व्यवहार होना चाहिए अधिकारों के लिए निश्चित एक दीवार होना चाहिए एक वर्ग का संरक्षण दूसरे पर नहीं अत्याचार होना चाहिए देश के विकास...

बुधवार

✅हिंदी विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के सौजन्य से.......  Ek Fauji ki request per yeh forwarded msg. zaroor padhen ----------------------- कोर्ट मार्शल" ------------ आर्मी कोर्ट रूम में आज एक केस अनोखा अड़ा था छाती तान अफसरों के आगे फौजी बलवान खड़ा था बिन हुक्म...

मंगलवार

पृथ्वीराज..."एक अनकही दास्तां" (संस्मरण)

पृथ्वीराज..."एक अनकही दास्तां" (संस्मरण)
'पृथ्वीराज'...."एक अनकही दास्तां" (संस्मरण) बात कोई सन् 1985-86 की है, उस दिन दोपहर से ही घर के बड़ों के व्यवहार कुछ अलग दिखाई दे रहे थे, कभी माँ दादी से धीरे-धीरे बातें करतीं और हम बच्चों को पास आते देखकर चुप हो जातीं। कभी चाची और छोटी दादी आपस में खुसर-पुसर करते दिखाई...